“पिताजी, आपका एक बैग मैने तैयार कर दिया है और
दूसरा खाना खाने के बाद लगा दूंगी। कुछ और रखना हो तो याद दिला देना ” सिया ने अपने ससुर को खाना परोसते हुए कहा।
” हाँ बेटा कोई जल्दी नहीं है, आराम से कल सुबह कर देना। आज तो तुम थक भी गई होगी, तुम सो जाना। ” जवाहर खाना शुरू करते हुए अपनी पुत्रवधू सिया से बोले,
जवाहर तीन साल पहले ही बिद्युत विभाग से रिटायर हुए थे। रिटायरमेंट के बाद से ही हर साल अपनी पत्नी के साथ गर्मी के कुछ महीने हरिद्वार में बिता कर आते थे।
वहाँ एक छोटा सा मकान खरीद लिया था अतः ठहरने की कोई समस्या नहीं थी। जब वह हरिद्वार में रहते तो प्रतिदिन दोनों पति पत्नी आधा किमी पैदल चलते ,घाट पर पहुंच कर गंगा स्नान करते और मंदिर में दर्शन कर पैदल ही घर लौट जाते। शाम को कभी कहीं भजन कीर्तन में तो कभी किसी मंदिर की आरती में शामिल हो जाते। जीवन का शेष भाग ईश्वर की उपासना और गंगा मैया के चरणों में समर्पित कर दिया था।
जब अपने शहर में रहते तो प्रतिदिन दोनों पति पत्नी पार्क में टहलने निकल जाते और फिर मंदिर दर्शन कर लौटते। शाम को जवाहर जी के दो चार मित्र इकट्ठे हो जाते तो धर्म और दर्शन की चरचा होने लगती।
बेटा आकाश भी विद्युत विभाग में काम करता था और वहू सिया एक नौकरानी के साथ घर के काम संभाल रही थी। पैसे की कभी कोई कमी रही नहीं, सब कुछ ठीक से चल रहा था।
अगले दिन सुबह दस बजे जवाहर जी को हरिद्वार निकलना था इसलिए वह खाना खाने के बाद जल्दी ही सोने चले गए। पत्नी भी अपना छोटा मोटा जरूरी सामान इकठ्ठा कर दूसरे बैग में जमाने लगी।
” सिया….. सिया बेटा! देखो मेरा नया वाला चश्मा नहीं मिल रहा… ” सास ने सिया को आवाज दी।
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सिया अपने कमरे में किसी से फोन पर बातचीत कर रही थी । आकाश खाना खाकर टहलने निकल गया था।
दो तीन बार आवाज लगाने के बाद सिया की सास उसके कमरे की ओर गई ।उसका गला भरा हुआ था। फोन सिया के पीहर में रहने बाली पडौसी लड़की का था।
” मैं क्या करूं उमा, मैं अपने पास ससुराल में दादी को रख नहीं सकती। ” सिया फोन पर उमा से अपनी परेशानी साझा कर रही थी। ” मेरे सास ससुर को पता नहीं कैसा लगेगा, उधर दादी की दयनीय दशा सुनकर मेरा दिल रोने लगता है। मैं क्या करूं, कुछ भी समझ में नहीं आता। ” सिया की आँखों से आँसू झर रहे थे।
सिया की मां सिया के बचपन में ही गुजर गई थी। अब घर में केवल सिया की दादी और पिता ही थे।सिया और सिया से बडे दो भाई अनुज और कमल के पालन पोषण की जिम्मेदारी दादी पर आ पड़ी। अपनी धार्मिक विचार धारा पर चलने बाली दादी का रुझान अब विन माँ के बच्चों की ओर बड गया। बड़े लाड प्यार से तीनों की परवरिश की। सिया चूंकि सबसे छोटी थी अतः दादी उसे अपने पास ही सुलाती थी। सिया नाम भी दादी का दिया हुआ था।
जैसे जैसे सब बड़े हो रहे थे, दादी उतना ही कमजोर हो रही थी। अनुज और कमल की शादी हो गई। अब सिया के लिए वर की तलाश शुरू कर दी गई। इसी दौरान सिया के पिता भी दुनिया से विदा हो गए। इस सदमे से दादी टूट ही गई थी। सिया के पिता और जवाहर जी एक दूसरे से परिचित थे। अपने मित्र के देहावसान की सूचना पा कर जवाहर जी शोक संवेदना हेतु सिया के घर गए थे।
बेटे का मित्र भी बेटे जैसा ही होता है।अतः सिया की दादी ने जवाहर से सिया के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूँढने के लिए कहा।
” अम्मा, ” जवाहर जी सिया की दादी से बोले, ” मैं सिया को अपनी बेटी बना कर घर ले जाऊं तो…..?…मेरा बेटा आकाश भी विद्युत विभाग में काम करता है। अच्छा वेतन और पक्की नौकरी है। सिया मेरे घर में जाएगी तो हमारे घर में रौनक आ जाएगी। “
दादी कुछ नहीं बोली बस चुपचाप जवाहर जी के चेहरे को पढती रहीं।
” कोई जल्दी नहीं है, बहुओं और बच्चों से सलाह मशविरा लेकर बता देना। मैं इंतजार करूंगा। “
” किससे सलाह लेनी और किससे मशविरा करना! ” उदास मन से दादी ने कहा। ” ऐसा लगता है कि दोनों बहुएं तो आफत टालने के लिए तैयार बैठी रहती हैं। पता नहीं क्या क्या लिखा है मेरे मुकद्दर में, पहले छोटी सी उमर में ही पति अकेले छोड़ गए, फिर बहू चली गई और अब बेटा भी धोखा दे गया। मेरे तो प्राण सूख रहे हैं इसकी चिंता में। फिर भी, पूछना तो पड़ेगा ही। “
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” हाँ अम्मा, ठीक है, मैं फिर जल्दी ही आऊँगा ” जवाहर बापस अपने घर आ गए।
कुछ ही दिनों बाद सिया आकाश की पत्नी बनकर जवाहर जी के घर आ गई।
मगर अपनी सारी जिंदगी औलाद की परवरिश में खपा देने वाली दादी के हालात बद से बदतर हो गए। अनुज और कमल अब कभी दादी के पास तक नहीं जाते। दोनों की पतनियां भी सीधे मुंह बात नहीं करतीं अस्सी साल की उम्र में शरीर क्षीण हो कर ढांचा मात्र रह गया था। फिर भी दादी अपनी दैनिक क्रियाएं और पूजा पाठ छडी के सहारे पूरा कर लेती।
दादी की चारपाई घर के बाहर बरामदे में पहुंचा दी गई थी जहाँ पंखा गर्मी के दिनों में हवा कम लपटें ज्यादा फेंकता था सुबह शाम देर सबेर कोई बहू खाना दे जाती और बस फिर कोई उनके हाल चाल जानने पास नहीं आता। अपमान और उपेक्षा की शिकार दादी ने अपने मन की बात कभी किसी को नहीं बताई।
सिया की एक बार दादी को लेकर खूब बहस हुई थी अपनी भाभियों से।
” हाँ हाँ… हमें तो जैसे परवाह ही नहीं है, अब तुम आई हो हितैषी बन कर। पिछले दो साल से तुमही तो खिलाने आ रही थी, वरना हम तो भूखा ही मार रहे थे। ” दोनों भाभियां सिया पर चढ बैठीं। ” हम भी खूब समझते हैं तुम्हारी खोखली हमदर्दी को। तुम्हारी नजरें दादी की जमीन और बेंक खाते पर हैं, सीधे सीधे क्यों नहीं बता देती। अगर सच में दादी की चिंता है तो ले क्यों नहीं जाती अपने साथ… “
सिया अपना सा मुंह लेकर खिसियाहट में अपने घर बापस लौट आई। और आज फिर एक महीने बाद उमा के फोन से दादी के बदतर हालातों की खबर पाकर सिया की अंतरात्मा दुखी हो गईं।
सास की आवाज सुनकर सिया ने अपने आँसू पोंछे और चश्मा ढूँढ कर दे दिया। चेहरे पर उदासी के हावभाव साफ झलक रहे थे।
अगले दिन सुबह हरिद्वार जाने के लिए जवाहर जी ने अपनी गाडी बाहर निकाली और सिया के सिर पर हाथ फिराते हुए बोले ” चिंता मत करना, हम जल्द ही वापस लौट आएंगे। “
माता पिता को विदा कर आकाश अपने आफिस चला गया और सिया अपने घर के काम निपटाने लग गयी।
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शाम को घर के बाहर गाडी का जाना पहचाना सा हारन सुन कर सिया चकित सी हो गई। अपनी गाडी जैसी आवाज थी। चेहरे पर फैल आई लटों को पीछे की ओर पलटती हुई सिया ने बाहर आकर देखा तो चौंक गई।
जवाहर जी ही थे जो गेट खुलने का इंतजार कर रहे थे।
” पिताजी आप… बापस ….?. आप तो… हरिद्वार…? “
” हाँ बेटा, हम दोनों ही बापस आ गये, अब हरिद्वार जाने की जरूरत नहीं है, हरिद्वार, ऋषिकेश, काशी मथुरा वृंदावन सारे तीर्थ स्थल तुम्हारे घर ले आया हूँ। हमेशा के लिए ” जवाहर जी ने गाडी का पिछला दरबाजा खोल कर अंदर की ओर इशारा कर दिया।
सासू मां के साथ दादी बैठी हुई थी। देखते ही सिया की रुलाई फूट पड़ी। दौड कर दादी को अपने अंक में भींच लिया।
” अपने बुजुरगों को दुखी और दयनीय हालात में छोड़ कर हम तीर्थ यात्रा पर जाएं तो… ” सास ने सिया को ढाढस बंधाते हुए कहा, ” ..तो कैसी तीर्थ यात्रा और कैसा पुण्य धर्म? “
” और कैसा गंगा स्नान? अब हमारा घर ही हमारा तीर्थ स्थल है सिया ।” जवाहर जी ने गाडी से बैग उतारते हुए कहा, ” और इस तीर्थ स्थल को पवित्र बनाए रखना तुम्हारी जिम्मेदारी। “
खुशी के अतिरेक में सिया के मुख से शब्द गायब हो गए।
” देवी देवता मंदिरों में नहीं, घरों में ही रहते होंगे।” दादी ने अपनी टूटी फूटी आवाज में सिया से कहा और सिया का सहारा लेकर घर में प्रवेश कर गई ।
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मौलिक रचना – हरी दत्त शर्मा ( फिरोजाबाद)