Short Moral Stories in Hindi : आज राधा की बड़ी बड़ी ऑंखों में बरबस ऑंसू आ गए। वह नहीं चाहती थी कि विवेक उन्हें देखे, वह तेज कदमों से अपने कमरे में चली गई। वह मन को बहुत समझाती है, कि उसकी और उसकी जेठानिय़ो की परिस्थितियों में बहुत अन्तर है, न उनसे अपनी तुलना करनी है, और न किसी की बातों को सुनकर मन को उदास करना है।
यह तो वह विवाह के पहले ही जानती थी कि उसे परिवार में एक बहू के रूप में स्वीकारना किसी को रास नहीं आएगा, फिर भी उसने विवेक के प्रेम में पढ़कर उससे शादी की।
‘विवेक ने तो मुझे सच्चे मन से अपनाया है ना, वह तो मुझसे , बेहद प्यार करता है और जब तक विवेक का प्यार और विश्वास मेरे साथ है, मुझे उदास नहीं होना है और न कमजोर पढ़ना है।’ बस यही एक बात थी जो उसे संबल प्रदान करती थी। परिवार के लोगों की उपेक्षा से विवेक के प्यार का पलड़ा भारी था।
शायद राधा के ऑंसू ने विवेक के हृदय पर दस्तक दी और वह राधा के पीछे-पीछे कमरे में आया बोला ‘यह क्या राधा तुम्हारी ऑंखों में ऑंसू? मैं हूँ ना तुम्हारे साथ और हमेशा रहूँगा। तुम नहीं मानती मगर मुझे विश्वास है तुम्हारे जिन गुणों की खुशबू ने मुझे अपनी गिरफ्त में लिया है,
उस खुशबू का असर आज नहीं तो कल माँ-पापा पर जरूर होगा। आज वे जिन बहुओं के कारण तुम्हारी उपेक्षा करते हैं, कल उन्हीं के सामने तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। बस तुम जैसी हो वैसी ही रहना।’
‘आप बेकार परेशान हो रहे हैं, ऐसी कोई बात नहीं है आप मेरे साथ हैं, मुझे और क्या चाहिए।’ राधा ने विवेक से कहा।
राधा इस प्रतिष्ठित परिवार की सबसे छोटी बहू थी। सेठ दीनानाथ जी का कपड़ो का व्यापार था। बड़ा बेटा नीरज उनके साथ ही काम करता था। दूसरा बेटे पंकज बर्तनों का व्यापारी था, तीसरा बेटा धीरज बैंक में ऑफीसर था।
तीनों की कमाई बहुत अच्छी थी,और तीनों के ससुराल वाले धनवान थे। तीनों बहुत सारा दहेज लेकर आई थी। राधा के ससुराल वाले धन के पुजारी थे, इसलिए गरीब घर की राधा उन्हें रास नहीं आ रही थी। विवेक एक सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्य कर रहा था।
राधा उसी विद्यालय में शिक्षिका थी। उसका मृदु व्यवहार, सबके प्रति दया भाव, उसकी विद्वत्ता, सहजता कुछ ऐसे गुण थे जिसने विवेक को आकृष्ट किया,उसने राधा से मित्रता की। मित्रता प्रेम में बदल गई और दोनों ने शादी का निर्णय लिया। दोनों के परिवार इसके लिए तैयार नहीं थे।
राधा का परिवार इतने धनवान लोगों के यहाँ रिश्ता जोड़ने में घबरा रहा था। राधा के मन में भी एक डर समाया था, जिसे विवेक ने यह कहकर दूर किया, कि चाहे किसी का कैसा भी व्यवहार हो, वह हमेशा राधा का साथ देगा। बच्चों की जिद के आगे माँ बाप को झुकना पड़ा और दोनों की शादी हो गई।
मगर राधा को अपनी गरीबी के कारण हमेशा सास- ससुर और जेठानियों के व्यंग बाणों का सामना करना पड़ता था। वह हर कार्य मन लगाकर करती, मगर उसमें हमेशा नुक्स निकाली जाती थी।
विवेक का प्यार और विश्वास उसे शक्ति प्रदान करते और वह इसे चुपचाप सहन कर लेती। राखी का त्यौहार आ रहा था, राधा ने अपने भाइयों के लिए हाथों से रेशम की राखी बनाई। उसकी जेठानियॉं बाजार से चांदी के तार वाली मेहंगी राखियाँ लाई।
सबने सासु जी को राखियाँ बताई, तो विमला जी ने कहा- ‘ठीक किया तुमने, तुम्हारे भाई भी तो राखी पर सोने चांदी की रकम तुम्हें देते है। अच्छी से अच्छी मिठाई और बच्चों के कपड़े लेकर जाना। ‘तीनों जेठानी प्रसन्न हो गई। सासु जी ने राधा से पूछा -‘तुम राखी नहीं लाई। ‘तो उसने अपने हाथों से बनी राखी बता दी।
सासु जी व्यंग भरी मुस्कान बिखेर कर बोली-‘ठीक है, तुमने उनकी औकात के हिसाब से ही राखी बनाई है। वैसे भी एक हल्की साड़ी ही तो देंगे वे लोग तुम्हें। और मिठाई का क्या करोगी?’ राधा का गला रूंध गया था,अपनी और अपने परिवार की ऐसी उपेक्षा उसे सहन नहीं हो रही थी।
बड़ी मुश्किल से बोली -‘मुझे बाजार से मिठाई नहीं लाना है, मैं घर पर ही बेसन की बर्फी बना लूंगी।’ सासु जी ने कहा तुम्हारे परिवार के लिए वहीं ठीक है।’ चारों एक दूसरे को देखकर हॅंस रही थी।
राधा सोच रही थी भाई -बहिन के पवित्र स्नेह के इस त्यौहार को भी ये लोग दौलत की तराजू में तौलते है। उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गए थे। और इन्हें ही सबसे छुपाने के लिए वह अपने कमरे में आई थी।
समय अपनी रफ्तार से गुजरता है, जेठ जी के बच्चे बड़े हो गए थे। नीरज भैया का जतिन कॉलेज में पहुँच गया था, पंकज भैया का सौरभ १२वीं कक्षा में, और धीरज भैया की दो बेटियॉं थी, जो स्कूल में पढ़ने जाती थी, मगर पढ़ाई में रूचि जरा भी नहीं थी, वे अपने नाज नखरे में ही लगी रहती। किसी बच्चे में संस्कार नाम की कोई बात नहीं थी।
दीनानाथ जी की ढलती उम्र थी और उनसे काम हो नहीं पा रहा था। नीरज ने अपनी नई दुकान खोल ली। दीनानाथ जी अकेले रह गए। सासु जी का स्वास्थ भी अब ठीक नहीं रहता था। उनकी सेवा कौन करे। तीनों जेठानियों ने अपने पति को सिखा पढ़ा कर अलग गृहस्थी बसा ली। अपना-अपना हिस्सा लेकर तीनों अलग हो गए।
सबके मन में स्वार्थ आ गया था। जब तक माँ-पापा सक्षम थे, वे साथ में रहै, अब उनकी जिम्मेदारी सम्हालने के लिए कोई तैयार नहीं था। पूरे घर में सन्नाटा छा गया था। तीनों बेटो के जाने से दीनानाथ जी और उनकी पत्नी विमला देवी पूरी तरह टूट गए थे।
घर में सिर्फ वे दोनों , विवेक, राधा और उनका संस्कारी बेटा राघव जो ७ वीं कक्षा में पढ़ता था, रह गए। एक दिन दीनानाथ जी ने विवेक को अकेले बैठे देखा तो बुझे मन से पूछा- ‘बेटा विवेक क्या तुम और राधा भी अपना हिस्सा लेकर अलग रहने चले जाओगे?
विवेक ने कहा पापा आप कैसी बातें कर रहे हैं, आप चाहें तो हमारे हिस्से की धन दौलत भी मेरे भाइयों को दे दें। मैं और राधा तो बस आपका प्यार और आशीर्वाद चाहते हैं। आपकी सेवा करना हमारा सौभाग्य है।
हम आपको छोड़कर कही नहीं जाऐंगे। माँ- पापा राधा का मन, आपकी उपेक्षा से कई बार जख्मी हुआ है, मुझे विश्वास है आपका प्यार उसके जख्मों को जल्दी भर देगा। दीनानाथ जी और विमला देवी को अपनी गलती का एहसास हो गया था।
उनका प्यार पाकर राधा अपना पुराना दर्द भूल गई थी। विवेक, राधा और राघव तीनों की सेवा से दीनानाथ जी और विमला जी सन्तुष्ट और प्रसन्न थे और उनके आशीर्वाद की वर्षा तीनों पर हो रही थी।जिस बहू की हमेशा उपेक्षा की आज वे दोनों उसकी प्रशंसा कर रहै थे। वे समझ गए थे कि इन्सान की कीमत उसकी दौलत से नही, उसके संस्कारों से होती है।प्रेषक–
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
#उपेक्षा
(V)