और वह नहीं गई - शिव कुमारी शुक्ला
0

और वह नहीं गई - शिव कुमारी शुक्ला

उसके पत्रकी प्रतीक्षा में धन्नो ने

लम्बे -लम्बे एक,दो,तीन नहीं पूरे चार साल बिता दिए, किन्तु उसका पत्र नहीं आया।राह देखते -देखते उसकी आंखें पथरा गईं ना जग्गू आया ना उसका पत्र। जैसे वहां के वातावरण में जा देशप्रेम की धुन में वह अपने परिवार को ही भूल गया था। बूढ़ी मां और बूढ़ी हो गई पत्र की प्रतीक्षा में किन्तु पत्र ना आया।

किशन पांच बर्ष का हो गया था अब वह भी अपने पिता के लौटने का इंतजार करने लगा था।तभी एक दिन कुएं से पानी भरकर लौटते समय पोस्टमेन ने धन्नो के हाथ में तार का लिफाफा पकड़ा दिया।वह तेज कदमों से घर लौटी थी मां जी तार आया है जल्दी से इसे मास्टर जी से पढ़वा

लें उसने घर पहुंचते ही अपनी सास से कहा था।

मां- जाती हूं कहकर दौड़ती हुई मास्टर जी के यहां पहुंची थी।किशन भी दादी के साथ गया था और धन्नो उनके लौटने के इंतजार में सांस रोके खड़ी थी।उसका दिल कभी जग्गू के लौटने की खबर सोच हर्षीत हो उठता और कभी रह-रह कर आशंकाओं से भर जाता था।वह इसी उधेड़बुन में खड़ी थी कि किशन रोते हुए आकर उससे लिपट गया और उसके बोलने से पहले ही वह चीख उठी थी।उसका सुख , सुहाग, जीवन सब कुछ लुट चुका था वह भी विवाह के केवल छः बर्ष बाद। उसके अरमानों की ज्वाला शांत भी ना हुई थी।

उसके हाथों की मेहंदी हल्की भी ना पड़ी थी, मांग के सिन्दूर की चमक फीकी भी नहीं हुई थी कि विधाता ने उसकी खुशियों को छीन लिया। अभी तो उसके सजने-संवरने का चाव कम भी नहीं हुआ था कि विधवा का स्वरूप मिल गया।

धन्नो ने लम्बी -लम्बी रातें और उदास दिन किशन को छाती से चिपका कर रोते -रोते काट दीं। बूढ़ी मां जवान बेटे की मौत का आघात सहन ना सकी और देर-सवेर वह भी चल बसीं थीं और संसार में धन्नो थी और बेटा किशन।

किशन को देख वह जी रही थी। धीरे -धीरे किशन बड़ा हुआ। धन्नो के घर फिर एक बार शहनाई गूंज उठी उसके किशन का ब्याह जो था।पर जग्गू कहां***सोच के उसके आंसू उमड़ रहे थे किन्तु बेटे के अमंगल की बात सोच उन्हें चुपचाप पी रही थी।उसका सूना घर बहू की पायल की झंकार, चूड़ियों की मधुर खनखनाहट से भर गया।

किशन और झुमकु को देख वह अपने सारे घाव विस्मृत करने लगी। और फिर बिशन, किशन के बेटे को पा वह अपने आपको भाग्यशाली समझने लगी। उसकी सूखती वंश बेल हरिया जो गई थी। दिन सुख चैन से कट रहे थे,बिशन श्नै-श्नै साल भर कर हो गया था। तभी एक दिन किशन ने कहा मां अपने देश पर चीनीयों ने आक्रमण कर दिया है मैं सेना में भर्ती हो गया हूं।

यह सुन धन्नो कुछ क्षण को तो सकते में आ गई फिर अपने आपको सम्हालते हुए बोली बेटा तू मेरे घावों को क्यों हरे कर रहा है। मैं तुझे नहीं जाने दूंगी, तेरे पिता गये थे वह लौटकर नहीं आए और अब तू ** **आगे के शब्द नहीं निकले वह चुप हो गई।। मैं एक बाहदुर बाप का बहादुर बेटा हूं, क्या मौत के डर से घर में छिपकर बैठ जाऊं किशन ने उसे चुप देख उत्तर दिया।

तू मेरे बुढ़ापे का सहारा है।झुमकु के जीवन और बिशन के अरमानों का खैवेया है यदि तुझे कुछ हो गया तो****धन्नो की आंखों से आंसू उमड़ पड़े।

किशन ने दृढ़ता से कहा मां तुम भी कैसी कायरों जैसी बातें करती हो। तुम एक वीर सिपाही की पत्नी हो जिसने हंसते -हंसते देश के लिए प्राण गंवाए। मां तुम एक बाहदुर बेटे की मां हो जो खुशी -खुशी देश सेवा के लिए जा रहा है। जिसके दिल में भारत मां के लिए दर्द है और तुम उसे परिवार के बंधन में बांध कर रखना चाहती हो।

झुमकु भी वहीं खड़ी थी। धन्नो और किशन की नजरें एक साथ उस पर पड़ीं।झुमकु उसी क्षण बोल पड़ी मां पारिवारिक प्रेम से देशप्रेम कहीं अधिक ऊंचा है। मां परिवार से, मुझसे, तुमसे बढ़कर देश है। मां से पहले भारत मां है। मुझसे पहले उसकी आजादी का सवाल है। उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। मां तुम मेरे सुहाग के लिए अपने पुत्र के जीवन के लिए चिंतित हो पर तुम स्वार्थी हो कर भारत मां की आजादी को,उन अनगिनत पत्नियों के सुहाग को,उन अनगिनत बहनों के भाईयों को, उन अनगिनत बच्चों के पिताओं को और उन अनगिनत माताओं के लालों को भूल गईं। जिन मां, बहनों, पत्नियों, और बच्चों ने जिन्हें हंसते -हंसते विदा किया है। मां पूरा देश अपना परिवार है,जब वह आजाद रहेगा, सुखी रहेगा, तभी हम सुखी रह सकते हैं।

मां तुम्हारी आंखों में ख़ुशी के आंसू होने थे। खुशी-खुशी इन्हें जाने की आज्ञा दो , मां।

यह झुमकु का देशप्रेम बोल रहा था। उसके हृदय में देशप्रेम की छाप बचपन से ही जब वह तीसरे चौथे दर्जे में पढ़ती थी तभी अनेक देशप्रेम से भरी हुई कहानियों को पढ़ने से पड़ चुकी थी। उसने वीर लक्ष्मी बाई की कहानी पढी थी, तो फ्रांस की बहादुर लड़की जॉन की कुर्बानी की कहानी भी सुनी थी। गोखले लाल,बाल, पाल का इतिहास भी सुना था।इसी विद्रोही रूप में उसकी किशन को देखने की इच्छा थी। देशप्रेम में मतवाली अपने सुख को तुच्छ समझती थी।किशन, झुमकु

की इस दृढ़ता को देख अचंभित रह गया।वह उसके सहास के आगे अपने सहास के मूल्य को ना समझ सका किन्तु अब उसमें दुगुना बल आ गया था उसकी आंखें जोश से चमक उठीं।झुमकु उसकी प्रेरणा का स्त्रोत उसकी इस नई उमंग, उत्साह और सहास को देखकर पुलकित हो उठी।

किशन नये जोश से बोला -मां यह झुमकु तुम्हारी सेवा करेगी और यदि मैं वापस ना आऊं तो झुमकु यह बिशन तुम्हारे पास है।मेरा बेटा मेरी प्यार की निशानी।झुमकु के हर्षातिरेक नेत्रों में हर्ष के आंसू झिलमिला उठे।

दूसरे दिन प्रातः की बेला में झुमकु ने अत्यंत उत्साह के साथ किशन की आरती उतारी तिलक लगाकर विदा करते हुए कहा देखो देश की लाज तुम्हारे हाथ है पीठ ना दिखाना।

किशन ने अपनी मां के चरण स्पर्श कर पुत्र के सिर पर प्यार से हाथ फेर एक क्षण झुमकु की ओर देखा था। एक पल निहार वह चल दिया था।झुमकु देखती रही थी***देखती रही थी जब तक किशन आंखों से ओझल नहीं हो गया था।

मांजी को उसी प्रकार बैठी देखकर झुमकु ने फिर कहा मां जी जाओ तार मास्टर जी से पढ़वा लाओ, कहते -कहते उसके भी ओंठ कांप गये इस बार।उसको भी किशन की विदाई वाले पल स्मरण हो आये।

मां जी जाकर मास्टरजी से पढ़वा लीजिए ना पुनः बोली क्या लिखा है शायद उनके आने की खबर हो।

लेकिन मां जी नहीं उठीं। उन्होंने तार को कसकर मुट्ठी में भींच रखा था। आखिर झुमकु ने उन्हें झकझोरा मां जी। मां जी आज आप इतनी कठोरऔर निष्ठुर क्यों बन रहीं हैं।आप अपने बेटे के तार को लेकर क्यों नहीं जा रहीं मास्टर जी के पास शायद उनके आने की सूचना हो। आपके बेटे की वापसी की खबर।

धन्नो के होंठ नहीं हिल रहे थे। आशंका से उसका मन भारी हो रहा था।वह झुमकु को कैसे समझाए कि उसमें किशन के आने की नहीं बल्कि उसके जाने की खबर है। जग्गू की तरह वह जंग में जीवन हार गया।

झुमकु धन्नो का यह अप्रत्याशित व्यवहार नहीं समझ सकी। उनके हाथ से तार लेकर उसने कहा यदि आप नहीं जा सकतीं तो मैं जाऊंगी मास्टर जी के पास तार पढ़वाने।

धन्नो ने उसके हाथ से लिफाफा झपट्टे से छीन लिया और हाथ में पकड़ कर फिर बेसुध सी बैठ पथराई आंखों से कभी झुमकु को देखती कभी बिशन को क्योंकि उसे पता था उसमें किशन की मौत का समाचार है जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकती।

मांजी जाइए ना। नहीं मैं नहीं जा सकती झुमकु , मेरे में हिम्मत नहीं है जो लिखा है उसे सुनने की। उसके हाथ में लिफाफा था और आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे।

यह उनकी स्मृति की किताब का आखिरी सबसे मनहूस पन्ना था। आखिर जग्गू की तरह किशन भी उनका साथ छोड़ गया।

वह मूर्तिवत बैठीं थीं।झुमकु ने फिर उन्हें हिलाया मां जी जाओ ना।

और वह नहीं गई ***उसके प्राण पखेरू उड़ कर अपने किशन के पास पहूंच चुके थे।

शिव कुमारी शुक्ला

15-12-65

स्वरचित एवं अप्रकाशित

जोधपुर राजस्थान

दोस्तों यह कहानी मैंने सन1965 में कॉलेज मैगजीन के लिए लिखी थी उस वक्त मैं B Sc Final की छात्रा थी।उस समय देश में युद्ध का माहौल था।बांसठ का चीन युद्ध,पैंसठ का पाकिस्तान युद्ध।उसी वातावरण से प्रेरित हो मैंने इस कहानी का ताना -बाना बुना था।यह कहानी दो पीढ़ियों की भावनाओं को दर्शाती, अत्यंत मार्मिक, मौत के डर से एक मां, पत्नी का मनोवैज्ञानिक भय, दूसरी पीढ़ी की देशप्रेम से ओत-प्रोत भावनाओं का चित्रण करने का एक लघु प्रयास था। इसमें उस समय के सामाजिक परिवेश से जुड़े वातावरण को ही आधार बनाया था जो आज बहुत भिन्न है। नईपीढ़ी के लोग तो शायद उस समय के वातावरण की कल्पना भी नहीं कर सकें क्योंकि वह उन्होंने ना देखा ना सुना।बड़ी ही गरीबी,दुख लोगों के जीवन में होते थे। अशिक्षा, संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। आजादी तो मिल गई थी किन्तु सामाजिक परिस्थितियां बदलने में समय लग रहा था। अनपढ़ होते थे तार अंग्रेजी में आता था उसे पढ़वाने के लिए भी गांव में किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास जाना पड़ता था।बड़ी ही लाचारी एवं वैचारिगी पूर्ण जीवन यापन होता था।

आशा है उस परिवेश को समझते हुए कहानी पढ़ेंगे तो शायद आपको पसंद आए और आप कहानी का आंनद ले सकेंगे।


S

Shiv Kumari Shukla

0 फॉलोअर्स

8 मिनट

पढ़ने का समय

0

लोगों ने पढ़ा

You May Also Like