Moral Stories in Hindi : दुष्यंत जी भारतीय सेना से छत्तीस वर्षों की सेवा पूरी कर, सेवानिवृत हो चुके थे। उन्हें सेवानिवृत्ति के दौरान काफी रकम प्राप्त हुई थी। उन्होंने सोचा था सेवानिवृत्ति के पश्चात जो पैसा मिलेगा उससे वे और उनकी पत्नी मोहिनी जी बुढ़ापे में आराम से गुजर-बसर करेंगे।
लेकिन उन्हें भी कहाँ पता था कि उनके पैसों की किसी और को भी जरूरत है।
जैसे ही उन्हें फंड वा अन्य मद के पैसे प्राप्त हुए वैसे ही उनका बेटा आदित्य आकर अपनी समस्या सुनाने लगा। उस पर होम लोन का कर्ज है!
बिजनेस में कुछ खाश मुनाफा नहीं हो रहा है!
अतः दुष्यंत जी ने सोचा ये पैसे कब काम आयेंगे! आखिर बेटे के घर का कर्ज उतर जाएगा, अच्छा ही तो है। वैसे भी मेरे बाद सब कुछ उसी का है, तो चाहे आज उपयोग करे या कल, बात तो एक ही हुई।
लेकिन जो बेटा कल तक पैसे के पीछे माँ-बाप के चक्कर लगाता था, अब वह उदासीन और लापरवाह हो गया था। अब वह कई-कई महीने अपने माता-पिता की खोज-खबर भी लेने नहीं आता था।
अपनी पत्नी और बच्चों में ही केंद्रित हो गया था।
एक दिन अचानक मोहिनी जी की तबियत बिगड़ गई तब पड़ोसियों की मदद से दुष्यंत जी उन्हें अस्पताल लेकर गए।
डॉक्टरों ने कहा,,, “दुष्यंत जी इन्हें शहर के बड़े अस्पताल या आर्मी के अस्पताल में चेकअप करवा दें तो समस्या पता चल जाएगी अभी बीमारी की कोई खाश वजह पकड़ में नहीं आ रही है।”
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दुष्यंत जी ने यह खबर अपने बेटे आदित्य को दी। वह इच्छा या अनिच्छा से चाहे जिस तरह भी आया हो लेकिन आकर माँ को लेकर गया और ले जाकर आर्मी के अस्पताल में एडमिट करा दिया। साथ में दुष्यंत जी भी गए हुए थे।
डॉक्टरों के प्रयास और जांच एवम अच्छे इलाज के प्रभाव से मोहिनी जी के स्वास्थ्य में जल्दी ही सुधार आने लगा था।
दस-पंद्रह दिन अस्पताल में रखने के बाद उन्हें शीघ्र ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी। लेकिन डॉक्टरों ने कहा था,,, “अभी हर पंद्रह दिन में आकर जांच कराते रहें।”
अतः दुष्यंत जी एवम मोहिनी जी कुछ दिन के लिए वहीं बेटे-बहू के पास ठहर गए थे।
दुष्यंत जी एवम मोहिनी जी को शहर में रहते हुए लगभग दो माह बीत चुके थे। इस बात पर अब बहू रागिनी का मिजाज बदला हुआ सा लग रहा था।
वह बात-बात पर आदित्य से झगड़ती थी और कुछ ना कुछ उलाहने देती रहती थी।
यह बात दुष्यंत जी और मोहिनी जी भी सुन रहे थे लेकिन वे इसलिए चुप थे कि पति-पत्नी के झगड़े में उन्हें दखल नहीं देनी चाहिए। जबकि उन्हें अच्छे से पता था कि यह झगड़ा उन्हें लेकर ही हो रहा है।
कुछ दिनों में मोहिनी जी पूरी तरह से ठीक हो गईं तब दुष्यंत जी ने अपने बेटे आदित्य से कहा,,, “बेटा अब तुम्हारी माँ ठीक हो गई है, हमारा टिकिट करा दो तो हम वापस अपने शहर चले जाएँ।”
“क्यों पापा, आपको यहाँ रहने पर कोई तकलीफ हो रही है क्या?” आदित्य ने कहा।
“दुष्यंत जी भी बेटे से कैसे कहते कि परेशानी हमें तो नहीं पर तुम्हारी पत्नी को जरूर हो रही है!”
“क्या सोचने लगे पापा?” आदित्य ने अपने पिता को चुपचाप देखकर पुनः पूछा।
“कुछ नहीं सोच रहा बेटा! हाँ परेशानी तो कुछ नहीं है पर वहाँ भी अब देखना चाहिए। क्या स्थिति है घर पर दो माह से ताला लगा हुआ है!”
इस बात पर आदित्य ने कुछ नहीं कहा।
समय बीतता रहा कुछ दिनों में मोहिनी जी बहू रागिनी के साथ कामकाज में हाथ बंटाने लगीं थी, यह सोचकर कि वह अकेली काम करती है, थक जाती होगी इसलिए भी चिड़चिड़ी हो रही है।
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एक दिन कुछ काम करते-करते मोहिनी जी के हाथ से कुछ कांच के बर्तन गिरकर टूट गए।
तब रागिनी ने कहा,,, “मम्मी जी आप रहने दीजिए जब आपसे नहीं हो पाता तो आप क्यों परेशान होती हैं! मैं कर लूँगी या फिर आदित्य हाथ बंटा देगा।”
रागिनी ने यह बात नाराजगी भरे स्वर में कही थी लेकिन फिर भी दुष्यंत जी और मोहिनी जी दोनों ही सुनकर चुप रह गए थे।
एक दिन बैठक में मोहिनी जी साफ-सफाई करने लगीं तभी कुछ समान इधर-उधर सरका दिया।
तब पुनः रागिनी ने सुनाना चालू कर दिया,,, “मम्मी जी आपको कितनी बार कहा है कि आप शांति से बैठिए। मेहमान हैं तो मेहमान बनकर ही रहिए। ये घर मेरा है, क्या कैसे करना है, मैं सब देख लूँगी।”
यह बात सुनकर दुष्यंत जी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने कहा,,, “रागिनी, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई… मोहिनी से इस तरह बात करने की? ये जिस घर पर तुझे इतना गुमान है, वह मोहिनी के पैसों से ही बना है! बड़ी आई घर बताने वाली! यकीन ना हो तो अपने पति से पूछ लो!
आगे से मैं यह बर्दाश्त नहीं करूँगा, कोई मोहिनी से इस भाषा में बात करे!”
मोहिनी जी की आँखों से दो कतरे आँसू गालों पर लुढ़क आए थे।
रागिनी अपने कमरे में चली गई थी। उसके बाद आदित्य ने उसको सब कुछ बताया तब उसका व्यवहार भी बदल गया था। मन ही मन अपने व्यवहार पर शर्मिंदा भी थी।
स्वरचित
अनिला द्विवेदी तिवारी
जबलपुर मध्यप्रदेश