असमर्थ -  के आर अमित
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असमर्थ - के आर अमित

रात के दस बज चुके थे। चूल्हे की आख़िरी आँच धीमी पड़ चुकी थी। मिट्टी की दीवारों पर झिलमिलाती दीये की लौ के साथ एक आदमी लकड़ी की चारपाई पर बैठा था सिर झुका हुआ आँखों में नमी और सामने एक पुरानी स्कूल की कॉपी रखी थी। उसका नाम था रामनारायण गाँव के स्कूल में कभी चौकीदारी करते करते अब रिटायरमेंट मिलने के बाद बूढ़ा हो चुका था साथ मे बीमार के कारण कमर झुकी हुई पर दिल में एक ही उम्मीद थी उसका बेटा बड़ा होकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाए । उसका बेटा सुरेश गाँव का सबसे होनहार लड़का था। दसवीं में पूरे ज़िले में दूसरा स्थान लाया था। गाँव वाले कहते रामनारायण का बेटा शहर जाएगा अफसर बनेगा ये बातें सुनकर रामनारायण का दिल गर्व से जितना फूलता उतना ही भीतर एक फिक्र रहती की आखिर शहर भेजूंगा कैसे इतने पैसे तो हैं नही।

रामनारायण के घर में कुल चार मेम्बर थे वह उसकी पत्नी शांता बेटा सुरेश और छोटी बेटी गुड़िया। खेती की दो बीघा ज़मीन थी मगर बरसात के भरोसे। कभी फसल ठीक कभी सूखा। महीने के आखिर तक राशन की थैली खाली हो जाती।फिर भी जब सुरेश पढ़ता उसके पिता को लगता जैसे भगवान ने उनकी झोपड़ी में उजाला भेज दिया हो।सुरेश ने एक दिन कहा था।बाबूजी मास्टरजी कह रहे थे अगर मैं शहर में जाकर पढ़ूँ तो बहुत कुव्ह कर सकता हूँ।रामनारायण ने उसकी चमकती आँखों की ओर देखा कुछ देर चुप रहा। फिर बोला बेटा पढ़ना ज़रूर मगर फिलहाल गाँव में ही।उसकी आवाज़ में जो मजबूरी थी उसे सुरेश ने समझा नहीं, लेकिन शांता ने समझ लिया था। रात को उसने धीरे से कहा क्यों नहीं भेज देते उसे लड़का तेज़ है। रामनारायण ने सिर्फ़ इतना कहानतेज़ है पर बाप असमर्थ है शांता

अगले महीने सुरेश का कॉलेज में एडमिशन लेटर आया। कुल फीस तीन हज़ार रुपये। गाँव के आदमी के लिए यह रकम जैसे आसमान से तारे तोड़ने जैसी थी।

रामनारायण ने गाँव में सबके घर दस्तक दी। भइया, ज़रा दो हज़ार उधार दे दो लड़के का एडमिशन करवाना है। सबसे मांगे कोई बोला अरे रामू पहले का कर्जा ही कब चुकाया कोई मुस्करा दिया लड़का पढ़के अफसर बनेगा तब देखेंगे। हर जगह ताने हर जगह दरवाज़े बंद।आख़िर में उसने अपनी एकमात्र भैंस बेच दी वही जो उसके परिवार का दूध और गुज़ारा दोनों चलाती थी।फीस भर दी। सुरेश शहर चला गया सपनों के साथ उम्मीदों के साथ और पीछे छोड़ गया एक बाप जो पहली बार असमर्थ होकर भी खुश था।

सुरेश हर हफ्ते चिट्ठी लिखता बाबूजी यहाँ बहुत बड़ा कॉलेज है। पढ़ाई कठिन है पर मैं लगन से कर रहा हूँ।

रामनारायण हर बार उस चिट्ठी को पूजा की तरह माथे से लगाता। फिर चूल्हे के पास बैठकर शांता से कहता

देखा हमारा बेटा हमसे आगे जाएगा।लेकिन धीरे-धीरे सुरेश की चिट्ठियाँ कम होने लगीं। कभी लिखा पैसे की ज़रूरत है किताबों के लिए। कभी रूम का किराया बढ़ गया है। रामनारायण हर बार किसी न किसी से उधार लेकर भेज देता।

एक दिन वह खेत में काम कर रहा था तभी डाकिया आया।रामू तेरे बेटे की चिट्ठी।काँपते हाथों से खोला बाबूजी अब कॉलेज में आख़िरी साल है। अगर इस बार फीस नहीं भरी तो परीक्षा नहीं दे पाऊँगा। पाँच हज़ार रुपये चाहिए।चिट्ठी पढ़ते ही रामनारायण की आँखों के आगे अंधेरा छा गया।भैंस पहले ही बिक चुकी थी।

खेत गिरवी थे।अब क्या बेचे क्या करे उस रात वह बहुत देर तक जागता रहा। चारपाई पर करवटें बदलता, सोचता रहा क्या मैं बुरा बाप हूँ क्या मैं अपना फर्ज नही निभा पा रहा हूं ? क्यों नहीं जुटा पाता वो पाँच हज़ार

सुबह-सुबह उसने अपनी पुरानी साइकिल उठाई और बाज़ार की ओर निकल पड़ा।

वहाँ एक सुनार की दुकान पर जाकर बोला

भाई ये अंगूठी बेचनी है सुनार ने देखा पुरानी चांदी की है कोई खास कीमत नहीं। दे दूँ डेढ़ हजार रुपये।

रामनारायण ने चुपचाप पैसे लिए, सिर झुकाकर चला गया।पैसे कम थे, मगर उसने फिर भी डाकघर जाकर मनीऑर्डर भर दिया

साथ में एक चिट्ठी बेटा थोड़ा सब्र कर। बाप असमर्थ है, पर कोशिश कर रहा है। हिम्मत मत हारना।

सुरेश ने आखिरकार पढ़ाई पूरी की। उसने कोई सरकारी नौकरी नहीं पाई लेकिन शहर में एक प्राइवेट कंपनी में लग गया। पहली तनख्वाह आई तीन हजार रुपये। उसने सोचा अब बाबूजी को भेज दूँ। पर फिर दोस्तों ने कहा पहले खुद के लिए कुछ ले ले फिर भेज देना। वह टालता गया। एक महीना दो महीने फिर साल गुजर गया। गाँव में रामनारायण की तबीयत बिगड़ती चली गई। खेत अब बंजर हो गए थे गुड़िया की शादी की चिंता अलग। शांता कहती

सुरेश को लिख दो वो आएगा। रामनारायण मुस्कराता

नहीं रे बेटा अब बड़ा आदमी बन गया होगा, उसे परेशान मत कर।एक दिन गाँव के पोस्टमैन ने एक चिट्ठी दी बाबूजी, अब मैं कंपनी में बड़ा पद पा गया हूँ। जल्दी ही शहर में अपना घर ले लूँगा। आपको भी ले आऊँगा। बस थोड़ा इंतज़ार कीजिए। रामनारायण ने उसे बार-बार पढ़ा आँखों से आँसू बहते रहे पर किस्मत को कुछ और मंज़ूर था। कुछ ही महीनों बाद एक सर्द रात रामनारायण का दम टूट गया। मृत्यु से ठीक पहले उसने शांता से कहा जब सुरेश आए कहन बाप असमर्थ था, पर बुरा नहीं।

तीन महीने बाद जब सुरेश गाँव पहुँचा, तो घर की चौखट पर सूनेपन की एक चुप्पी थी दीवार पर पिता की तस्वीर लगी थी माला पहने हुए।सुरेश जैसे पत्थर बन गया। माँ ने बस इतना कहा तेरी आख़िरी चिट्ठी पढ़कर ही वो चला गया था। सुरेश ने वो पुरानी कॉपी उठाई जिसमें उसके पिता के हाथों से लिखी नोट्सहिसाब किताब और कुछ अधूरे सपने दर्ज थे अंदर एक कागज़ था बेटा सुरेश की फीस 1500 भेजे। बाकी का इंतज़ाम होगा। भगवान से यही माँग है कि वो कभी खुद को असमर्थ महसूस न करे।सुरेश फूट-फूटकर रो पड़ा।

उसे याद आया वो दिन जब उसने पहली बार कहा था बाबूजी, मुझे शहर जाना है। और आज, जब उसने सब पा लिया था, उसके पास वो नहीं था जिसने सबसे पहले उस पर भरोसा किया था

सुरेश अब हर महीने गाँव आता है। उस छोटे से खेत में एक आम का पेड़ लगाया है वहीं जहाँ उसके बाप ने भैंस बेची थी।वो पेड़ उसके लिए सिर्फ़ एक पेड़ नहीं, उसके बाप की असमर्थता का जीवित प्रतीक है जो बोलता नहीं पर हर हवा के झोंके में जैसे कहता है बेटा असमर्थ वो नहीं जो कुछ कर नहीं सकता

असमर्थ वो है जो चाहकर भी अपने दिल की आवाज़ दिल तक न पहुँचा पाए। यह कहानी सिर्फ़ एक बाप की गरीबी की नहीं बल्कि उस “असमर्थता” की है जो हर पिता अपने बच्चों के सपनों को पूरा न कर पाने पर महसूस करता है। वो चुप रहता है, झुक जाता है, पर भीतर से टूट जाता है। कभी-कभी सबसे बड़ा दर्द वही होता है जब एक बाप अपने ही बेटे की उड़ान को देखता है।

के आर अमित

अम्ब ऊना हिमाचल प्रदेश


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Amit Ratta

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