नीलिमा जी ने अपने तीसरे और सबसे छोटे बेटे की शादी बड़े ही धूमधाम से संपन्न कर लिया। आज उनकी बहू विदा होकर आने वाली थी। नीलिमा जी ने उसके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ा था। पूरे घर को दुल्हन की तरह सजवाया था।
डाला -दउरा ,फूलों का हार,आरती का थाल जिसमें अक्षत- चंदन पान का पत्ता मुँह मीठा करने के लिए तरह-तरह की मिठाइयाँ सब-कुछ तैयार था । बस अब उनकी आंखें सामने से घर की ओर आते हुए रास्ते पर टिकी हुई थी । पता नहीं कब बेटा साक्षात लक्ष्मी जैसी बहू को लेकर आ जाये ! उन्होंने बरामदे पड़ी एक कुर्सी खींच लिया और बाहर ही बैठ गईं।
पिछले पांच सालों से यानि जब से उनके पति स्वर्गवासी हुए थे तब से उनके मन की खुशियां घर के बाहर से ही लौट जाया करती थीं। पहले पति को खोया उसके बाद न जाने घर को किसकी नजर लगी बड़ी बहू ने घर छोड़कर मायके को ही अपना घर बना लिया।
दूसरे बेटे बहू परदेसी थे उनका आना जाना तीज- त्योहार में ही हो पाता था। इस बार छोटे भाई की शादी जैसे मौके पर भी छुट्टी का बहाना लेकर नहीं आये। बेटी तो होती ही है पराये घर की चार दिन की चांदनी से उजाले क्या आस !
नीलिमा जी अपने शाख से एक -एक कर झड़ते पत्तों को देख मुर्झा सी गईं थीं। लेकिन कहते हैं न कि कोई न कोई जीने का सहारा भगवान दे ही देते हैं । सो मयंक के पहल से घर की खुशियां अपना ठिकाना नीलिमा जी के घर में बना रहीं थी।
इतने दिनों बाद आई घर की खुशी को वह यादगार बनाना चाहती थी। उनके इस काम को शिद्दत से पूरा करने में जो जुटा था वह था उनका बड़ा बेटा मयंक । पूरी तरह वह अपने पिता की परछाईं था। माँ के इशारों को वह बिना बोले ही समझ जाता था।
वह जो कहती, जो चाहती थीं वह आँख मूंदकर करने के लिए तैयार रहता। पिता के दुनियां से जाने के बाद उसका बस एक ही मकसद था माँ, दोनों छोटे भाई और सबसे छोटी बहन की झोली को खुशियों से भर देना। शायद यही वज़ह था कि नीलिमा जी की उजाड़ दुनियां फिर से संवरने लगी थी।
मयंक ने ही माँ को मनाया था नव्या को अपनी बहू बनाने के लिए। वह सुंदर सुशील और पढ़ी- लिखी थी। छोटे भाई के साथ एक ही कंपनी में दोनों नौकरी कर रहे थे। उसकी अनुभवी नजरों ने यह भी परख लिया था कि भाई नव्या को पसंद करता था। बस क्या था उसे माँ को मना लेना था। वह मयंक के कहने पर मान भी गईं थीं।
बाहर दुल्हन,आई दुल्हन आ गई का शोर होने लगा। सब दौड़ कर बाहर निकल आए। माँ को गुमसुम देख मयंक ने झकझोरते हुए कहा माँ…..कहां खोई हो!” चलो आरती उतारो अपने लाडले बेटे -बहू का…..।”
माँ की जैसे तन्द्रा भंग हुईं उन्होंने मयंक का बांह थाम उसे अपने गले से लगा कर बोली-” मेरा नहीं वह तेरा लाडला है। मेरा “लाडला” तो तू है रे…..माँ कहलाने का हक तो तुझी से मिला था मुझे !”
“अच्छा.. अच्छा…ठीक है मैं ही हूँ तुम्हारा लाडला ! चलो अब तुम मेरे “लाडले” का आरती उतारो…. !”
माँ ने मायूस होकर कहा-” बेटा आज तुम्हारी पत्नी होती तो यह रस्म वही निभाती…!”
“माँ इस खुशी की घड़ी में वैसी कोई बात मत याद करो जिससे तकलीफ होने लगे। तुम्हें तो सब पता है कि उसे क्या चाहिये था। वह चाहती थी कि मैं उसके साथ उसके पिता के घर जमाई बन कर रहूं।” और यह कभी नहीं हो सकता था।
मैंने उसे समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर वह जिद्दी स्वभाव के कारण भटक गई । छोड़ो न वह सब बीती हुई बाते हैं। कोई ताकत मुझे मेरी माँ और मेरे परिवार से दूर नहीं कर सकता था। जिस दिन यह बात उसके समझ में आएगी की शादी के बाद असली घर उसका यही है, देखना वह खुद तुम्हारे दरवाजे पर चल कर आएगी ।
“छोड़ो माँ चलो ….यह जो तुम्हारी छोटी बहू आई है ना वह बहुत संस्कारों वाली है।कब से तुम्हारा इंतजार कर रही है उसे तो अपने घर में गृहप्रवेश कराओ ।”
घर की सभी रिश्तेदार महिलाओं के साथ मिलकर माँ ने बहू को बांस से बने दउरे में पहला डेग रखने के लिए कहा… मंगल गीत के साथ धीरे-धीरे बहू का गृह प्रवेश हुआ। प्रत्येक पग के साथ माँ ने उसे ससुराल को अपना घर समझने का सीख दिया।
सभी रीति रिवाज संपन्न होने के बाद माँ ने बहू से सभी बड़े का पांव छूकर प्रणाम करवाया। बहू भी बगैर किसी झुंझलाहट के सभी रस्में निभा रही थी। फिर एक -एक करके सभी सदस्यों का परिचय करवाया। बेटा यहां आओ देखो यही है तुम्हारा नया परिवार….अब तक मैंने निभाया है अब तुम्हारी बारी है। बहु ने सिर हिला कर हामी भरी। नीलिमा जी ने अपनी बेटियों को इशारे से बहु को अपने कमरे में भेज दिया।
मयंक ने महसूस किया माँ अंदर से बहुत खुश थीं। माँ खुश थीं इससे ज्यादा और उसे कुछ नहीं चाहिए था। उसने गहरी साँस ली और उपर आसमान की ओर देखा शायद अपने पिता को आश्वस्त किया कि उसने बिखरे रिश्तों को समेट लिया और अपने बड़े होने की जिम्मेदारी निभा दी है।
मयंक अपनी जिम्मेदारी निभाने की वज़ह से कई दिनों तक सो नहीं पाया था वह वहां से उठकर ऊपर अपने कमरे में सोने चला गया।
सुबह दरवाजे पर किसी के दस्तक से उसकी आँखें खुली। देखा तो नई दुल्हन हाथ में चाय लेकर खड़ी थी। साथ में माँ भी थी। मयंक ने हड़बड़ाहट में खड़े होकर पूछा -” आप मुझे नीचे बुला लेती माँ …..इस बेचारी को क्यूँ परेशान किया।”
Iअरे, बेटा इसमें परेशानी की क्या बात है ….तुम घर में बड़े हो तो पहले चाय तुम्हें ही देगी ना। जो घर की रीति है वही निभा रही है।”
माँ ने फिर बहू को चाय लेकर शादी में आई बुआ मौसी , चाचा -चाची और भी जितने रिश्तेदार थे सबके पास भेजा। अंत में दो प्याली चाय लेकर उसे कमरे में जाने के लिए कहा। वह बहुत खुश थीं। जैसा वह चाहती थीं बहू वैसी ही मिली। पहले सब का ख्याल रखना बाद में खुद के लिए सोचना ।
नीलिमा जी की “सीख” बहू ने अपने दिनचर्या में सबसे ऊपर रखा। था। एक बार फिर से नीलिमा जी की बगिया महकने लगी थी।
सुबह -सुबह का समय था ।बहू चाय लेकर माँ के कमरे में गई ….माँ ने पहले उसे मयंक को देकर आने का इशारा किया ।तभी वहां छोटा बेटा पहुंच गया और डपटते हुए बोला -“यहां क्या कर रही हो…. मैं कबसे चाय का इंतजार कर रहा था। “
माँ ने टोका-” क्या मतलब है तुम्हारा …सबको चाय दे रही थी। अभी मयंक को देने जा रही है उसके बाद तेरे लिए ही लेकर जाती न!”
“माँ यह सब ढकोसला तुम निभाओ …इसे इस ड्रामा में शामिल मत करो समझी…. !
माँ अचंभित हो छोटे बेटे को देखने लगीं। उनके कुछ समझने से पहले ही वह और भी तीखे स्वर में बोला-“
मयंक भैय्या की बहुत फिक्र है न ….तो कहो जाकर रहे भाभी के साथ! मैंने अपने लिए शादी की है पूरे घर वालों के लिये। “
” उसने अपनी भौ टेढ़ी कर बोला-“माँ तुम्हारे इसी बेकार की चोंचले में फंसने के डर से दोनों बहुएं घर में रहना पसंद नहीं कर पाई। एक मैके चली गई और दूसरी छुट्टी का बहाना बना कर शादी में भी शामिल होने नहीं नहीं आई ।”
तुम अपने रीति रिवाज और परंपराओं को अपने तक ही सीमित रखो…. किसी और के ऊपर थोपने की आवश्यकता नहीं है। गया अब वह जमाना….. जिसकी जो जिम्मेदारी है न वो अपना समझे । मेरी पत्नी किसी की नौकर नहीं है….समझी की नहीं!”
शोर सुनकर मयंक की नींद खुल गई थी। उसने छोटे भाई की बातों को सुन भी लिया ।उसके एक एक शब्द भाले की तरह उसके दिल में चुभ रहे थे पर वह कमरे से बाहर नहीं निकला। जिस रीति- नीति को बनाये रखने के लिए और परिवार के लिए उसने अपनी पत्नी की एक नहीं सुनी और ना उसके साथ उसके मायके गया।
छोटा भाई आज अपनी पत्नी के लिए माँ से लड़ रहा है। इस तरह जब अपने ही अपने रिश्तों का अपमान करेंगे तो फिर किसी बाहर वाले से रिश्ते बचाने की उम्मीद बेकार ही है।
माँ ने छोटे बेटे को मुँह बंद करने के लिये बार -बार कहा लेकिन वह बड़बड़ाता रहा पत्नी के हाथ से बड़े भाई के लिए जो चाय की प्याली थी झटककर उठाया और अपने कमरे में चला गया। बहू भी उसके पीछे -पीछे चली गई।
माँ की आँखों से झड़ -झड़ आँसू बहे जा रहे थे। वह समझ नहीं पा रहीं थी कि सही कौन है…बड़ा बेटा मयंक जिसने परिवार को टूटने से बचाते हुए अपनी खुशियों की बलि चढ़ा दी।वह नहीं गया माँ और भाई बहन को छोड़कर अपनी पत्नी के साथ रहने…. या यह छोटा बेटा जिसे खुद के अलावा बाकी रिश्तों की कोई परवाह ही नहीं है !
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार