भयंकर ऊहापोह में डूबी हुई ‘ मेघा ‘ अक्सर सोचती है ,
” आखिर क्या करे वह अपनी गृहस्थी के दर्द का ? “
एक तरफ सुधीर के माँ की सख्ती और जबरन मेघा पर थोपी गई वो तमाम तरह की बंदिशे ,
दूसरी तरफ खुद सुधीर की भी ‘ वंशवृद्धि ‘ वाली नासमझी से भरी इच्छा के बीच मेघा का उसकी अजीब-अजीब तरह के आशाओं भरी निगाहों से टकराना और घबरा कर भागना …।
आज उसकी जिन्दगी एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहाँ से आगे सिर्फ़ हताशाओं के दौर …ही शुरु होते हैं।
सुधीर चार बहनों का इकलौता भाई शुरू से ही स्वभाव से जिद्दी है।
उसे अपनी हर इच्छा को येन-केण -प्रकारेण पूरी करने की आदत बचपन से ही है।
विवाह के पहले मेघा भी शहर के नामचीन स्कूल में पढ़ाती हुई धनोपार्जन कर रही थी।
लेकिन सासुमाँ को यह भी गँवारा नहीं था। घर में बेटियों के परवरिश के नाम पर उसे लगी-लगाई नौकरी छोड़नी पड़ी थी।
इन्जीनियर दामाद के लालच में मेघा के मां- बाबा ने अपनी हैसियत से बढ़ कर दान दहेज दे कर विवाह किया था।
विवाह के कुछ वर्षों के उपरांत ही वह दो प्यारी बेटियों जया-विजया की माँ बन गई।
बस समस्या की शुरुआत यहीं से हुई है।
सुधीर की मां भला कब दो पोतियों से संतुष्ट रहने वाली हैं ?
फिर भी अब तक मेघा वक्त और परिस्थितियों को साधती हुई किसी तरह अपनी जिन्दगी दो बच्चियों के सहारे शांत और सीधे रास्ते पर काट रही थी।
कि माँजी के आने की खबर क्या आई मेघा के लिए तो कयामत आ गई ।
वे तो वंश की वृद्धि में चार चाँद लगाने वाले पोते की अनंत प्रतीक्षा में हैं एवं स्वयं सुधीर ,
वे भी कहाँ मानने वाले हैं ?
परन्तु इस सबके बीच में अगर मेघा के मन की पूछे तो ?
माँ- बेटे की इस बेवजह , अनर्गल माँग के आगे उसकी अपनी जिन्दगी टूटी-फूटी नजर आने लगी है ।
आखिर कब तक दोराहे पर खड़ी रहेगी वह ?
अभी कल ही की तो बात है रात को खाने की मेज पर , फिर वही सवाल , कभी ना खत्म होने वाली बहस मेघा ने तो जवाब दे कर सिर्फ अल्प- विराम लगाना चाहा था ‘
” माँ जी मेरी दोनों बेटियां ही काफी हैं अब इन्हीं से … “
” हाँ क्या कहा ?
बेटियों से खानदान चलेगा ?
अब मेघा के धैर्य ने भी जवाब दे दिया है। आखिर क्यों चुप रहे ?
अब बात उसकी नहीं उसकी बेटियों तक आ पँहुची है।
धीरे से अस्फुट स्वर में …
“तो ना चले ऐसे भी कौन से नामचीन … आगे की बात मुँह में ही रह गई थी ,
” चटाक ” एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा गाल पर,
लगभग सम्वेदनाशून्य होती बाकी का कुछ सुन नहीं पाई सिर्फ कातर कण्ठ से इतना ही निकल पाया था ,
” ये क्या ? … क्या है ये सुधीर ?
भीतर की अव्यक्त यन्त्रणा को प्रकट न कर पाने की और कोई राह न देख कर कराह उठी।
सामने माँजी की कुटिल मुस्कान से सुधीर के इस कुकृत्य में सहमति जान विवशता से भरी सामने की दीवार पर सिर दे मारी।
जया-विजया के सानिध्य में शायद नर्म पड़ सकती थी ,
लेकिन वे दोनों सो चुकी थीं।
तब लाख प्रयत्न करने पर भी मेघा इतने दिनों के वैवाहिक जीवन की मर्यादा नहीं रख पाई।
कड़वी हंँसी हंँस बोली ,
” बहुत सही किया सुधीर तुमने घर से बाहर निकलने की राह दिखा दी।
बस अब और नहीं! आखिर सहने की भी एक सीमा होती है “
कहती … हुई वह मजबूत कदम उठाती कमरे में सोई हुई अपनी बेटियों को उठाने लगी है।
सीमा वर्मा / स्वरचित