वनवास – तृप्ति उप्रेती

“रुकमा,ओ रुकमा…. चल री, गायों को घर ले चलते हैं। सांझ घिरने में तो अभी बखत है,पर देख तो  कैसे घटाटोप  बादल घिर आए हैं। लगता है खूब बरसात गिरेगी।” “आई काकी, जरा चूल्हे के लिए लकड़ियां तो छील लूं”,कहकर रुकमा दनादन दरांती से पेड़ों की सूखी छाल निकालने लगी। बड़ा सा गट्ठर अपनी चादर में बांधकर पीठ पर लादा और सर्पीली सी पहाड़ी पगडंडी पर गायों को हाँकती घर को चल दी।

        उत्तराखंड के सुदूर कुमाऊं में बागेश्वर जिले में बसा एक छोटा सा गांव ‘मनिया’। वहाँ रहने वाले हरिदत्त पंत जी की दो संतानें थी,रुक्मणी और भुवन। हरिदत्त बामनवृत्ति(पंडिताई)  करते और परिवार के गुजारे लायक कमा लेते थे। पत्नी शांति कभी कोई शिकायत ना करती। बरस गुजरे और रुकमा ब्याहने लायक हो गई। हरिदत्त जी ने पास के गांव के अपने जजमान रघुवर जोशी जी के सुपुत्र कैलाश के साथ जन्मपत्री जुड़ा कर उसका विवाह कर दिया। रुकमणी ससुराल चली गई। उसकी सास बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी। रघुवर जी की मां और छोटे भाई और उनकी पत्नी सब साथ रहा करते थे। उनके छोटे भाई की कोई संतान नहीं थी। रघुवर जी का बेटा कैलाश पूरे परिवार का इकलौता लाडला था। खेती-बाड़ी थी पर गांव में संसाधनों का अभाव था। अपना पेट भरने लायक अनाज हो जाता। घर में दो दुधारू गाय थीं तो दूध पानी का प्रबंध भी हो जाता। यह वह समय था जब पहाड़ों के गांव से अधिकतर युवाओं ने अच्छी आमदनी और बेहतर जीवन यापन के अवसरों की तलाश में शहरों की ओर पलायन शुरू कर दिया था। कैलाश के कई दोस्त भी धीरे-धीरे गांव छोड़कर शहर चले गए। वह भी शहर जाकर अपनी किस्मत आजमाना चाहता था। अक्सर रुकमणी से कहता कि यहां गांव में क्या रखा है, न ढंग का खा पाते हैं,ना पहन पाते हैं। सुना है शहरों में बहुत पैसा है। मौका लगे तो मैं भी शहर जाकर थोड़े पैसे कमा लूं फिर धीरे-धीरे आमा,बाबू,काका काकी और तुम सबको भी शहर ले जाऊंगा। इस पर रुकमा कहती कि परिवार पैसे से बड़ा थोड़े ही ना है यहां सब साथ मिल बैठकर जैसा भी रुखा सूखा मिलता है खा लेते हैं पर कम से कम एक दूसरे के साथ तो रहते हैं। तुम वहां अकेले शहर में पड़े रहोगे और हमें हमेशा तुम्हारी चिंता लगी रहेगी। न जाने कैसे लोग हों। कहीं रहने का ठिकाना नहीं। अनजान शहर में अनजान लोगों के बीच जाकर पैसा कमाने से तो अच्छा है कि यहां अपने परिवार के बीच रहो। जैसे भी समस्या हो हम साथ मिलकर उसे सुलझा लेंगे। कई दिनों तक यह कशमकश चलती रही।




       आखिरकार एक दिन शहर से कैलाश के दोस्त महेश की चिट्ठी आई जिसमें उसने लिखा था कि उसे शहर में ड्राइवर की नौकरी मिल गई है साथ ही शहर की तड़क-भड़क भरी जिंदगी का भी खूब बखान किया था। उसने कैलाश को लिखा कि तू भी यहां आ जा तुझे भी कोई ना कोई काम मिल जाएगा। कैलाश तो जैसे इसी मौके की तलाश में था। उसने तुरंत अपना सामान बांध लिया और निकल पड़ा। बाबू ने कितना समझाया। आमा ने रो रो के दुहाई दी पर उसके कानों पर जूं न रेंगी। रुकमा  कुछ न बोली, उसे पता था कि अब कुछ भी कहना व्यर्थ है,वह अपना मन बना चुका है और अवश्य ही जाएगा। जाते हुए कैलाश बाबू से बोला,”मैं शहर जाकर तुम्हें पैसे भेजता रहूंगा। अपना ध्यान रखना।” रुकमा से कहकर गया कि तू चिंता मत कर। जल्दी ही तुम सब को भी शहर बुला लूंगा। तब तक आमा और बाबू का ध्यान रखना, कहकर चला गया। रुकमा पथराई आंखों से उसे जाते हुए देखती रही और गहरी सांस लेकर घर के कामों में लग गई।

       इस बात को आज पाँच बरस बीत गए हैं। कैलाश की चिट्ठी आती रहती है। कभी-कभी कुछ पैसे भी भेज देता है। कहता है कि शहर में कमाता हूं तो खर्चे भी बहुत हैं। बस इसी जुगाड़ में लगा हूं कि किसी तरह एक मकान का इंतजाम करूं और तुम लोगों को बुला लूं। पोते का इंतजार करते-करते आमा की पथराई आंखें हमेशा के लिए बंद हो गईं। बाबू असमय ही बूढ़े हो गए क्योंकि कैलाश उनके जीने का एकमात्र सहारा था। इस बीच काका भी लंबी बीमारी के बाद चल बसे। रुकमा के नाजुक कंधों पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी आ गई घर बाहर का सब काम वह और काकी मिलकर देखते। उसका पूरा दिन तो काम में भी जाता पर सांझ होते-होते कैलाश की याद सताने लगती। सांझ का सूनापन उसके मन को व्यथित कर देता। चारों ओर खड़े अटल पहाड़ उसे साहस बंधाते। आखिरकार वही उसके सुख दुख के साथी थे। अपने आंसुओं,अपने दर्द को दिन भर अपनी हंसी से ढक कर रखती ताकि बाबू और काकी परेशान ना हों। पर रात के निशब्द एकांत में यह दर्द पिघल कर आंखों से बह निकलता।

        यह परिवार आज भी इस आस में है कि एक दिन बेटा आएगा और उन्हें अपने साथ ले जाएगा।

       यह कहानी इस एक परिवार की नहीं, पहाड़ के लगभग हर घर की है। मूलभूत सुविधाओं का अभाव और शहरी जीवन की तड़क-भड़क का आकर्षण निरंतर पहाड़ी युवाओं को शहरों की तरफ खींच रहा है। कुछ तो वहां जाकर सफल हो जाते हैं और अपने परिवार को भी अपने साथ लाकर रख पाते हैं परंतु अधिकांश परिवार अभी भी सुदूर पहाड़ों के  दुर्गम गांवों में दुरूह जीवन जी रहे हैं। न जाने रुकमा जैसी कितनी ही महिलाएं इस मृग मरीचिका के भ्रम में अकेले पूरे परिवार का सहारा बन कर रह रही हैं। न जाने कितनी ही बूढी आंखें धुंधली नज़रों से निरंतर अपने बच्चों के वापस आने का रास्ता देख रही हैं। क्या कभी उनका वनवास समाप्त होगा……

  • ● तृप्ति उप्रेती

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