वृद्धाश्रम – सीमा बी.

बहुत दिनो बाद पापा से मिलने “आखिरी पड़ाव” वृद्धाश्रम आयी हूँ। पापा पिछले तीन सालों से देहरादून के इस प्रकृति की गोद में बने आश्रम में रह रहे हैं। माँ को हमने 3 साल 2 महीने पहले ही खो है। मैं और मेरा बड़ा भाई माँ के जाने के बाद एक मिनट को भी अकेला नही छोड़ते थे। रात को मेरा भतीजा उनके पास ही सोता था।

हमारे पापा की सरकारी नौकरी थी। जिससे वो रिटायर 8साल पहले ही हुए थे। रिटायर होने के बाद वो हर 3-4 महीने माँ को ले कर घूमने निकल जाते। माँ पापा हमारी वजह से और नौकरी की वजह से एक दूसरे को कभी समय दे ही नही पाए।

बड़े भाई और मेरे अपने पैरों पर खड़े होने के बाद ही चैन की सांस ले पाए। फिर हमारी शादी और उसके बाद हम लोगो की गृहस्थी संभलवाने में ही लगे रहे। जब रिटायर हुए तब जा कर उन दोनो ने अपने लिए वक्त निकाला तो हम सब लोग बहुत खुश हो गए।

बड़े भाई, भाभी और बच्चे उन दोनो का खूब ध्यान रखते थे। माँ को कुछ  दिन का बुखार ही अपने साथ ले गया। माँ के बिना उनका मन अपने बच्चों और उनके बच्चों में ही नही रम रहा था तो पापा अपने एक दोस्त कै कहने पर यहाँ आ गए और यही रह गए।

बड़े भाई भाभी को बहुत बुरा लगा पर फिर उनके बारे में सोच उनकी मर्जा को मान लिया। भाई भाभी हर महीने ही उनको बच्चों के साथ मिलने आते हैं। मैं भी आती हूँ 2-3 महीने में एक बार पर इस बार 6महीने के बाद आयी हूँ।

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पापा मुझे आश्रम के लॉन मेॆ ही दिख गए। सर्दी तो नही है पर फिर भी हवा में ठंडक है तो कुछ और लोग भी ग्रुप में बैठे हैं। पापा कोई किताब पढ कर सबको सुना रहे हैं। कुछ शब्द कान में पड़े तो लगा कोई धार्मिक किताब पढ़ कर सुना रहे हैं पर धीरे धीरे उनके पीछे से गयी सरप्राइज देने के लिए तो देखा वो तो कहानियों की किताब में से कहानी सुना रहे हैं अपने दोस्तो को…. मैंने “पापा ” कह कर उनके कंधे पर हाथ रखा तो वो बिना मुडे ही बोले,” आ  गयी कुमुद बहुत दिनो बाद आयी है”!

सरप्राइज तो नही कर पायी मैं उन्हें पर वो बहुत खुश दिख रहे थे। अपने सब दोस्तों से मुझे मिलाने के बाद बोले,” चल कुमुद मैं तुझे अपने दोस्त से मिलवाता हूँ”, कह कर वो मेरे आगे आगे चल दिए और मैं उनके पीछे पीछे आश्रम के अंदर चली गयी।

कॉरिडोर में आ कर लाइब्रेरी के सामने रूक गए और मुझे वही रूकने को कह अंदर तले गए। 5 मिनट के बाद एक आदमी के साथ बाहर निकले तो मैं चौंक गयी क्योंकि मुझे लगा था कि उनका कोई उनका हमउम्र दोस्त होगा पर वो तो मुश्किल से 40-45 साल की उम्र का होगा। उन्होंने उस आदमी से कहा,” संजीव ये मेरी बेटी कुमुद है, दिल्ली के कॉलेज में लेक्चरर है”! “कुमुद ये मेरा नया दोस्त संजीव है , कोई 3 महीने पहले ही यहाँ आया है। सबका बहुत ध्यान रखता है और दुनिया भर की नयी नयी बातें बताता है।

हम दोनो ने एक दूसरे को हैलो कहा और पापा के साथ उनके कमरे में आ गए। वो कुछ देर हमारे पास बैठा इधर उधर की बातें करके और वो चला गया। मैं हैरान थी कि इस उम्र का आदमी यहाँ क्या कर रहा है। स्टॉफ तो नही है फिर ऐसा क्या है जो बुजुर्गों के साथ रह रहा है।? सवाल तो बहुत सारे मन में आ रहे थे।

कुछ देर में संजीव जी हमारे लिए चाय ले आए। हम चाय पीने लगे पर सवाल तो दिमाग में घूम ही रहे थे पर उनकी लाइफ के बारे में पूछने की हिमाकत करने से डर लग रहा था। पापा और वो किसी के बारे में बात कर रहे थे तो मैं चुपचाप उन्हें सुन रही थी।

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उनके जाने के बाद मैंने पापा से पूछ ही लिया,” पापा संजीव जी यहाँ के स्टॉफ तो नही लग रहे फिर इस उम्र में वो यहाँ कैसे? पापा सीरियस हो गए और बोले,” हाँ बेटा वो यहाँ हमारे साथ ही रहने आया है। ये आश्रम इसके दादा जी ने बनवाया था। ये बहुत बड़ा बिजनेसमैन है। पिछले साल एक एक्सीडेंट में इसने अपने माँ, बाप, बीवी और बच्चे को खोया है”।

“आज भी ये खुद को कोसता है कि सबके साथ उस दिन वो भी क्यों नही गया। उनके जाने के बाद इसका काम से मन उचट गया है। ज्यादातर बिजनेस इसने बेच दिया है। बस एक फैक्ट्री का काम देख रहा है पर ज्यादातर काम ये फोन से ही करता है। बहुत सारी प्रॉपर्टी इसके पिता और दादा ने बनायी थी। ये एक ही संतान थी अपने माँ बाप की। जब मन को कहीं शांति नही मिली तो एक बार यहाँ दादा की बरसी करने आया तो यही रह गया।”

” यहाँ इसे हर बुजुर्ग में इसे दादा दादी नजर आते हैं अपने पिता और माँ की कमी भी इसकी यहाँ पूरी हो रही है। हम सबने समझाया कि दोबारा शादी कर लो पर कहता है कि नही करेगा और अब यहीं रहेगा। अब ये कई शहरो में ऐसे वृद्धाश्रम बनवा रहा है।”

संजीव जी के बारे में सुन कर बहुत तकलीफ हुई और अच्छा भी लगा कि उन्हें अपनापन यहाँ मिल रहा है। संजीव जी के बारे में जान कर लगा कि उम्र का कौन सा पड़ाव हम आखिरी मान ले ये किसी को नही पता। जब विरक्ति होने लगती है हर चीज से तब हम सुकून की तलाश करते हैं।

पापा जब यहाँ रहने आए थे तो सभी रिश्तेदारों ने बहुत सुनाया था और ताने दिए थे हम दोनो बहन भाई को पर हम अपने पापा की खुशी चाहते थे तभी तो जब उन्होंने कहा,” बच्चों मुझे गलत मत समझो पर मेरा मन नही लग रहा मुझे रोको मत और जाने दो”…. तब हमने कुछ नही कहा। लोगो की बातों को कभी दिल तक पहुँचने ही नही दिया। पापा के साथ लंच करने के बाद मैं बाहर आ गयी।

पापा कुछ देर लेटने के लिए चले गए। मेरी वापसी रात की ट्रैन से थी तो मैं अपना टाइम पास करने के लिए एक किताब ले कर बैठी तो संजीव जी भी नजर आ गए। उनकी मुस्कान के पीछे का दर्द  अब मैं महसूस कर पा रही थी। मैं बैंच पर बैठी थी तो मैंने कहा बैठिए तो वो बैठ गए।

” आप किसी होटल में रूकी हैं कुमुद जी”?

मैं– “नहीं, मैं रात की ट्रैन से वापिस जा रही हूँ। बच्चे घर में हैं तो एक दिन वो लोग मैनेज कर लेंगे  पर कल स्कूल है दोनो का”।

संजीव जी मेरी बात सुन कर बोले,” ठीक है पर डिनर करके जाना आप और चिंता मत कीजिए मेरा ड्राइवर आप को स्टेशन छोड़ आएगा।”

“अरे संजीव जी आप परेशान न हो मैं चली जाऊँगी”! मैंने कहा तो वो बोले,” इसमें कोई परेशानी की बात नही है आप मेरी छोटी बहन जैसी हैं तो आपको रात को अकेले कैसे जाने दे सकते हैं”! उनकी बात सुन कर मैं कुछ नही बोली और “ठीक है” कह दिया तो वो बोले,” वैरी गुड”!

मैं मुस्कुरा दी तो वो बोले,” आपके पापा आप सब की बहुत तारीफ करते हैं। आप के भाई भाभी से भी मिल कर बहुत अच्छा लगा था और सोच रहा था कि अंकल जी की किस्मत अच्छी है जो उनको इतना प्यार करने वाला परिवार मिला पर लगा कि फिर वो यहाँ अकेले क्यों रहते हैं?

मैंने उनसे एक दिन हिम्मत करके ये पूछ ही लिया”! तब उन्होंने बताया कि,” जॉब थी तो एक रूटीन था उसके बाद भी वाइफ के साथ घूमा तो अच्छा लगा पर उनके जाने के बाद मेरे बच्चों की जिंदगी थम गयी वो मेरी ही चिंता में लगे रहते और खूब ध्यान रखते कि मैं अकेला न महसूस करूँ पर मुझे वही खल रहा था। क्योंकि इतना खास महसूस करने की आदत नही रही तो यहाँ अपनी उम्र के लोगो के साथ अच्छा लगता है”!

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मैं संजीव जी की बात सुन कर समझ गयी कि हम सबने क्या गलती की थी पर पापा यहाँ खुश हैं तो एक तसल्ली भी हो रही है। यहाँ हर काम करने को फ्री हैं जब जो मर्जी करेें। मुझे चुप देख कर संजीव जी बोले,” क्या हुआ बुरा लग गया शायद आपको”?

” नहीं नहीं बुरा नही लगा। थैंक्यू आपने पापा के यहाँ आने का कारण बताया। सच में इंसान को एकांत भी चाहिए होता है। अपने लिए वक्त सब को चाहिए ये भूल गए थे हम “! वो बोले,” आप लोग चिंता मत करें  यहाँ वे बहुत खुश हैं”!

मैंने पूछा,” आप भी यहाँ खुश हैं संजीव जी”? “हाँ मैं भी खुश हूँ,यहाँ  कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके बच्चे जानबूझ कर अपने पैरेंटस के छोड़ गए हैं। ये सब मुझे अपने बच्चे जैसा प्यार करते हैं और मुझे लगता है कि  मेरा परिवार मिल गया है और क्या चाहिए? पैसा बहुत कमा लिया और हर तरीके से जी कर देखा है अब सब कुछ बेकार लगने लगा है क्योंकि आखिर में तो सब को जाना है। फिर क्यों पैसो के पीछे भागू जितना है वो काफी है।”

धीरे धीरे अँधेरा होता जा रहा था। रात 10:30 बजे की ट्रेन थी और रेलवे स्टेशन एक घंटे की दूरी पर तो बस जल्दी से थोड़ा बहुत खाया और पापा से मिल कर जाने को तैयार हूँ।

संजीव जी का ड्राइवर मुझे रेलवे स्टेशन पहुँच गयी और अब वक्त पर ट्रैन भी आ गयी है। ट्रेन में बैठ कर पापा को फोन किया और संजीव जी के ड्राइवर से उनका नंबर ले कक उन्हें भी थैंक्यू का मैसेज कर दिया। आज मैं बेफिक्र हूँ पापा की तरफ से संजीव जी पापा और बाकी बुजुर्गों के पास हैं तो सबका ध्यान रखेंगे ये विश्वास मेरे अंदर छुपे पापा का दूर जाने का दर्द कम कर गया था।

समाप्त (30-01-2022)

सीमा बी.(हैदराबाद)

स्वरचित

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