गांव का सबसे धनाढ्य परिवार यानी जमींदार परिवार । इस परिवार की बात ही निराली । जमींदार साहब मनजीत सिंह जी के सबसे बड़े सुपुत्र राम सिंह जी जिन्हें सब रामू भैया कहते थे । रामू भैया को जमींदार साहब ने शहर भेज दिया अध्ययन करने के लिये । रामू भैया को शहर की हवा लग गयी ।
रामू भैया को सब कुछ कुछ पता था कि उनकी शादी बचपन में ही उनके पिताजी ने अपने दोस्त कुंवर बहादुर जो दूसरे गांव के जमींदार हैं उनकी बेटी श्यामा से तय कर दी थी पर अब तो बात ही कुछ अलग थी श्यामा गांव में ही पांचवी तक पढ़ी थी और रामू भैया ने एम. ए कर लिया । जब वह गांव पहुँचे तब पता लगा कि दो दिन बाद उनका टीका करने उनके ससुराल से आ रहे हैं। उन्होंने अपनी मां से कहा कि मै यह शादी नहीं करूंगा
क्योंकि मैने उस लड़की को देखा भी नहीं है। मां ने कहा अगर तुम में हिम्मत है तो अपने पिताजी से बात करो । जब रामू भैया ने जमींदार साहब से बहुत हिम्मत करके कहा कि मै यह शादी नहीं करूंगा तब जमींदार साहब ने कहा यह शादी हर हालत में होगी यह मेरा प्रण और वचन है नहीं तो मै तुम्हें अपनी जायदाद से बेदखल कर दूंगा । बेचारे रामू भैया कहां जाते क्योंकि बड़ी मुश्किल से तो जुगाड़ से एम.ए किया था ।
दूसरे दिन उनका टीका होगया और 15 दिन बाद शादी भी होगयी । जब श्यामा विदा होकर आई तब सब घर और रिश्ते दारों ने देखा । जहां रामू भैया गोरे चिट्टे लम्बे कसरती बदन उसके विपरीत श्यामा काली ठिगनी बदन भी ईश्वर की कृपा से गोल मटोल अब तो जो कोई देखता मुंह दबा कर हंसता ।
और कहता क्या ये जमींदार साहब की पसंद है। बस एक जमींदार साहब ही उसके पक्षधर थे । श्यामा जमींदार घराने की बड़ी बहू तो बन गयी पर रामू भैया की पत्नी ना बन पाई । रामू भैया भी बाहर ही रहते और मन बहलाने के सब साधन मौजूद थे धनाभाव तो था ही नहीं फिर सुनाई पड़ा कि रामू भैया ने अपनी पसंद की अपनी सहपाठी से शादी कर ली पर सीधे सीधे समाज मे जाहिर नहीं था । हां जमींदार साहब और श्यामा कि सब पता लग गया ।धीरे धीरे सारी जिम्मेदारी श्यामा के कन्धो पर
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आगयी । सास जी पहले ही भगवान को प्यारी हो गयी जमींदार साहब ने पूरी चाबियां जिम्मेदारियां श्यामा को सौंप दी । उसने सब देवर ननदों की शादियाँ कर दी ।इसी बीच जमींदार साहब ने भी श्यामा का साथ छोड़ ईश्वर का हाथ पकड लिया ।
बस जमींदार साहब ने बहुत कुछ श्यामा के नाम कर दिया । घर के सारे बच्चे देवरानी देवर श्यामा से बहुत प्यार करते थे क्योंकि सूरत ना सही उसका मन बहुत दयालु था । इतना समय शादी को बीत गया दुलहन बन कर आई थी पर ना सुहागिन थी ना विधवा । अब तो बच्चों की भी शादी होने लगी । आज पता ना श्यामा ने सबको अपने कमरे में इकठ्ठा होने के लिये बोला ।
सब अचम्भित थे और श्यामा के कमरे में आगये । श्यामा ने बहुत गम्भीर स्वर में अपने बड़े देवर से कहा आज मै आपको कुछ कागज देरही हूँ वह अपने भाई को जाकर देदो आज मैं तुम्हारे भाई के कारनामों का खुल कर समाज के सामने विरोध कर रही हूं । मुझे सब लोग स्वतंत्र करो मै अब ऐसी जगह जाना चाहूँगी जहां मै शान्ति से अपनी जिन्दगी जी सकूं ।मेरे सास ससुर ने जो जिम्मेदारी दी वह मैने पूरी करदी ।
स्वरचित
डा. मधु आंधीवाल
अलीगढ़