Moral stories in hindi : ” तो ऐसा कौन-सा तीर मार लिया आपके लाडले ने जो मिठाई खिलाऊँ।” थाली में एक रोटी और थोड़ी-सी सब्ज़ी रखकर अनिरुद्ध के सामने पटकते हुए सुशीला जी बोलीं तो दिवाकर बाबू मन में बोले,” मिठाई न सही, अपने शब्दों में मिठास तो घोल ही सकती हो।आज मेरा बेटा का सपना पूरा हुआ। उसके IAS की परीक्षा पास कर ली है।अब वह एक बड़ा अफ़सर बन गया है और तुम हो कि…”। लेकिन वे चाहकर भी अपने मुँह से कुछ बोल न सके।
अनिरूद्ध तब छह-सात बरस का रहा होगा जब उसकी माँ उसे छोड़कर भगवान के पास चली गई थी।उस समय वह बदहवास-सा इस कमरे से उस कमरे में जा-जाकर अपनी माँ को खोजता रहता था।तब तो दिवाकर बाबू को भी कुछ होश न था।
तब रिश्तेदारों और हितैषियों ने ही उन्हें फिर से ब्याह करने की सलाह दी।बेटे के लिये ‘सौतेली माँ ‘ सोचकर ही वे सिहर उठते थें लेकिन अनिरुद्ध का खालीपन भी उनसे देखा नहीं जाता था, इसीलिए वे एक सादे समारोह में सुशीला जी से ब्याह करके उन्हें अपने घर ले आये।
अनिरुद्ध घर में माँ को देखकर बहुत खुश हुआ था।सुशीला जी भी उस पर अपनी जान छिड़कतीं थीं।अपने साथ बिठाकर खिलाती और अपनी गोद में ही उसे सुलाती थीं।देखने वालों को आश्चर्य होता कि कोई सौतेली माँ भी इतना प्यार कर सकती है।
दिवाकर बाबू जब अपनी दुकान से वापस आते तो अनिरुद्ध उनसे माँ के बारे में बताता कि माँ ने मुझे ये खिलाया, ये सिखाया वगैरह-वगैरह।
अनिरूद्ध स्कूल जाने लगा तो सुशीला जी उसे स्कूल ले जाने और वापस लाने में व्यस्त हो गईं।एक दिन उनका जी मितलाया तो उन्हें शंका हुई।पति के आने पर उन्हें बताया और फिर दोनों डाॅक्टर के पास गये।
डाक्टर साहिबा ने जब बताया तो सुशीला जी गर्भवती है तो दिवाकर खुशी-से फूले नहीं समाये।वे पत्नी का विशेष ख्याल रखने लगे।अनिरुद्ध भी अपने आने वाले भाई/बहन का इंतज़ार करने लगा।
समय पूरा होते ही सुशीला जी ने एक पुत्र को जन्म दिया।अस्पताल से जब बच्चे को लेकर घर आईं तो अनिरुद्ध बहुत खुश हुआ।उसने अपने भाई को स्पर्श करना चाहा तो सुशीला जी ने उसका हाथ झटक दिया।
वह मासूम कुछ समझ नहीं पाया।अगले दिन फिर से जब वह भाई को देखने माँ के पास गया तो सुशीला जी का व्यवहार उपेक्षित ही था।अब न तो वो अनिरुद्ध को अपने पास बिठाती और न ही उसे कहानियाँ सुनाती।कल तक जो उनकी आँखों का तारा था, आज वही उनकी आँखों में खटकने लगा था।
एक दिन अनिरुद्ध ने अपने भाई का खिलौना ले लिया, बस सुशीला जी ने चटाक-से एक थप्पड़ उसके गाल पर रसीद दिया।उस दिन वह बहुत रोया था।तब से वह गुमसुम-सा रहने लगा था।
दिवाकर बाबू ने भी महसूस किया कि सुशीला जी अब पहले जैसी नहीं रहीं।उन्होंने पत्नी को समझाना चाहा कि यह वही अनिरुद्ध है जिसके बिना तुम खाना नहीं खाती थी और अब उसे ही दुत्कार रही हो तो उन्होंने पलटकर जवाब दिया,
” अब मेरा बेटा मेरे पास है तो दूसरे खून को मैं क्यों देखूँ।आखिर है तो पराया ही ना।आपको फ़िक्र है तो आप कीजिये।” पत्नी की दो टूक बात सुनकर तो वे चकित ही रह गये थे।
समय बीतता गया।अनिरुद्ध आठवीं कक्षा में पढ़ने लगा था,उसका भाई आशीष भी स्कूल जाता लेकिन क्लास में कभी नहीं बैठता।एक परीक्षा में तो वह फ़ेल भी हो गया तब अनिरुद्ध ने माँ से कहा कि आशीष स्कूल जाकर पढ़ाई नहीं करता, सिर्फ़ शरारतें करता है।फिर तो सुशीला जी उसपर बरस पड़ीं थीं।
एक ही घर के दोनों बच्चे थें।एक को माँ का भरपूर प्यार मिलता और दूसरा माँ से प्यार के दो मीठे बोल भी सुनने को तरस जाता।यहाँ तक कि सुशीला जी उसकी पढ़ाई को भी पैसे बर्बाद करना समझती थी।
एक दिन अनिरुद्ध ने दसवीं कक्षा की कुछ किताबें खरीदने के लिये पिता से पैसे माँगे।दिवाकर बाबू दे ही रहे थें कि सुशीला जी ने यह कहकर उनके हाथ से रुपये ले लिया कि आशीष को जरूरत है।
दिवाकर बाबू क्या कहते,दोनों ही तो उनके बेटे थें।पिता की लाचारी को अनिरुद्ध समझ गया।उस वक्त तो उसने अपने मित्र से मदद ले ली लेकिन आगे की पढ़ाई का खर्च वह स्वयं ट्युशन पढ़ाकर निकालने लगा।
बीए करते हुए ही अनिरुद्ध IAS की परीक्षा की तैयारी भी करने लगा था और उसकी मेहनत रंग लाई।उसने प्रथम प्रयास में ही अच्छा रैंक प्राप्त कर दिया था। वही खुशखबरी उसने आज अपने पिता को सुनाया था।
दिवाकर बाबू पत्नी को जवाब देना चाह रहें थें लेकिन अनिरुद्ध ने पिता को चुप रहने का इशारा कर दिया।जिस माँ की गोद में बैठकर वह खाना खाया था और जिसकी ऊँगली पकड़कर वह स्कूल जाता रहा था,उनसे जवाब-तलब उसके पिता भी करे तो उसे गवांरा न था।उसने तो माँ की हर उपेक्षा को भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार कर लिया था।
काम के सिलसिले में अक्सर ही अनिरुद्ध को बाहर जाना पड़ता था।घर आने में देर-सवेर हो जाती तो सुशीला जी तीखे बाण चलाने में ज़रा भी नहीं चूकती थीं।एक दिन तो उन्होंने उससे साफ़ कह दिया कि अपने रहने की व्यवस्था अलग कर ले।
पिता की गिरती सेहत देखकर वह जाना नहीं चाहता था लेकिन माँ की खुशी के लिये वह अलग किराये के मकान में रहने लगा।
कुछ समय के बाद अनिरुद्ध को प्रमोशन और ट्रांसफर मिला लेकिन वह अपने घर से दूर जाना नहीं चाहता था,इसलिए उसने अपना प्रमोशन छोड़ दिया।आशीष ने दुकान संभाल ली और उसके पिता घर पर ही आराम करते।
अपने ही एक कर्मचारी की बेटी सुकन्या से उसने विवाह कर लिया।बहू को आशीर्वाद देने उसके पिता आये लेकिन न तो माँ आईं और न ही आशीष।उसके पिता की सेहत दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी और एक दिन जब वह डाॅक्टर को लेकर घर पहुँचा तो दिवाकर बाबू ने बेटे को नज़र भर देखा और हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद ली।
अनिरूद्ध का अब घर से मोह जाता रहा।तबादले का आदेश मिलते ही वह पत्नी सहित दूसरे शहर में शिफ़्ट हो गया।समय के साथ वह एक बेटी का पिता बन गया और अपने परिवार के साथ खुश था।इस बीच उसने कई बार अपनी माँ से फ़ोन पर बात करने का प्रयास किया लेकिन नाकाम रहा।
सात साल बाद उसका तबादला फिर से उसी के शहर में हुआ।शिफ़्ट होते ही अपने घर गया तो पता चला कि साल भर पहले ही आशीष ने पुराने घर को बेचकर कहीं और नया घर ले लिया था।
‘ जानकी वृद्धाश्रम ‘ के उद्घाटन के लिये अनिरुद्ध को मुख्य अतिथि के रूप आमंत्रित किया गया था।ठीक दस बजे जब वह वहाँ पहुँचा तो एक महिला ने उसके मस्तक पर तिलक लगाया और दूसरी ने उसे माला पहनायी।
फिर एक महिला जिसने आँचल से अपने मुँह को ढ़क रखा था,ने उसे मिठाई खिलाई तो उसने कहा,” माताजी,मैं तो आपके बेटे जैसा ही हूँ, आप कृपया अपना आँचल हटा दें?” कहते हुए उसने अपने हाथ जोड़ लिये।वहाँ खड़ी सभी महिलाओं ने भी कहा तो उसने धीरे-से कहा,” मैं ऐसे ही ठीक हूँ।”
न जाने क्यों,अनिरूद्ध को वह आवाज़ जानी-पहचानी-सी लगी।अगले ही दिन वह सुकन्या के साथ वहाँ पहुँचा और उस महिला के बारे में पूछा तो वहाँ की संचालिका ने बताया ने बताया कि नाम केतकी है।पति के देहांत के बाद बेटे ने सब कुछ अपने नाम कर लिया।
बेटे-बहू खुद तो बड़े घर में रहते और उन्हें एक छोटे-से कमरे में कैद कर दिया था।न तो ढ़ंग से खाना मिलता था और न ही मीठे बोल।एक दिन ज़रा वो मंदिर क्या गई,बहू ने फिर उन्हें घर में घुसने ही नहीं दिया।
सड़क के किनारे बेसुध थी तो हम यहाँ ले आयें।उनका एक बेटा और है जो सौतेला है।सुना है,उसके साथ उन्होंने बहुत बुरा सलूक किया था, उसी का फल है कि आज वे स्वयं बेघर हैं और…।
इसके आगे अनिरुद्ध सुन नहीं सका।वह समझ गया कि बदनामी के भय से सुशीला जी ने अपना नाम केतकी बताया था।बोला,” मैं ही उनका वह बेटा हूँ और मैं उन्हें ले जाने आया हूँ।
आप उनको मेरा नाम मत बताइये,कहिये कि सुकन्या नाम की लड़की मिलने आई है।”
‘सुकन्या ‘ नाम सुनकर सुशीला जी चौंकी लेकिन फिर कुछ सोचकर बाहर आई और अनिरुद्ध को देखकर वापस जाने लगी तो अनिरुद्ध बोला,” माँ, मैं आपका वही अनिरुद्ध हूँ,घर चलिये।”
कहकर उनके पैर छूने लगा तो बेटे को सीने से लगाकर वे फूट-फूटकर रोने लगी।उनकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बह रहें थें और अनिरुद्ध जो बरसों से अपनी माँ के प्यार को तरसा था, आज वो प्यार मिलने पर खुशी से उसकी आँखें छलछला उठी थी।
सुशीला जी ने पराया जानकर अनिरुद्ध की उपेक्षा की, फलस्वरूप अपने ही खून के हाथों उन्हें उपेक्षित होना पड़ा। उन्होंने अनिरुद्ध से माफ़ी माँगी तो हँसते हुए वह बोला,” माँ, आपका तिरस्कार तो मेरे लिए वरदान था वरना मैं भी आशीष…।” सुशीला जी ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया। तभी ‘दादी माँ ‘ कहकर अनिरुद्ध की बेटी स्वीटी उनसे लिपट गई।
विभा गुप्ता
#उपेक्षा स्वरचित
जिस तरह से प्यार के बदले प्यार मिलता है, उसी प्रकार उपेक्षा का प्रतिफल उपेक्षा ही मिलता है जैसा कि सुशीला जी के साथ हुआ।उन्होंने अनिरुद्ध की उपेक्षा की तो उनके अपने बेटे ने ही उनसे मुँह मोड़ लिया।लेकिन अनिरूद्ध की तरह कुछ लोग अपनों की उपेक्षा को प्रसाद समझकर ग्रहण भी कर लेते हैं और बदले में प्यार बाँटते हैं।