सूरज न बन पाए तो! – नीलम सौरभ

“क्या गाता है यार आर्यन!…लग रहा था बस सुनते जाओ।” बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा शुभा अपने सहपाठी की प्रशंसा करते हुए नहीं थक रही थी।

“सच में! जितना सेंसफुल सॉन्ग था, उतनी ही इमोशन भरी आवाज़…सूरज न बन पाये तो, बनके दीपक जलता चल।” मेधा ने भी कोई कसर बाक़ी न रखी।

दोनों की तीसरी सखी रुचिरा दोनों की बातें सुनकर केवल मुस्कुरा रही थी।

म्यूज़िक क्लास के बाद ये तीनों पक्की सहेलियाँ कॉलेज से आज गुनगुनाती हुई निकलीं। रुचिरा आज उन्हें अपने जन्मदिन की पिछले हफ़्ते से ड्यू ट्रीट देने वाली थी। कॉलेज के सामने पेड़ की घनी छाँव में खड़ी हो तीनों रिक्शे के लिए इधर-उधर नज़र दौड़ाने लगीं। उनका शहर कुछ कस्बेनुमा है, जहाँ अभी भी ऑटो-रिक्शा के बदले सायकल-रिक्शे ही अधिक चलते हैं।

एकाएक कुछ याद करते हुए शुभा ने रुचिरा की ओर निगाहें तिरछी कीं,

“यार, कोई बुढ़ऊ को न रोक लेना पिछली बार की तरह…. मुझे बहुत दया आती है उनको बड़ी मुश्किल से रिक्शा खींचते देख!”


मेधा ने भी सुर मिलाया,

“हाँ यार! मोल-भाव भी करते नहीं बनता किराये का!”

रुचिरा प्रतिक्रिया में अपनी बात रख पाती इससे पहले ही एक बुज़ुर्ग ने उनके पास अपना सायकल-रिक्शा रोका, “कहीं चलने का है क्या बिटिया लोग?”

रुचिरा ने पहले दोनों सखियों के चेहरे पर उमड़ आयी नागवारी को देखा, फिर बुज़ुर्ग के चेहरे पर तैरती उम्मीद को। उसे सोच-विचार करता देख शुभा ने उसको कोहनी मारी। यह शायद इशारा था कि मना कर दो। अचानक रुचिरा की आँखों में दृढ़ता चमक उठी,

“प्रताप चौक ले चलिएगा बाबा?”

“काहे नहीं ले चलेंगे…हम तो रोज ही उधर जाते हैं!”

“तो फिर ले चलिए!” बोलती वह लपक कर रिक्शे में बैठ गयी। विवश होकर दोनों सहेलियों को भी बैठना पड़ा।

कुछ दूर जाने पर सड़क पर ढाल थी तो रिक्शे की गति तेज हो गयी। मेधा और शुभा आते-जाते, बाइक की रेस लगाते हमउम्र लड़कों को देख उन पर चुहल भरी टिप्पणियाँ करके आपस में हँसी-मज़ाक कर रही थीं मगर रुचिरा का ध्यान सड़क पर था। ढाल समाप्त हो गयी थी, अब थोड़ी दूर समतल सड़क के बाद खड़ी चढ़ाई सी थी। रिक्शा खींचने के लिए रिक्शेवाले को पूरा दम लगाना पड़ रहा था। तेज धूप में वह पसीने से तर-ब-तर हो चुका था अबतक। अचानक रुचिरा ने आवाज दी, “बाबा, सुनिए…जरा रुकिएगा तो!”

रिक्शेवाले ने ब्रेक लगाये और रिक्शे से उतर पड़ा। उसकी साँसें लुहार की धौंकनी सी चल रही थीं। उसने अपने गले में पड़े मटमैले गमछे से माथे व गर्दन का पसीना पोंछा फिर तनिक साँस लेकर लड़कियों की ओर सवालिया नज़रों से देखने लगा।

रुचिरा तुरन्त रिक्शे से उतर पड़ी। उसने मेधा और शुभा को भी उतरने का इशारा किया तो दोनों ख़ुश हो गयीं,


“चलो, इसे हमारी बात तो समझ में आयी, देर से ही सही!”

उन्हें उतरता देख बुज़ुर्ग की आँखों में मायूसी झलक आयी थी। इतनी कम दूरी के तो 10-15 रुपये ही मिल पायेंगे, अन्यथा बताये गये पते का किराया उसने 60 रुपये ठहराया था। उसे अपने बुढ़ाते, अशक्त होते शरीर पर अपराधबोध हो आया। परिवार की गाड़ी तो जैसे-तैसे अबतक खींचता ही आ रहा है लेकिन अब यह रिक्शा घाटे का काम हो चला है, सवारियाँ या तो मिलती नहीं या फिर यों ही आधे रास्ते में…।

“बाबा, यह किराये के पैसे रख लीजिए आप!…और ये चढ़ाई पार कर लीजिए, फिर हमें आगे से दोबारा बैठा लीजिएगा!”

रिक्शेवाले को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। भाव-भरे विस्मय से देखता हुआ वह कुछ कह पाता, उससे पहले ही रुचिरा दोनों सहेलियों का हाथ पकड़ तेजी से सड़क पर आगे बढ़ गयी थी।

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