स्वार्थ का चश्मा उतर गया – संगीता त्रिपाठी  : Moral Stories in Hindi

” इतनी देर क्यों कर दी रति,कब से सब लोग तेरा इंतजार कर रहे थे, कि तू आये फिर चाय पी जाये “, अनीता ने थोड़ा खींझ कर कहा।

“अरे भाई संयुक्त परिवार में रहती हूँ तो देर होना स्वाभाविक है, अभी भी सब्जी लेकर आ रही हूँ , तुम लोगों के मजे हैं,एकल परिवार न सास की किचकिच, न ढेरों काम, जो मन आये करो, नहीं मन है तो बाहर से मंगवा लो, यहाँ तो इतने सदस्य का खाना मँगवाना भी, बजट बिगाड़ देता है “सब्जी का थैला दिखाते रति ने जवाब दिया।

“ये गलत कह रही हो, एकल परिवार में हमें सारे काम खुद करने पड़ते हैं, तुमको तो परिवार का साथ मिल जाता है, पर हमें तो बीमार हो या कोई और अवसर सब में खुद ही काम करना पड़ता है, पति भी मदद नहीं कराते,”अनीता थोड़ा आक्रोश से बोली।

“क्या बात करती है तू, तेरा देख मैं भी शिखर को अलग रहने के लिये राजी करने में लगी हूँ, देखो कब सफल होती हूँ “रति हँस कर बोली “फिर मैं और शिखर बच्चों के साथ मस्ती से रहेंगे, न कोई रोक, न कोई टोक, न किसी से पूछना, जो मर्जी बनाओं -खाओ और न मन करें तो बाहर से मंगवा लो, सच यार एकल परिवार में मजे ही मजे हैं “रति बोली।

 “रति मेरी वाली गलती मत करना, वरना बाद में पछताओगी, संयुक्त परिवार में रोक -टोक जरूर है पर एक सुरक्षा और परवाह भी है, खाना बाहर से मँगवाना बजट जरूर बिगाड़ देता, पर अच्छा है न घर का साफ -सुथरा खाना खाने से स्वास्थ्य अच्छा रहता, दूसरे,एक दूसरे की पसंद का खाते,

बच्चों में भी खाने -पीने की सहजता आ जाती है, यहाँ तो बच्चे रोज बाहर का ही खाना चाहते हैं, बेटे को पेट की प्रॉब्लम हो गई, डॉ. ने कुछ परहेज बोला है, वो सुनता ही नहीं,”अनीता ने दुखी स्वर में कहा।

“तो क्या तू अलग रह कर खुश नहीं है “रति ने पूछा।

“नहीं रति,सच में,मैं अपने संयुक्त परिवार को बहुत मिस करती हूँ, मेरा और देवरानी का काम बंटा हुआ था, देवरानी ऑफिस जाती थी, तो सुबह का खाना मेरे जिम्मे था, पर शाम का वही संभालती थी।शाम को मैं फ्री रहती थी, अभी तो सारा समय रसोई में ही निकल जाता है,

ऊपर से पति से कोई उम्मीद मत करो , कुछ मदद को कहो तो कहते हैं “तुम ही अकेले रहना चाहती थी तो अकेले मैनेज करो, संयुक्त परिवार में कुछ बंधन जरूर हैं पर अगर एकल परिवार में देखो तो बंधन ही बंधन है, जो दिखता नहीं, पर संयुक्त परिवार के बंधन से ज्यादा कठोर है,

सारी जिम्मेदारी आपकी हो जाती है, कहीं भी जाना हो तो घर को बंद करो, बच्चों को भी साथ ले जाओ, और तो और सारे खर्चे आपको अकेले वहन करना है, संयुक्त परिवार में ख़र्चे सांझे हो जाते थे तो थोड़ी बचत भी हो जाती थी,हारी -बीमारी में परिवार के लोग साथ खड़े होते हैं,अब समझ में आया “दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं..””अनीता ने अपना पक्ष रखा।

 तब तक निशा चाय ले कर आ गई, सब लोग चाय पीने लगे।एक चुप्पी पसर गई।,निशा बोली “पता है, ऊषा को डिप्रेशन की बीमारी हो गई “सब लोग चौंक गये”अरे, कैसे हुआ “

“उसके बच्चे बाहर पढ़ने चले गये, और शर्मा जी अपने ऑफिस में व्यस्त हो गये, घर में और कोई परिवार का सदस्य है नहीं, ऊषा ने अपने अहं के चलते सब से किनारा कर लिया था, आज ऊषा अकेली पड़ गई, “निशा ने बताया।

“मुझे देख, बच्चों के जाने के बाद भी, सासु माँ के रहने से मुझे अकेलापन नहीं लगा, न ही मैं परेशान हुई, उनकी वज़ह से रिश्तेदारी में भी आना -जाना बना रहा “निशा ने कहा।

“चलो मैं चलती हूँ, माँ -बाबूजी के खाने का समय हो गया, वे गर्म रोटियां खाते हैं” सब्जी का थैला उठा कर रति बोली, जिस चश्मे से वो अनीता की जिंदगी देख रही थी, वो ठीक उसका उल्टा था।

अनीता ने मन ही मन सोचा,रति को गर्म रोटी बनाने की जिम्मेदारी है, तो अपने लिये भी गर्म रोटी बनाएंगी उसे तो सुबह की बनी ठंडी रोटी अकेले ही खानी पड़ती है, याद है ससुराल में सास के लिये गर्म रोटी बनाती थी तो सासु माँ, बोलती थीं तू अपनी भी बना ला, साथ बैठ कर खाएंगे”,

उसको चिंतित देख निशा ने कहा “अनीता अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, वापस जा सकती है “

“हाँ, मैं भी सोच रही हूँ, सासु माँ और देवरानी से क्षमा माँग घर वापसी कर लेती हूँ, मुझे अकेलापन और अवसाद नहीं झेलना पड़ेगा,मेरा चीजों को देखने का नजरिया बदल गया, अब तक मैं जिस स्वार्थ का चश्मा लगा रखी थी, वो वास्तविकता देख उतर गया “अनीता बोली,।

 दोस्तों,जो बाहर से दिखता है वो अंदर से भी उसी तरह नहीं होता,हर किसी को दूसरे का जीवन सुखद और अपना दुखद लगता है, ये मानव मन की कमजोरी है, जो वो हमेशा दूसरों की थाली ही देखता है, जो पास है उसकी कीमत नहीं समझता।हर किसी को अपनी परेशानियां खुद झेलनी पड़तीं,

कई बार चीजें तब समझ में आती हैं, जब हम पर पड़ती है, तभी समझ में आता “दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं…”किसी घर का बच्चा विदेश में नौकरी कर रहा होता तो, उसके जानकार सोचते, कितने ऐश -आराम से रह रहा, डॉलर भेजता होगा अपने माँ -बाप को….।

पर ये तो आपका देखने का चश्मा है, दूसरे चश्मे से देखिये, विदेश में बच्चे का अकेलापन, नाते -रिश्ते सब से दूर, हर त्यौहार पर देश याद करते, डॉलर जरूर कमाते है, पर कितने है जो माँ -बाप को भेजते हैं, क्या डॉलर भेजने से परिवार की जिम्मेदारी पूर्ण हो गई,

क्या माँ -बाप को अकेलापन नहीं लगता जब वे औरों को अपने बच्चों के साथ देखते हैं…।कहने का मतलब ये हम अपने नजरिये से जो देखना चाहते वही देखते हैं।


—=संगीता त्रिपाठी

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