भाभी का फोन सुनते ही भावना एक बार तो चक्कर खा गिरते बची । उसकी आंँखों में आँसू बहने लगे । स्मृति पटल पर बीते दिन घूमने लगे।
कितना फर्क पड़ गया इन तीन वर्षों में उसकी शादी के एक वर्ष के अन्दर रेल दुर्घटना में माता पिता का स्वर्गवास उसके बाद उनकी बरसी पर ही तो गई थी
वो मायके एक ही शहर में उसकी शादी,अपनी पसंद के सरकारी अस्पताल के चिकित्सा अधिकारी नीलेश से की थी। मां पिता कितने खुश थे हाँ भाई भाभी को रिश्ता पहले से ही नामंजूर,
अब माँ पिता के जाने के बाद तो रही सही कसर भी पूरी कर दी उन्होंने।
नीलेश मिलनसार रिश्तों के महत्व को भली-भांति समझते उनके कहने पर ही इस बार राखी पर गई लेकिन उनका बेरूखा परायापन व्यवहार जैसे वो वहां लेने के लिए गई हो
भाभी का पकवान की थाली हाथ में पकड़ा आई कह घन्टे भर गायब और भाई का आफिस का काम कह कमरे में ही रहना बहुत अखरा था
उसको…शाम वापसी पर भाई का नकदी और साड़ी इस तरीके से देना मानों सर पर से बोझ उतारा जा रहा हो । भावना का दिल टूट कर रह जाता
कुछ देर माँ पिता की तस्वीर के आगे आँसू बहा कभी न आने के प्रण साथ लौट आती है।
आज भाभी के फोन में भाई को पक्षाघात सुनकर मन विचलित हो उठता है। भाभी कहती हैं ‘करोनाकाल’ की वजह से सरकारी प्राइवेट कहीं बैड नहीं,
समय पर एडमिट नहीं हुए तो जान का खतरा है। भावना का दिल कहता है यह परीक्षा का समय है
विपत्ति में अपने पराये की पहचान का समय आखिर वक्त पर काम आना ( विपत्ति में मदद करना ) उसका फर्ज है अपने तो होते ही वही जो वक्त पर काम आयें ।
वो कहती हैं भाभी आप चिंता न करें मैं नीलेश से कुछ करने को कहती हूँ । आखिर नीलेश का प्रयास भाई एडमिट हो सही समय पर चिकित्सा सुविधा मिलने से जल्दी स्वस्थ हो गये,
भाई-भाभी अपने व्यवहार से लज्जित हो भावना से क्षमा मांगते हैं दोनों को गले लगा लेते हैं। कहते हैं तुम दोनों न होते जो जाने क्या हो जाता..?
नीलेश कहते हैं जीवन में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला विद्यालय आज तक नहीं खुला…भावना बोली भाई ‘वक्त पर काम आना ‘ ही अपने पराये की पहचान करा देता है।
लेखिका- डॉ बीना कुण्डलिया
लघुकथा- वक्त पर काम आना
( विपत्ति में मदद करना)