टूटते रिश्ते की डोर – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

अह्लाद एक सफल बिज़नेसमैन था, जो अपने काम और परिवार दोनों के प्रति समर्पित था। उसका जीवन अपनी पत्नी नीरजा और माता-पिता के इर्द-गिर्द घूमता था। हालाँकि, उसकी दोहरी जिम्मेदारियाँ अक्सर उसे दो पाटों के बीच पिसने का अहसास कराती थीं।

शाम के समय अह्लाद ऑफिस से घर लौटता तो नीचे का कमरा मम्मी पापा का होने के कारण सबसे पहले अपने माता-पिता के पास बैठ जाता और दिन भर का हाल चाल लेने के उपरांत अपने कमरे की ओर बढ़ता।

और नीरजा अपनी नाराजगी को छिपा नहीं पाती, “ये सही है, दिन भर इंतजार करो और ये हैं कि आते ही सबसे पहले मम्मी पापा के पास बैठेंगे, हाल चाल लेंगे, तब पत्नी की याद आती है। ऐसो को ही मम्मा बॉय कहते हैं,” नीरा बड़बड़ाती।

“तुम्हारी याद तो दिन भर आती है पत्नी जी, अभी से सारा समय तो तुम्हारा ही है। मम्मी पापा भी तो मेरे ही हैं। उनकी बेकद्री तो नहीं कर सकता।”अह्लाद नीरजा को बाँहों में लिए मनाने की कोशिश करता।

“रहने दीजिए ये सब।” नीरजा गुस्से में छिटक कर अपने काम में लग जाती।

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“अजी देखा आपने, आज अह्लाद हमारे पास नहीं आकर सीधा अपने कमरे में चला गया।” एक दिन ज़ब अह्लादगाड़ी से उतर कर जल्दी जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ता अपने कमरे में चला गया तो उसकी माँ अपने पति से भड़कती हुई कहती है।

“हाँ तो क्या हो गया, इससे तुम्हें दिक्कत क्या है। तुम्हारा पति तो तुम्हारे साथ बैठा है।” एक नजर अपनी पत्नी पर डाल जोर से हँसते हुए अहलाद के पिता कहते हैं।

“आप ना कुछ समझते नहीं हैं, अब लगता है वो अपनी पत्नी की बात में आ रहा है।” 

“हाँ तो उसका विवाह ही नहीं करना चाहिए था, आँचल में बाँध कर रखती।” पत्नी की बात पर झुंझलाते हुए अह्लाद के पिता कहते हैं।

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अह्लाद की माँ ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की, “क्या बात है, आज हमारे पास नहीं आकर सीधा पत्नी के पास चला गया। ऐसो को ही जोरू का गुलाम कहते हैं।” थोड़ी देर बाद बेटे के फ्रेश होकर नीचे आने पर उसकी माँ तंज कसती है।

“मम्मी, नीरजा को बुखार है, उसकी दवाई लेकर आया था, इसलिए”….

“बहू की तबियत ठीक नहीं है और हमें पता भी नहीं है। कभी तो बहू के पास भी जाकर बैठा करो।”अह्लाद के पिता बीच में उसे रोकते हुए अपनी पत्नी से कहते हैं।

“मैं क्यूँ जाऊँ, वो भी तो आ सकती है।”

“यहाँ मैं भी होता हूँ, इतना भी नहीं समझती। कभी तो बड़प्पन दिखा दिया करो।”अह्लाद के पिता अपनी पत्नी से कहते हैं।

और अह्लाद असमंजस में था। वह किसी एक को खुश करने की कोशिश करता, तो दूसरा नाखुश हो जाता। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस दुविधा से कैसे निकले। एक ओर माँ-बाप का प्यार और परवरिश का ऋण था, तो दूसरी ओर नीरजा का समर्पण और साथ का वादा। इस दोहरे कर्तव्य में संतुलन बनाना उसके लिए एक जटिल चुनौती बन गई थी।

उसके दिल में लगातार यह संघर्ष चलता रहता कि आखिर वह किसे खुश करे और कैसे? उसकी माँ और नीरजा दोनों ही उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं, लेकिन उन्हें संतुष्ट करना एक कठिन कार्य बन गया था। यह असमंजस उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से थका देता था, जिससे उसका खुद के लिए समय निकालना भी मुश्किल हो गया था।

रोज-रोज के तानों और शिकायतों से उसका मन भारी हो गया था। घर आते ही माँ और नीरजा के बीच का तनाव उसे और परेशान कर देता था। एक दिन, जब वह फैक्ट्री से लौटकर घर आया, तो उसने देखा कि माँ और नीरजा के बीच विवाद और बढ़ गया है।अह्लाद ने सोचा कि अब इससे निपटना उसके लिए संभव नहीं है। इसलिए बिना किसी से कुछ कहे वह सीधे छत पर बने कमरे में चला गया।

वहाँ के लिए उसने अपने कुछ कपड़े और ज़रूरी सामान उठाया और खुद को उस कमरे में शिफ्ट कर लिया। अब यही उसका नया आश्रय बन गया था। यह उसका अपना कोना था, जहाँ वह दुनिया के झंझटों से दूर रह सकता था।

अह्लाद की दिनचर्या बदल गई थी। अब वह सुबह उठकर फैक्ट्री के लिए निकलता और काम के बाद घर लौटता। लेकिन घर लौटते समय पहले जैसा उत्साह नहीं था। फैक्ट्री से निकलते वक्त वह माँ और नीरजा दोनों से ज़रूरत का सामान पूछ लेता। कोई सब्जी, दूध या अन्य घरेलू सामान की माँग होती, तो वह उसे ले आता।

घर पहुँचने पर दोनों को सामान पकड़ाता और फिर बिना कोई बातचीत किए सीधे छत पर बने अपने कमरे में चला जाता। नीरा और माँ इस बदलाव से चकित थे, लेकिन वे समझ नहीं पाए कि अह्लाद क्यों ऐसा कर रहा है।

छत पर बने कमरे में वह अपने विचारों में खोया अकेला रहता। कभी वह खिड़की से बाहर देखते हुए अपने जीवन की परेशानियों के बारे में सोचता, तो कभी शांतिपूर्ण भविष्य की कल्पना करता। इस अकेलेपन में उसे सुकून मिलता, पर यह सुकून अस्थायी था। वह जानता था कि यह स्थाई समाधान नहीं है।

उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस मुश्किल स्थिति से कैसे निपटा जाए। उसे अपने माता-पिता और पत्नी दोनों की चिंता थी। वह चाहता था कि दोनों खुश रहें, लेकिन उसके प्रयासों के बावजूद वह किसी को संतुष्ट नहीं कर पा रहा था।

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एक दिन अह्लाद की माँ ने अपनी बहू से पूछा, “बहू, क्या बात हैं, आहलाद आजकल सीधा छत पर बने कमरे में चला जाता हैं?”

नीरजा ने भी परेशान होकर जवाब दिया, “पता नहीं माँजी, मुझसे भी कोई बात नहीं करते। रात का खाना भी वहीं खाते हैं, कुछ पूछो तो कोई उत्तर नहीं देते हैं।

माँ और नीरजा दोनों ही अपने-अपने तरीके से आहलाद की दूरी से परेशान थीं। उनकी चिंताएँ और निराशाएँ अलग-अलग थीं, लेकिन उनका दर्द समान था।

आहलाद की माँ, सविता, अपने बेटे के व्यवहार में आए इस बदलाव से अत्यधिक दुखी थीं। वह हर दिन उसकी राह देखतीं, उसकी बातें सुनने और अपने दिन की घटनाओं को साझा करने के लिए उत्सुक रहतीं। पहले आहलाद घर आते ही सीधे उनके पास आता था, लेकिन अब वह सीधे छत पर बने कमरे में चला जाता था। सविता को लगता था कि उनका बेटा उनसे दूर हो रहा है। सविता की आँखों में चिंता और उदासी साफ झलकती थी।

दूसरी ओर, नीरा भी इस स्थिति से बहुत परेशान थी। अह्लाद का अपने कमरे में शिफ्ट हो जाना और उससे बिना बात किए रहना, नीरा के लिए बेहद तकलीफदेह था। उसे लगता था कि अह्लाद ने उससे संवाद करना ही बंद कर दिया है। पहले वे अपने दिनभर की बातें साझा करते थे, लेकिन अब वह एकाकीपन महसूस करती थी।

नीरा के मन में निराशा घर कर गई थी। वह सोचती, “आखिर क्या हुआ है? क्या हमारी शादी में कुछ कमी रह गई है?” कई बार वह अपने पति से बात करने की कोशिश करती, लेकिन वह हर बार किसी न किसी बहाने से बात को टाल देता। नीरा का दिल टूटता जा रहा था। उसे लगता था कि अह्लाद ने उसे अकेला छोड़ दिया है और वह अपनी शादी में असफल हो रही है।

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अह्लाद रुको, ये क्या चल रहा है। ना मेरे पास बैठते हो और ना बहू के पास।” सीढ़ियाँ चढ़ते अह्लाद को उसकी माँ रोकती हुई पूछती है।

“माँ सच में आप नहीं जानती कि मैं ऐसा क्यूँ कर रहा हूँ।” एक नजर सविता और एक नजर वहाँ आकर खड़ी हुई नीरजा की ओर देखकर अह्लाद हताशा भरे स्वर में पूछता है।

अह्लाद ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “आप दोनों ने जिस तरह के हालात उत्पन्न कर दिए हैं, कोई एक रिश्ता तो जरूर टूट जाएगा और मेरे लिए यह दोनों ही रिश्ता अजीज है। इसी टूटते रिश्ते को बचाने की कोशिश कर रहा हूँ माँ। इस टूटते रिश्ते की डोर थामने में मैं ही टूट रहा हूँ।” 

यह सुनकर, उनकी माँ और पत्नी दोनों ही चौंक गए। अह्लाद बेबस सा उन्हीं सीढ़ियों पर बैठ गया, “मैं जब अपने कमरे में अकेला होता हूँ, तो सोचता हूँ कि किस तरह हम सब फिर से एक खुशहाल परिवार बन सकते हैं। मैं दोनों ही रिश्तों को बचाना चाहता हूँ। आप दोनों मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।”

यह सुनकर माँ और नीरजा दोनों ने पहली बार महसूस किया कि उनका बर्ताव अह्लाद को किस कदर परेशान कर रहा है। माँ ने कहा, “बेटा, हमें माफ कर दो। हम दोनों ने तुम्हें ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे को भी दुख पहुंचाया है।”

नीरजा ने भी अपनी गलती स्वीकार की, अह्लाद, मैं समझती हूँ कि मैं भी सही तरीके से परिस्थिति को नहीं संभाल पाई। अब हम मिलकर इसे ठीक करेंगे।”

अह्लाद, उसकी माँ और नीरजा ने मिलकर एक नई शुरुआत की। उन्होंने एक-दूसरे के साथ समय बिताने का निर्णय लिया और छोटी-छोटी खुशियों को एक दूसरे के साथ बाँटा। उन्होंने बातचीत और समझदारी से अपने रिश्तों को फिर से मजबूत किया।

धीरे-धीरे, उनके घर में खुशियाँ लौट आईं। अह्लाद की मेहनत और सच्ची भावना ने उनके परिवार को टूटने से बचा लिया और उन्हें एक बार फिर से एकजुट कर दिया। अब उनके रिश्ते पहले से भी ज्यादा मजबूत हो गए थे और वे एक-दूसरे के साथ खुशहाल जीवन जीने लगे।

अह्लाद की कहानी हमें यह सिखाती है कि रिश्तों में संवाद, समझदारी और धैर्य सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। अगर हम अपने प्रियजनों के साथ मिलकर समस्याओं का समाधान करें, तो कोई भी मुश्किल हमें अलग नहीं कर सकती।

आरती झा आद्या 

दिल्ली

2 thoughts on “टूटते रिश्ते की डोर – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. न केवल एक अच्छी कहानी लिखी बल्कि रिश्तों को बचाने का रास्ता भी सुझाया। लेखिका को बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं

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