दूसरों को मदद करके इंसान को जो सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त होती हैं. वह कहीं और नहीं होती हैं।जितनी अजीब ये बाहर की दुनिया है, उससे भी ज्यादा अजीब हमारे अंदर की दुनिया है।
सुधा हमारे ही पड़ोस में रहती है, बहुत ही सुंदर, सुशील और गुणी-सहुरदार। पर कहते है ना दुनिया में सब कुछ नहीं मिलता, सुधा भी ऐसे लोगों में थी। काम उम्र में ही बेचारी विधवा हो गई थी।एक ऐक्सिडेंट में उसके पति का देहांत हो गया था, दो बच्चे भी है उसके। कहते है कि….किसी के चले जाने से ज़िंदगी नहीं रूकती..उसका क्या जिसकी “ ज़िंदगी” ही चली गयी हों….!
किसी का भी दर्द कोई बाँट नहीं सकता और ना ही कोई किसी की जगह ले सकता। कहना बहुत आसान है “ कोई बात नहीं धीरज रखो हम है ना!” आज के इस मतलबी दौर में… सब बस “गौं के यार” हैं…यह शब्द सिर्फ़ सांत्वना देने के लिए है। किसी का भाई, किसी का बेटा,
किसी का पिता… लोग बड़े सरल शब्दों में कह देते है… “ पापा नहीं है तो क्या हुआ.. चाचा तो है।” तो वो चाचा ही रहेगा या पिता जैसा तो उसके आगे “जैसा” लग गया ना… चार दिन बाद वही “जैसा” आपको बोझ या बेचारी समझेगा और आपकी मजबूरी का फ़ायदा उठाएगा। कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि…. आपका सब हड़प कर घर से बेदख़ल कर देगा।ऐसा ही सुधा के साथ भी हुआ।पति के जाते ही देवर ने घर हड़प लिया!
उसका भाई ही उसकी हर ज़रूरतें पूरी करता है, लेकिन उसका भी अपना परिवार है।एक दिन मेरे घर आई तो बहुत उदास थी, वह अपने भाई पर बोझ नहीं बनना चाहती थी सो, उसने हमसे पूछा -“ आँटी हम क्या करे की अपने भाई की मदद कर सके।”
हमनें कहा-“ तुम्हें इतनी अच्छी सिलाई-कढ़ाई और पेंटिंग आती है, तुम इसी को अपनी रोज़ी बनाओ और चार पैसे कमा कर भाई की मदद करो।”
“ वो कैसे आँटी??”वह बोली।
मैंने कहा कि एक दिन मुहल्ले की सभी औरतों को घर बुलाओ और अपना हुनर उन्हें बताओ। उनमें से कुछ औरतें तुरंत तुम्हें काम देंगी। सूट सिलना, साड़ी के फ़ॉल-पिकों, साड़ी में पेंटिंग करो।
“ मगर आँटी पैसे????”
बेटा !मैं तुम्हें कुछ पैसे देती हूँ ।
“ पर आँटी आप??”
अरे बेटा! उधार समझ कर लेना और जैसे-जैसे काम से पैसे आने लगे, वापस करती रहना।
“ धन्यवाद! आँटी!”
कोई बात नहीं बेटा! इंसान, इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा।
सुधा सोच रही थी कि…इंसानियत अभी भी इस गौं के यार के जमाने में जिंदा हैं।
समय बीतते-बीतते, सुधा की मेहनत रंग लाने लगी और पैसे भी कमा कर भाई की मदद करने लगी।अब बच्चे भी थोड़े बड़े होकर स्कूल जाने लगे थे।
आज वह हमारे पास एक निमंत्रण पत्र लेकर आई कि आँटी आपको फ़ीता काट कर… मेरे ” सुधा बुटीक” का उद्घाटन करना है।
“ पर बेटा मैं??”
“ हाँ आँटी! उस दिन आप राह ना दिखती और मेरे हुनर से रूबरू ना करवाती तो मैं कहाँ कर पाती कुछ।
आज इतनी आत्म संतुष्टि और आत्म सुख की अनुभूति हुई कि कुछ कह नहीं सकती। मैंने सिर्फ़ राह दिखाई थी सुधा को।
संध्या सिन्हा