तुम टेढ़ी खीर, तो मैं सीधी जलेबी – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi

मां बाऊजी… मुझे आप दोनों से कुछ कहना है… हम अलग रहना चाहते हैं.. रोज-रोज की किच-किच से तंग आ चुका हूं, अब अलग रहकर ही चैन मिल सकता है, ऋषि ने कहा 

पार्वती जी:  क्या अलग-अलग रहना चाहता है..? बेटा तू हमारा एकलौता बेटा है और यह घर तेरा ही है, झगड़े मन मुटाव किस घर में नहीं होते? इसका मतलब यह थोड़े ही ना है कि घर के सदस्य घर छोड़कर ही चले जाए? 

ऋषि:  हां अब तो आप ऐसा ही कहेंगे ना? पर जब आप आयुषी के साथ झगड़ती है तब तो कहती है कि इतनी ही तकलीफ है, तो अलग रहो, तब तो आप जता ही देती हो कि यह घर आप लोगों का है?

पार्वती जी:  बेटा, तूने सिर्फ मेरी बातें सुनी? जबकि आयुषी हमेशा कहती है कि हम उसके पति के पैसों पर ऐश कर रहे हैं, यह बात कहां तक सही है? पर मैंने कभी इसकी शिकायत की क्या? क्योंकि मुझे पता है गुस्से में इंसान कुछ भी बोल जाता है

ऋषि:  तो उसने क्या गलत बोला? अगर मैं पैसे ना दूं तो पापा की दवाई आप लोगों के खर्च कैसे पूरे होंगे? पापा को पेंशन ही कितना मिलता है और अभी आप इसलिए भी रोक रही है क्योंकि आपको डर है कहीं आयुषी के चले जाने से आपकी मुफ्त की नौकरानी ना चली जाए।

इसके आगे पार्वती जी कुछ कहती, काफी देर से चुप बैठे रमाशंकर जी कहते हैं बस करो पार्वती! जाने दो इसे, यह अब हमारा बेटा नहीं है, तुम चाहे लाख कोशिश कर लो यह हर बार इसी इससे भी ओछी बात कह कर सिर्फ हमारी ही नहीं हमारे परवरिश को भी शर्मसार करेगा, जो अब मैं नहीं रह सकूंगा, जाओ बेटा और खूब खुश रहो, पर एक बात याद रखना अपनो के साथ में जब लेनदेन की सोच आ जाए,

वह परिवार नहीं बस एक ही छत के नीचे रहने वाले उसे पेइंग गेस्ट की तरह बन जाते हैं, जिन्हें महीने के अंत में सारे खर्चों का बराबर हिस्सा देना होता है, तो उससे अच्छा है वही किराया तुम बहर ही जाकर दो,  बाहर रहकर तुम्हें पता चलेगा कि हर वक्त पैसा ही सब कुछ नहीं होता, क्योंकि कौन इस दुनिया से जाते वक्त एक भी रुपया ले जा पाया है? जाओ जाओ… 

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अगले दो दिनों में ऋषि और आयुषी उस घर को छोड़कर थोड़ी ही दूर पर एक किराए के घर पर चले जाते हैं, उस घर में जाकर ऋषि और आयुषी मारे खुशी के फूले नहीं समा रहे थे, जब चाहे बाहर चले गए, जब मन किया खाना बाहर ही खा लिया। ढेरो खरीदारी, जिससे उनके खर्चों पर दोगुनी बढ़ोतरी हो गई और फिर दोनों में कलेश भी होने लगा। आयुषी तो और ज्यादा लापरवाह हो गई थी, जब भी कभी ऋषि काम की वजह से दो-तीन दिन

के लिए बाहर जाता, या तो वह अपने मायके चली जाती या रोज खाना बाहर से ही मंगवाती। ऋषि अगर कुछ कहता तो वह से एक कान से घुसाकर दूसरे कान से निकाल देती थी। अपने सास ससुर की सुध लेना तो दूर, उनको तो वह लगभग भूल ही चुकी थी। अब ऋषि को अपने माता-पिता की याद सताने लगी। उसे लगने लगा मां बाऊजी का वह टोका टाकी हमारे भले के लिए होता था। पर अब वह उनसे कह भी नहीं सकता था, लेकिन वह अक्सर अपने बढ़ते खर्चों को लेकर चिंतित रहता था।

एक शाम को ऋषि ऑफिस से घर लौटा और आयुषी से कहा, बड़ी ज़ोरों की भूख लगी है, खाना परोसो, जिस पर आयूषी कहती है आज मैंने खाना नहीं बनाया, राशन खत्म हो गया है और मुझे याद ही नहीं था, एक काम करिए ऑर्डर कर लीजिए।

ऋषि:  क्या? राशन खत्म हो गया? पर उस घर में तो तुम मुझे राशन रहते ही राशन लाने को बोल देती थी और अब खत्म होने पर भी तुम्हें ध्यान नहीं? 

आयुषी: वह मैं नहीं वह मां थी और उनका कहना था हमेशा राशन खत्म होने से पहले ही लाया करो, इससे घर में बरकत रहती है। हमें अनाज को एकदम घर से खाली नहीं करना चाहिए, इसलिए जब वह कहती थी मैं आपसे कहती थी, आप अगर बिजी होते थे तो पापा ले आते थे, तभी तो वहां बाहर का खाने को नसीब ही नहीं होता था। पर अब देखो जब चाहे तब बाहर का खाना खा सकते हैं।

ऋषि:  मैं तो हैरान हूं, तुम अभी भी ऐसी बातें कर रही हो? देखो मेरी हालत! करजो में उलझा पढ़ा हूं, घर आया परेशान तो खाना भी नसीब नहीं, उधर मां बाऊजी, पेंशन के थोड़े से पैसों में ही सुख से गुजारा कर रहे हैं, मुझे लगता था वह हमारे बिना नहीं रह सकते, पर मैं कितना गलत था वह हमारे बिना तो ज्यादा अच्छे हैं, मुझे पहले ही समझ जाना चाहिए था, गलती हो गई जो तुम्हारी बातो में आ गया और अब तो वहां लौटने का मुंह भी नहीं रहा। 

आयुषी: अच्छा, अब सारी गलती मेरी हो गई? ठीक है मुझे भी नहीं रहना यहां। जाकर रहो अपने मां-बाऊजी के पास। मैं अपने पापा को बुलाती हूं, वही मुझे ले जाएंगे, यह कहकर आयुषी अपने कमरे में जाकर अपनी मां को फोन लगाती है और कहती है, मां, पापा को भेज दो मुझे लिवाने, मुझे अब इनके साथ नहीं रहना।

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आयुषी की मां:  अब क्या हुआ? पहले कहती थी सास ससुर के साथ नहीं रहना और अब कह रही है पति के साथ ही नहीं रहना? तूने कोई खजाना पा लिया है क्या जो ऐसी बातें कर रही है..? 

आयुषी:  इनको लगता है सारे फिजूल खर्ची की जिम्मेदार मैं ही हूं, और मैंने ही इनको इनके माता-पिता से अलग किया है, अब जब मैं चली जाऊंगी तब इन्हें मेरी अहमियत का पता चलेगा, 

आयुषी की मां:  एकदम सही कहा तूने! तेरे ना होने से ही दामाद जी की आंख खुलेगी, उन्हें तभी पता चलेगा की माता-पिता का साथ, अपनों का साथ होता क्या है? पर तू यह मत सोचना कि तू वहां से निकलकर यहां अपना ठिकाना पाएगी? मेरी बहू काफी अच्छी है तेरे यहां रहने से कहीं उसके भी विचार तेरे जैसे ना हो जाए, ना बाबा ना! तेरे सास ससुर का तो अपना घर था तभी तुम लोग वहां से छोड़ आए, हमारा तो घर भी अपना नहीं है, जो है तेरे भैया मनीष का है, अगर उससे हमारी अनबन हो गई तो, हमें सड़क पर रहना पड़ेगा, इसलिए जैसा रहना है तू वही रह, यहां आने का कष्ट मत कर, हां जो कभी घूमने आई तो स्वागत है पर जो सब कुछ छोड़ आई तो समझना तेरा मायका ही नहीं है। 

आयुषी:  ऐसे कैसे कह सकती हो मां? मतलब अब आप भी? 

इस बार आयुषी के पापा फोन लेकर कहते हैं, बेटा! हमें गलत ना समझ! अपनी गलती मान ले, दामाद जी और उनके माता-पिता कैसे हैं? यह हम भी जानते हैं, सो झूठ मुट के फसाद करने से अच्छा है जैसे दामाद जी कह रहे हैं मान ले, दो पैसे तेरे ही बचेंगे तो आगे तुम्हारे ही काम आएंगे, एक बार ठंडे दिमाग से बैठकर सोच देखना तुझे अपनी गलती साफ-साफ दिखेगी, हमने तुम्हें पहले भी बताने की कोशिश की थी पर तुम्हारे तेवर उस वक्त कुछ और थे, आशा करता हूं अब तुम अपनी गृहस्थी बचा लोगी। 

अपने माता-पिता की बात से आयुषी और भी ज्यादा चिढ़ गई, उसे अब भी लग रहा था कि वह बिल्कुल सही थी। अब इस उम्र में अपने शौक नहीं पूरे करूंगी तो कब करूंगी.? उसने मन ही मन सोचा, वह मायके तो नहीं गई पर उसने ऋषि से बात करना बंद कर दिया। वह घर का कोई काम भी नहीं करती थी। बस दिन भर अपने बिस्तर पर पड़े या तो फोन चलाती या टीवी देखती, और जब भूख लगती थी बाहर से कुछ मंगवा कर खा लेती थी। तभी एक दिन ऋषि एक लड़की के साथ घर आता है, जिसे देखकर आयुषी ना चाहते हुए भी ऋषि से कहती है, कौन है यह? 

ऋषि:  अरे तुम मुझसे बात कर रही हो? यह कैसे हो गया? चलो जब पूछा है तो बता ही देता हूं, यह मेरी होने वाली पत्नी है, इससे मैं शादी करना चाहता हूं, तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो।

आयुषी को ऐसा झटका लगा मानो काटो तो खून नहीं, और वह किसी तरह खुद को संभाल कर कहती है,  क्या? शादी? आप इतने हद तक गिर जाएंगे सोचा नहीं था। 

ऋषि:   क्यों इसमें सोचने वाली क्या बात है? देखो पत्नी का कोई धर्म तो तुम निभाती नहीं हो, तो उससे अच्छा है इस रिश्ते से ही निकल जाओ। 

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आयुषी:  मैं अभी मां बाऊजी को फोन करती हूं, वही आपको बताएंगे अब। 

ऋषि:  मां बाबऊजी.? उनसे तो कब का हमने रिश्ता ही तोड़ दिया है फिर हमारे बीच वह क्यों बोलने आएंगे भला? 

आयुषी:  मैं जानती हूं वह जरूर आएंगे, क्योंकि पहले भी उन्हें हमारी परवाह थी और आज भी है, आखिर वह माता-पिता है, मैं अभी कॉल करती हूं उन्हें, वहां से ना आती तो क्या आपकी हिम्मत यह करने की होती? 

ऋषि:  मतलब तुम मानती हो कि वह हमारी परवाह करते हैं और हमने उनके साथ गलत किया.? इतने दिनों से जब मैं तुम्हें कह रहा था तब तुम्हारा घमंड बीच में आ रहा था और आज जब बात अपने पर बन आई तो उन्हें एक पल में फोन मिलाने की बात करने लगी? और वहां से आने के लिए पछताने भी लगी? सुनो यह सब मैंने नाटक किया था ताकि तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो, एक पत्नी के रहते दूसरी बार शादी पाप है और पत्नी चाहे कितने भी गलत कदम पर चले उसे सुधारने का हक है पति को, यह संस्कार भी मेरे माता-पिता के ही दिए हुए हैं, यह जो आज तुम बच गई ना बस मेरे माता-पिता के संस्कार की वजह से, वरना कोई और होता तो तुम्हें सच में तलाक दे देता। यह लड़की तो मेरी भाभी है मेरे दोस्त की पत्नी, अगर तुम तेरी खीर हो तो मैं भी सीधी जलेबी हूं, तुम्हें तुम्हारी ही भाषा में समझाना चाहता था। 

आयुषी चुपचाप खड़ी अपनी गलती मानने को आखिर मजबूर हो ही गई। फिर दोनों पहुंच गए रमाशंकर और पार्वती जी के पास उनके पैर पकड़कर माफी मांगी,

रमाशंकर जी:   बेटा! माफ तो तुम्हें हम कर देंगे, पर अब हम साथ नहीं रह सकते, बड़ी मुश्किल से अकेले रहना सीखा है, बड़ी मुश्किल से तेरा मोह छुटा है, वापस मुंह लगाकर फिर से दूर जाने की हिम्मत हममें नहीं होगी, इसलिए जैसा चल रहा है उसे ऐसे ही रहने दो, दूर रहकर रिश्तो में मिठास बनी रहे, बजाय पास रहकर एक दूसरे के प्रति द्वेष हो, हम एक दूसरे की मदद करें और तीज त्यौहार साथ मनाए, बस इसी तरह अपनों का साथ भी बरकरार रहेगा बिना कोई स्वार्थ और मतलब के। 

रमाशंकर जी की बातें सभी को उचित लगी और सभी वैसे ही रहने लगते हैं 

दोस्तों, आजकल के बच्चों को ऐसा लगता है कि वह अपने माता-पिता का गुजारा कर रहे हैं, जबकि माता-पिता उन्हें इस लायक बनाने में न जाने अपने कितने सपनों की कुर्बानी दे देते हैं, माता-पिता के बिना हम नहीं रह सकते, वह तो हमारे बिना पहले भी रहते थे, जिन्होंने हमें अपना पेट काट काट कर खिलाया, क्या वह हमारे पैसों को व्यर्थ गंवाने देखकर चुप रह सकते हैं? नहीं ना? बस इसी टोका टाकी को हम उनकी बंदीशे समझ लेते हैं और अलग रहने का फैसला कर लेते हैं। जिस तरह हम बच्चे से जवान हुए, उसी तरह वह भी जवान से बूढ़े हो गए हैं और बस कुछ ही सालों में वह हमारे साथ नहीं रहेंगे, बस इसी कुछ साल हम उनके साथ प्रेम भाव से नहीं रह सकते? कहां जा रहा है हमारा समाज जहां अपने छोटे से परिवार को भी हम समेटना भूलते जा रहे हैं..

धन्यवाद 

#अपनों का साथ 

रोनिता कुंडु

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