राधा चुपचाप बैठी हुई थी, लेकिन उसके मन में पुरानी यादों की एक सूनामी उमड़ रही थी। उसके चेहरे पर गहरी सोच के साथ-साथ कुछ दर्द के भाव थे, जो अतीत की उन चुनौतियों और जिम्मेदारियों की याद दिला रहे थे, जिनसे वह वर्षों से जूझती आई थी।
करीब बीस साल पहले की बात है। राधा मात्र अठारह साल की थी। उसका छोटा भाई अनुज पंद्रह साल का और सबसे छोटी बहन काव्या बारह साल की थी। उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे, और उनका जीवन सामान्य रूप से चल रहा था। तीनों बच्चों के लिए माता-पिता ही दुनिया थे। लेकिन एक रात अचानक एक भयानक सड़क हादसे में उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। यह हादसा उनके लिए सब कुछ खत्म कर देने वाला था। तीनों बच्चे अचानक अनाथ हो गए।
राधा के लिए यह समय बेहद कठिन था। वह अपनी छोटी उम्र में ही पूरे परिवार की जिम्मेदारी के तले दब गई। लेकिन उसने खुद को टूटने नहीं दिया। उसने अपने आँसू पोंछकर अपनी हिम्मत को मजबूत किया और अपने भाई-बहन का सहारा बनने का संकल्प लिया। उसने सोचा कि अब उसे ही माँ और पिता दोनों का रोल निभाना होगा।
राधा ने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी पकड़ ली। वह दिन में स्कूल में पढ़ाती और शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती। पिता की जमा-पूंजी को बड़े ही समझदारी से इस्तेमाल करते हुए उसने घर का खर्च चलाया। अपने ऊपर किसी प्रकार का खर्च न करते हुए उसने अपनी पढ़ाई भी पूरी की। मेहनत और लगन के बल पर राधा बाद में कॉलेज में प्रोफेसर बन गई।
राधा ने अपने भाई अनुज और बहन काव्या की पढ़ाई का भी पूरा ध्यान रखा। अनुज ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और एक बड़ी कंपनी में नौकरी पाई। काव्या ने भी अपनी शिक्षा पूरी कर ली और एक प्रतिष्ठित शिक्षिका बनी। राधा ने उनके करियर और शादी की जिम्मेदारी को पूरी शिद्दत से निभाया। उसने अपनी पूरी जवानी अपने भाई-बहन के लिए समर्पित कर दी। उसकी खुशियों का केंद्र वही थे।
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लेकिन राधा के मन में यह सवाल कभी-कभी उठता कि उसकी खुद की खुशियाँ और इच्छाएँ कहाँ गुम हो गई थीं। वह जानती थी कि शादी और परिवार का विचार उसके लिए अब प्राथमिकता नहीं थी, क्योंकि उसके जीवन का मकसद अपने भाई-बहन को सफल बनाना बन चुका था। लेकिन उम्र बढ़ते-बढ़ते वह चालीस की हो गई और उसके जीवन में एक नया मोड़ आया।
पिछले साल उसके कॉलेज में एक नए प्रोफेसर आए थे, जिनका नाम दीपक था। वे बहुत ही समझदार, शांत और आदरपूर्ण थे। धीरे-धीरे दोनों के बीच एक खास तरह का संबंध विकसित हुआ। दीपक का स्वभाव और राधा की मेहनत ने उन्हें एक-दूसरे के करीब ला दिया। दीपक ने पहले प्यार में धोखा खाया था और शादी का ख्याल छोड़ दिया था। लेकिन राधा में उन्हें सच्चा साथी मिला। उन्होंने राधा से अपने दिल की बात कही और विवाह का प्रस्ताव रखा। राधा के लिए यह एक कठिन फैसला था।
आज उसी निर्णय को लेकर उसने अपने भाई-बहन को घर बुलाया था। “क्या बात है दीदी, आज अचानक हम सबको बुला लिया?” काव्या ने उत्सुकता से पूछा।
राधा ने मुस्कुराते हुए दीपक के साथ अपने रिश्ते और उनके विवाह के प्रस्ताव की बात बताई। उसकी उम्मीद थी कि उसके भाई-बहन उसकी खुशी में खुश होंगे, लेकिन जो हुआ वह उसके लिए चौंकाने वाला था।
“क्या दीदी, अब इस उम्र में शादी करेंगी? हम तो हैं आपके साथ। आपकी देखभाल कौन करेगा?” अनुज की पत्नी ने ताने भरे स्वर में कहा।
“हां दीदी, आपके कारण ही तो मेरे दोनों बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे हैं। आपकी जिम्मेदारी हमारी है।” अनुज ने अपनी स्वार्थी सोच जाहिर की।
“और मेरे बच्चों की पढ़ाई और करियर भी तो आपको ही संभालना है,” काव्या ने भी झट से कहा और उसे गले लगा लिया। “अगर बच्चे की कमी महसूस होती है तो मेरे बच्चों को अपना मान लो।”
“किसी एक को गोद लेने की जरूरत नहीं है दीदी। आप तो सभी बच्चों को अपना ही समझिए। अब इस उम्र में शादी के चक्कर में मत पड़िए।” अनुज की पत्नी ने हंसते हुए कहा।
राधा के लिए यह एक बड़ा झटका था। उसने आज तक अपने भाई-बहन को सब कुछ माना था। वह उनकी हर जरूरत पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। लेकिन उनकी बातों से साफ हो गया था कि वे केवल उसके त्याग और मेहनत का फायदा उठाना चाहते थे।
राधा ने चुपचाप सबकी बातें सुनीं। उसने सोचा कि उसने हमेशा अपने परिवार की खुशियों के लिए अपने सपनों और इच्छाओं को दबा दिया था। लेकिन अब उसे एहसास हो गया था कि जिन लोगों को वह अपना समझती थी, वे केवल अपने स्वार्थ के लिए उससे जुड़े थे।
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राधा ने मन ही मन फैसला कर लिया। उसने अपने दिल की आवाज सुनी और दीपक से विवाह करने का निश्चय किया। इस बार वह सिर्फ अपने लिए जीना चाहती थी। उसने खुद से कहा, “अब मैं अपनी खुशी और आत्मसम्मान के लिए जीऊंगी।”
यह निर्णय उसका था और उसने इसे पूरे आत्मविश्वास के साथ लिया। उसके लिए यह एक नई शुरुआत थी।
मूल रचना
सुभद्रा प्रसाद