आँखें खुलीं तो मेंने खुद को हस्पताल की बैड पर पाया। सारे परिजन और डौक्टर व नर्सें मुझे घेरे खड़े थे।
“मिष्टर त्यागी, कैसा महसूस कर रहे हैं।” डॉक्टर ने कहा।
“क्या हुआ है मुझे। मैं यहाँ?
“ऐसा होता है। अगर सर में थोड़ी भी चोट लगे तो इंसान तत्कालीन घटना को भूल जाता है। कुछ खास नहीं। आप का स्कूटर स्लिप हो गया था शायद। हम ने एम आर आई किया है। सब ठीक है। बैक बोन में फ़्रैकचर है शायद। एक छोटी सी सर्जरी के बाद तीन दिन में आप घर जा सकेंगे।”
“सभी लोग यहाँ से हट जाइए। इन्हे आराम करने दीजिये।” नर्स ने आदेश दिया और हल्की पूछताछ के बाद परिजन बाहर चले गए। वार्ड में सन्नाटा सा छा गया। ये एक सेमीगौरमैंट हॉस्पिटल का जनरल वार्ड था। प्रत्येक बैड के बीच में पर्दे का पार्टीशन लगाया गया था। मेरे जैसी आर्थिक स्थिति के लोग ऐसा ही ट्रीटमैंट अफोर्ड कर सकते थे। दवाइयों की महक, कभी कभी किसी मरीज के कराहने की आवाज और नर्सों के नुकेली हील वाले सैंडिलों की कट कट में हौस्पिटल सिंड्रोम दिमाग पर हावी होने लगा था। कैसे कटेंगे यहाँ तीन दिन।
तीन घंटे गुजर गए। विजिटर्स आवर में अभी भी देर थी। समय काटे नहीं कट रहा था। जीवन भर की घटनाओं को, सफलताओं और नाकामियों को, कभी बेहद प्यारे तो कभी रिश्तों की चुभन को, अपनों की वफादारी और नाफ़रमानियों को तथा जिंदगी की न खत्म होने वाले दौड़ को सोचते सोचते कई घंटे गुजर गए मगर घड़ी की सुईं के पाँव में जैसे जिसे किसी ने चक्की के पाट बांध दिये थे। चल ही नहीं रही थी। हर बैड के बीच में सरक जाने वाले पर्दे के पार्टीशन लगे थे अन्यथा पड़ौसी मेरीज से बात करके ही कुछ समय गुजर जाता। न जाने मेरे निकट की बैड पर कौन होगा। क्यूँ न उन्ही से कुछ बात की जाएँ। कहीं कोई महिला न हो और पर्दा सरकाने से बुरा मान जाय। कई पल इसी संकोच में गुजर गए। जरा सी झिर्री से झांक कर देखा तो एक साठ बासठ साल के भारी से बदन के सज्जन लेटे हुए थे। मैंने पर्दे तो थोड़ा सरकाते हुए धीरे से कहा “हॅलो सर। मेरा नाम विकास त्यागी है। गाजियाबाद में रहता हूँ।”
“जी नमश्कार। मुझे अमरनाथ कौशिक कहते हैं। दिल्ली जल बोर्ड से तीन महीने पहले ही रिटायर हुआ हूँ। आप का एक्सीडेंट हुआ है शायद। मैं सुन रहा था।” उन्होने रुग्ण स्वर में कहा।
“जी हाँ। स्कूटर से घर लौट रहा था। डॉक्टर कहते हैं कोई सर्जरी करनी पड़ेगी शायद कमर की। आप?”
“पता नहीं। अचानक पेट में दर्द हुआ था। कुछ जाँचें हुई हैं। डॉक्टर कहते हैं पेंक्रियाज़ में प्रॉबलम है शायद। अब इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहेगा भाई।” कहते हुए उन्होने आँखें मूँद लीं। उनके स्वर में एक निराशा सी झलक रही थी।
दूसरी तरफ की बैड से कोई आवाज नहीं आ रही थी। मैंने सोचा हो सकता है उधर कोई न हो। बैड खाली भी हो सकती है। तभी उधर से एक नारी स्वर सुनाई दिया
“खाना लायी है साब। निकाल दूँ?”
“रख दे वहाँ। और दफा हो। और सुन। अगर मैं यहाँ से घर लौट पाऊँ तो घर मुझे वैसा ही मिलना चाहिए। एकदम चकाचक साफ। चादर पर्दे वगहरा सब...।” एक खुरदरा सा पुरुष स्वर सुनाई पड़ा।
“अगर ना लौटूँ क्यूँ बोलते साब। आप एकदम ठीक होकर घर जाएंगे।”
“मेरी माँ बनने की कोशिश मत कर। चल अब निकल ले। और सुन, शाम को खाना टाइम से लाना। एकदम गरम।”
अरे! ये कैसी शक्सियत है। इन सज्जन के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी किन्तु परदा हटकार बात करने का साहस नहीं हो रहा था।
चार बज गए। डॉक्टर्स, शाम का राउंड ले रहे थे। दो डॉक्टर्स और नर्सों की टीम मेरा हालचाल पूछकर बाएँ ओर के कक्ष की ओर बढ़ गई।
“हॅलो मिष्टर सान्याल। कैसे हैं?” बराबर के केबिन में डॉक्टर मरीज से पूछ रहे थे।
“आप देख रहे हैं न डॉक्टर। मैं खाना खा रहा हूँ। आप इस तरह मुझे खाना खाते हुए डिस्टर्व कैसे कर सकते हैं।”
“मगर खाने का वक्त तो... खैर।”
“अब ये भी आप तय नहीं करेंगे कि मैं खाना किस वक्त खाऊँगा। प्लीज़... लीव।” आवाज में गुस्सा था।
“सौरी सान्याल सहब। मैं फिर आता हूँ। रिलैक्स।”
इन सज्जन से रूबरू होने की मेरे उत्सुकता बेहद बढ़ गई थी किन्तु साहस नहीं हो रहा था। तभी बराबर के केबिन से आवाज आई “हॅलो दोस्त। आप का स्वागत है इस नर्क में। कैसे पधारना हुआ।”
“जी मुझे स्कूटर फिसलने से थोड़ी चोट लग गई है। जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा।” मैंने हड़बड़ी में कहा।
“ज्योतिषी हो?”
“जी... जी नहीं। मैं तो बैंक में...।”
“नहीं, अभी आप ने कहा कि जल्दी ही ठीक हो जाएंगे सो...। खैर, मुझे हनी सान्याल कहते हैं।”
वे अत्यंत दुबले से, लगभग सत्तर साल के सज्जन थे। साँवले से चेहरे पर झक सफ़ेद स्टाइलिश फ्रेंच कट दाढ़ी, आँखों पर कीमती सा दिखने वाला गोल्डन फ्रेम का चश्मा और दर्शनिकों की तरह विचारमग्न सी आँखें।
“बाल बच्चे हैं?” उन्होने तपाक से सवाल पूछा। उत्तर की प्रतीक्षा में उनके होंठ गोल से हो जाते थे।
“जी हाँ। दो बच्चे हैं। स्कूल में पढ़ते हैं और बीवी टीचर मैं। सेंट्रल स्कूल में।”
“तभी...। तभी जल्दी से ठीक होकर घर लौटना चाहते हो। दर असल मैं तो मिष्टर... क्या नाम बताया था आप ने?”
“जी विकास त्यागी और आप?”
उन्होने एक गहरी ठंडी सांस ली। फिर बोले “दिल्ली में कुछ सात हजार अलोन सीनियर सिटीजन्स रहते हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ मिस्टर त्यागी। शायद आप को जानकार आश्चर्य होगा कि मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। बेंगलूरू में पैदा हुआ। एक बहन थी। विदेश में जकर बस गई। फिर वहीं मर खप गई। मैं भी नौकरी के दिनों में खूब देश विदेश घूमता रहा। हाँ... एक शादी भी बनाई थी। नीदरलैंड में मगर चली नहीं।” उन्होने यादों में डूबते हुए मुस्कराकर कहा। मगर जल्दी ही चेहरे पर उदासी ने कब्जा कर लिया। ऐसा लगता था कि उनके पास कहने को बहुत है मगर कोई सुनने वाला नहीं है।
“मिस्टर त्यागी, आप चाय पिएंगे। अरे भाई घर से आई है। हालांकि वो घर तो क्या है पर जबतक जिंदा हूँ मेरा आशियाना तो है। एक नौकरानी है पिछले सात साल से। वही मेरा खाना वगहरा...। चाय अच्छी बनाती है।” और उन्होने बिना मेरा उत्तर जाने एक कप में चाय ढालकर मुझे थमा दी।
“मिष्टर त्यागी, हो सकता है आप के साथ पी जाने वाली मेरी ये आखिरी चाय हो।” उन्होने एक सिप लेकर दार्शनिकों की तरह छत की ओर देखते हुए कहा।
“ऐसा क्यूँ कह रहे हैं सर?”
“कल मेरा औपरेशन है।” वे दोबारा बोलने लगे। “जानते हैं, ये मानव शरीर के सबसे नाजुक हिस्से की सर्जरी है। समझ रहे हैं ना। ब्रेन मिष्टर त्यागी ब्रेन। सिर्फ एक दिन की बात है। उसके बाद सब खत्म। चौबीस घंटे। हा हा हा। सुनिए त्यागी साहब। डॉक्टर कहते हैं कि आप के बीस परसेंट चांस हैं। अरे नहीं चाहिएं मुझे बीस परसेंट भी। चलिये, मैं आप को एक रहस्य की बात बताता हूँ। ये जो डॉक्टर है न। डॉक्टर श्रीमाली। मेरे सर्जन। मैंने उन्हे एक ऑफर दिया था।”
“ऑफर। भाल डॉक्टर को आप क्या ऑफर देंगे। वो तो पहले ही मोटी फीस लेकर...।”
“अरे आप समझे नहीं। मैंने डॉक्टर से कहा कि एनेस्थीसिया की हालत में ही मुझे मुक्ति दे और सर्जरी से पहले ही दो लाख का चैक...। मैंने इसके बदले दो लाख तक का औफ़र दिया मगर मेरी ओर देखकर मूर्खों की तरह हंसने लगा। पागल कहीं का।” कहकर उन्होने तकिये के नीचे से बाकायदा एक चैक निकालकर दिखाया।
“क्या बात करते हैं! ये तो अत्महत्या हुई।” मैं उस अजीब से आदमी को गौर से देख रहा था।
“अत्महत्या! अच्छा बताओ मिष्टर त्यागी, अत्महत्या क्या होती है। मेरा जीवन है ना। इसके सुख, दुख, तनाव, अकेलापन... सब मैं झेल रहा हूँ ना। तो सरकार और कानून कौन होते हैं मुझ से मेरे तनहा जीवन के बारे में पूछने वाले। आज मैं बीमार होकर हस्पताल में पड़ा हूँ। कल मर गया तो उठाकर मौर्चरी में फेंक दिया जाऊंगा। जब इस बात से दुनिया को, समाज को पुलिस को या कानून को कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कैसे जी रहा हूँ तो मैं कैसे मर रहा हूँ इस से भी किसी का कोई ताल्लुक नहीं होना चाहिए। अच्छा दोस्त, एक बात बताओ। सरकार के द्वारा परमिटिड शराब के ओवरडोज़ से मर जाऊँ तो दुर्घटना या मेरा ऐब। भूख से मर जाऊँ तो मेरा नसीब और अगर दुष्कर जीवन से मुक्ति पाने का प्रयास करूँ तो गुनाह। अच्छा... मैं अगर दर्द से तड़प रहा हूँ, वेदना के मारे दीवारों में सर मार रहा हूँ, सांस घुट रही है, एक एक पल कष्टदायक मौत की ओर बढ़ रहा हूँ, तब तक न सरकार बीच में आती है न कोई कानून। अब अगर मैं इस दर्द को, तड़प को और घुट घुट कर, तिल तिल मरने को समाप्त कर दूँ तो, हा हा हा। अब ये गैर कानूनी हो गया। क्या मज़ाक है यार। अच्छा… कर दिया मैने गुनाह। तोड़ दिया तुम्हारा कानून कि दफा फलां फलां के अंतर्गत मुजरिम ने गैरकानूनी कृत्य करते हुए अत्महत्या कर ली। तब क्या करोगे। मेरी लाश को फांसी पर लटकाओगे। रबिश। साले अंधे बहरे लोग कानून बनाने चले हैं।”
“आप... आप थक जाएंगे। थोड़ा आराम कर लीजिये।”
उन्होने एक लंबी सांस ली। फिर बोलना शुरू किया “वैसे मिष्टर त्यागी, मैं कोई बुरी जिंदगी भी नहीं जी रहा हूँ। मगर... अब हो गया ना यार। क्या है आगे। अक्षमता, बीमारियाँ और अकेलापन। अरे कहीं तो पूर्णविराम लगना ही है जिंदगी का भाई। तब ये मौत भी क्या बुरी है। एनेस्थीसिया की बेखुदी में जिंदगी से मुक्ति। ना पोस्ट्मार्टम की चीर फाड़, ना बिस्तर पर सड़ने की चिंता और ना पड़ौसियों के द्वारा घर से बदबू आने पर सड़ी हुई लाश निकालने की दुष्चिन्ता।”
उनके असामान्य व्यक्तित्व से अब मुझे उन से डर सा लगाने लगा था। मैंने तेजी से कहा “अब आप को आराम करना चाहिए सान्याल साहब। गुड नाइट।”
“मिष्टर त्यागी, आप मेरा एक काम करेंगे। मेरे तकिये के नीचे एक दो लाख का चैक पड़ा है। अगर मुझे कुछ हो गया तो इसे डॉक्टर श्रीमाली को भेंट कर दीजिएगा।”
“गुडनाइट” मैंने सामन्या से तेज आवाज में कहा और पर्दा खींच दिया।
रात के ग्यारह बजे थे। डॉक्टर्स आज की आखिरी विजिट पर थे। पहले सान्याल साहब की ओर से आवाज आई।
“हॅलो मिष्टर सान्याल। कैसे हैं। कल सुबह आप को नाश्ता...।”
“कल सुबह मुझे नाश्ता नहीं करना है। मेरी सर्जरी है। ये ब्रेन की सर्जरी है और मेरे बचाने के बीस पर्सेंट चांस हैं। पचास बार सुन चुका हूँ।”
“पर्सेंट तो हमने नहीं कहा मगर आप ऐसा क्यूँ सोचते हैं सान्याल साहब। आप बिलकुल ठीक होकर...।”
“मैंने कहा है आप से कि मुझे ठीक होकर घर जाना है? क्या दोगे मुझे ऑपरेशन थियेटर में। चंद और सांसें। कुछ और दिन जिंदगी के अकेलेपन को ढोने के। उपेक्षा और तिरस्कार के। हर दिन मौत के इंतजार के। नाव गैट लॉस्ट। नींद आ रही है डॉक्टर। कम से कम आज तो चैन से सोने दो।” कुछ क्षण डॉक्टर्स की टीम आनमनी से खड़ी रही। फिर मेरे केबिन की ओर बढ़ गए। पीछे से सान्याल ने आवाज दी “मेरा औफ़र याद है न डॉक्टर।” और डॉक्टर मुस्कराते हुए आगे बढ़ गए।
“मिष्टर त्यागी, कल आप की सर्जरी है।”
“जी डॉक्टर। क्या ये कोई क्रिटिकल सर्जरी है डॉक्टर।”
“ओ नो मिष्टर त्यागी। रीढ़ की हड्डी के पास खून का एक थक्का सा जाम गया है। पंद्रह मिनट। शायद आप दो दिन में ही घर जा सकेंगे। रिलेक्स एंड गुड नाइट।”
उसके बाद डॉक्टर की टीम कौशिक साहब के केबिन की ओर बढ़ गई।
“कल आप की सर्जरी होगी ये तो आप को सिस्टर ने बता ही दिया होगा। खाली पेट रहना होगा। सुबह नाश्ता वगहरा भी नहीं...।”
“जी वो सब तो ठीक है मगर ये कैसा ऑपरेशन है डॉक्टर। कितने दिन में ठीक होकर मैं...।”
“देखिये कौशिक साहब, सारी स्थिति से आप के घर वालों को अवगत करा दिया गया है। हम आप को किसी अंधेरे में नहीं रखना चाहते। ये एक साधारण गिल्टी भी हो सकती है। हो सकता है...।”
“क्या हो सकता है डॉक्टर। ये क्या हो सकता है?”
“सारी चीजें सर्जरी के बाद पता चलेंगी। हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।”
“ये क्या हो सकता है डॉक्टर। क्या ये कैंसर भी हो सकता है?”
“नहीं भी हो सकता है मिष्टर कौशिक। हो सकता है कि आप दो चार दिन में ही...। शरीर विज्ञान इतना जटिल है कि...।”
“मुझे बहकाने की कोशिश मत कीजिये डॉक्टर प्लीज़। अनपढ़ नहीं हूँ। मैंने जिंदगी भर गौरमैंट जॉब की है। मुझे जानने का हक है कि...। क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि मैं ठीक हो जाऊंगा।” उन्होने कुछ ऊंची और दर्द भरी आवाज में कहा।
“रिलैक्स मिस्टर कौशिक। मैडीकल साइंस ने बहुत तरक्की की है ना। उसके उपरांत हम मानव शरीर का बीस प्रतिशत भी नहीं जानते। मैंने लोगों को बंदूक की दस गोलियां खाकर भी बचते देखा है और एक थप्पड़ की चोट से मरते भी देखा है। हम पर विश्वास रखिए और विल पावर बनाए रखिए। हम कोई कसर उठा नहीं रखेंगे। गुड नाइट।”
डॉक्टर्स के जाने के बाद वार्ड में सन्नाटा सा छा गया। उनकी बातें सुनकर मैं भी भयभीत सा हो गया था। अब ये हस्पताल मुझे एक कत्लगाह सा नजर आने लगा था जहां से कोई भी जिंदा बचकर नहीं जाएगा। दिल भारी हो गया। तभी किसी की हिचकी और सुबकने का स्वर सुनाई दिया।
“कौशिक साहब। आप ठीक तो हैं ना।” किन्तु उधर से कोई उत्तर नहीं आया। मैंने पर्दा सरका दिया। कौशिक साहब आँखें पर हाथ धरे घुटे स्वर में बिलख रहे थे।
“मैं डॉक्टर को बुलाऊँ क्या। आप ठीक तो हैं।”
“नहीं त्यागी साहब। मैं ठीक हूँ। बस ऐसे ही सोच रहा था।” उन्होने सुबकी लेते हुए कहा।
“मेरी भी तो सर्जरी होनी है। हिम्मत रखिए। बहुत रात हो गई है। अब आप को आराम करना चाहिए।”
“आराम ही तो करना चाहता था भैया जी। पूरी जिंदगी यही सोचते हुए गुजर गई कि बच्चों की पढ़ायी के बाद आराम करूंगा। बेटी की शादी की शादी के बाद आराम करूंगा। मकान बनाने के बाद आराम करूंगा। बेटों के सैटल होने के बाद...। गधे की तरह गृहस्थी का बोझ ढोते ढोते एक दिन आराम की उम्मीद में जिंदगी गुजर गई। अब...। अब बच्चों की शादी, मकान, सब निपट गया था। प्रोविडेंट फंड और ग्रेचुएटी के अच्छे पैसे भी मिले। सोचा अब मस्ती से घूमेंगे फिरेंगे। आराम करेंगे। तो अब... अब डॉक्टर कहता है कि... (हिचकी) आप ठीक भी हो सकते हैं। कैंसर नहीं भी हो सकता है। नहीं भी हो सकता है। मतलब। अरे मतलब क्या है इस बात का। साफ साफ बताओ ना कि मैं बचूँगा या मरने वाला हूँ।”
“आप... आप हिम्मत रखिए। परमात्मा सब ठीक करेंगे।”
“परमात्मा! परमात्मा ने मुझे पढ़ाई से लगाकर आज तक कोल्हू के बैल की तरह जूटे रहने के लिए दिया था ये जीवन। जब तनिक सा आराम मांगा तो...। मैं... मैं जीना चाहता हूँ त्यागी साहब। अपने पसीने से बनाए मकान की बालकनी की गुनगुनी धूँप में बैठ कर बीवी के साथ बतियाते हुए चाय पीना चाहता हूँ। अपनी लाड़ली पोती के साथ खेलना चाहता हूँ। पहाड़ों की चोटियों से नीचे उतर आए बादलों के साथ अठखेलियाँ करना चाहता हूँ। दस से पाँच की जिंदगी से मुक्त होकर नदियों की कलकल और पंछियों की परवाज़ सुनना चाहता हूँ। दुनिया की सैर करना चाहता हूँ। मैंने... मैंने अपनी बेहद प्यार करने वाली पत्नी को चार धाम की यात्रा कराने का वादा किया है। क्या ईश्वर मुझे इतना अवसर भी नहीं देना चाहते।”
“जिंदगी में हारी बीमारी तो लगी ही रहती हैं। इसका मतलब ये थोड़े ही है कि आप इतने उद्वेलित हो जाएँ। भगवान पर भरोसा रखिए कौशिक साहब।”
“ये हारी बीमारी नहीं साक्षात मौत है त्यागी साहब। मुझे डौक्टर्स के नश्तरों की लहूलुहान मौत से पहले ही क्यूँ नहीं उठा लेता भगवान...।” उन्होने सामान्य से ऊंची आवाज में कहा।
उनकी बिगड़ती मानसिक स्थिति देखकर मैंने चुपचाप सहायता की घंटी का बटन दबा दिया। नर्स आई और उन्हे एक नींद का इंजेक्शन देकर चली गई।
आँखों पर खिड़की से झांक रही सुबह की पीली धूंप के एक टुकड़े की चमक पड़ने से मेरी तंद्रा भंग हुई। ओह अगले दिन की सुबह। बेहद कमजोरी का अनुभव हो रहा था। देर तक ऐसे ही शिथिल पड़ा रहा। बोतल से टपकती ग्लूकोज़ की बूंदों के नसों में प्रवाह का अनुभव करता रहा। अर्ध चेतना में पास वाले केबिन से आवाज आई “नाश्ता लायी है साब।”
“रख दो। और घर की सफाई वगहरा...। मैं... मैं तो जिंदा हूँ शायद।” सान्याल ने कमजोर स्वर में कहा।
मेरे मन में पड़ौसियों के हाल जानने की उत्सुकता पैदा हुई।
“आप ठीक हैं सान्याल साहब। अच्छा लगा कि ईश्वर ने आप को...।” मैंने क्षीण स्वर में पूछा।”
“ओह मिष्टर त्यागी। आप का सब ठीक से निपट गया ना। गुड। ईश्वर को मैं नहीं मानता मगर... डॉक्टर श्रीमाली ने मुझे धोखा दिया। बेकार बचा लिया यार। मैंने सर्जरी से पहले उसे बता दिया था कि तकिये के नीचे दो लाख का चैक...।”
इस हालत में भी मेरी हंसी छूट गई। अगले दो घंटे मैं आँखें मूँदे पड़ा रहा। तभी दायीं तरफ के केबिन से कुछ खटर पटर के स्वर सुनाई दिये। मेरी उत्सुकता कौशिक साहब का हाल जानने की हुई तो मैंने उधर का पर्दा सरका दिया।
एक सूजी सी आँखों वाला नौजवान आंखे पौंछते हुए कौशिक साहब का सामान समेट रहा था।
“कौशिक साहब ठीक तो है?” मैंने पूछा।
“पापा नहीं रहे अंकल।” उसने सुबकते हुए कहा।
“हे भगवान।” बस इतना ही निकल पाया मेरे मुंह से।
रवीन्द्र कान्त त्यागी