दुर्गा देवी ने अपने बेटे सुशील को अपने पास बुलाया और कहा-“सुशील, पास वाले गांव में तुलसी वाले बाबा जी आए हुए हैं। राहुल की दादी बता रही थी कि लोग उनके पास संतान प्राप्ति के लिए और विशेषकर पुत्र संतान के लिए आशीर्वाद लेने जाते हैं। बाबा जी जिन लोगों को प्रसाद के रूप में इलायची देते हैं उन्हें पुत्री और जिन्हें तुलसी पत्र देते हैं उन्हें पुत्र की प्राप्ति होती है। तू भी कल बहू सीमा को आशीर्वाद के लिए उनके पास लेकर जा। दो दो बेटियां जनकर बैठी है। मैं पोते का मुंह देखूं, तो मुझे भी मोक्ष मिले, और हां अपनी दोनों बेटियों को भी साथ लेते जाना। मुझसे ना संभाली जाएंगी।”
सुशील अपनी मां के सामने कुछ भी नहीं बोला क्योंकि वास्तव में वह भी एक पुत्र की इच्छा रखता था।
उसकी पत्नी सीमा ने बाबा जी के पास जाने से साफ मना कर दिया और कहा-“मैं बेटा और बेटी में भेदभाव नहीं करती। मेरे लिए दोनों बेटियां, बेटों के समान ही है। इन्हें में पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना चाहती हूं और आप आजकल के आधुनिक युग में यह कैसी भेदभाव वाली बातें कर रहे हैं। आजकल बेटियां ही सबसे आगे हैं। हर क्षेत्र में बढ़ चढ़कर नाम कमा रही है।”
लेकिन सुशील ने उसे तरह-तरह के वास्ते देकर अपनी कसम देकर आखिर मना ही लिया। अगले दिन दोनों अपनी दोनों बेटियों के साथ बाबा जी के पास पहुंचे। उन्होंने बाबाजी के चरण स्पर्श किए। बाबा जी ने सीमा के हाथ में छोटी इलायची का प्रसाद दिया जिसे देखकर सुशील का चेहरा उतर गया।
बाबाजी उसका उतरा हुआ चेहरा और उसके साथ दोनों पुत्रियों को देखकर समझ गए थे कि वह किस लिए आया है।
बाबा जी ने उसे अपने पास बुलाया और कहा-“21वीं सदी में पढ़े लिखे हो कर भी तुम लड़का और लड़की में भेद कर रहे हो। तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि पुत्र पैदा होगा तभी मोक्ष मिलेगा, वंश आगे बढ़ेगा यदि तुम्हारी तरह हर कोई सोचने लगे तो पुत्रों को जन्म देने वाली माताएं कहां से आएंगी। बहन, बुआ , मासी जैसे रिश्तो का अस्तित्व ही मिट जाएगा। यह भी तो हो सकता है कि बेटियां तुम्हारा सहारा बन जाए और बेटा बड़ा होकर तुम्हें पूछे भी ना। जाओ, खुशी से इन बेटियों को पालो पोसो, खूब पढ़ा लिखा कर इन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाओ और अपनी माता जी को भी समझाने का प्रयास करो। उनसे कहना कि माता लक्ष्मी, मां अन्नपूर्णा और माता सरस्वती भी स्त्री रूप ही हैं और वह खुद भी तो एक स्त्री हैं यदि उनके जन्म के समय भी उनके माता-पिता ने यही सोचा होता, तो क्या होता? मुझे आशा है कि तुम्हारी माता जी जरूर समझ जाएंगी।”
सुशील को बाबाजी की सारी बातें सही लग रही थी और सीमा भी तो उसे समझाती रहती थी। अब उसने अपनी मां को समझाने का बीड़ा उठा लिया था। चारों खुशी-खुशी घर की तरफ लौट रहे थे।
स्वरचित गीता वाधवानी दिल्ली