आदर का क्षण… - रश्मि झा मिश्रा
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आदर का क्षण… - रश्मि झा मिश्रा

.…सारे काम खत्म कर महेश फिर प्रिंसिपल के दरवाजे के पास खड़ा हो गया… "सर… सर…!"

" महेश… आ जाओ… बोलो क्या बात है… क्यों एक ही बात पर अड़े हो…!"

" सर… आप अगर चाहेंगे तो सब हो जाएगा… प्लीज सर… नहीं तो मुझे यह नौकरी भी छोड़नी पड़ जाएगी…!"

" महेश एक तो तुम्हें वैसे ही एक कमरा स्कूल में दिया हुआ है… रहना… खाना… दिन भर यहीं तो पड़े रहते हो.… अब कितना उपकार करूं मैं…!"

" सर मेरे बेटे को यहां एडमिशन दे दीजिए… वह भी मेरी तरह चुपचाप यहीं उसी कमरे में पड़ा रहेगा…!"

"अरे वह तो ठीक है… पर स्कूल की फीस पता है ना तुम्हें.…!"

" सर स्कूल स्टाफ के एक बच्चे को तो मुफ्त शिक्षा है ना… मैं भी तो पिछले 10 सालों से यहां काम कर रहा हूं… मेरा तो एक ही बेटा है… रख लीजिए ना सर स्कूल में……!"

पिछले 15 दिनों से महेश रोज यही अर्जी लेकर प्रिंसिपल दयाल सर के आसपास मंडरा रहा था.…

महेश स्कूल में चपरासी का काम करता था… उसकी पत्नी गांव में बेटे तिलक को लेकर रहती थी.… थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी थी… उसकी देखरेख भी करती थी…

महीने भर पहले तक सब ठीक था… गांव में महेश का बेटा सरकारी स्कूल में पढ़ रहा था… 8 साल का लड़का अभी चौथी में था… लेकिन तिलक की मां पिछले महीने खेतों में काम करते हुए सांप काटने से मर गई…

अब महेश अकेले लड़के को कहां छोड़ता… चाहे तो उसे अपने साथ रखता या फिर नौकरी छोड़कर गांव चला जाता… इसलिए वह जी जान से दयाल सर के पीछे पड़ा हुआ था… आखिर दयाल सर मान गए…

तिलक को भी उसी स्कूल में दाखिला मिल गया… लेकिन हिदायत के साथ की अपनी औकात ना भूले… दूसरे बच्चे खास कर दयाल सर का छोटा बेटा भी चौथी में ही पढ़ रहा था… उससे दूर रहे…

तिलक डरता सहमता उस 6 × 6 के कमरे में पिता के साथ रहने आ गया… यहां गांव की लंबी चौड़ी अंतहीन सीमाएं नहीं थी… खुला आकाश तो था लेकिन उसमें घूमने की आजादी नहीं थी…

तिलक कुछ दिन तक तो डर से कमरे से निकलता भी नहीं था… स्कूल के ही एक कोने में बने उस छोटे से कमरे में उसकी जिंदगी सिमटी रहती थी… महेश सुबह-सुबह कुछ बनाकर चला जाता और दिनभर सबके कामों में लगा रहता…तिलक चुपचाप कमरे में पड़े ढाई फीट के बिस्तर पर पड़ा रहता…

धीरे-धीरे वह स्कूल की अपनी कक्षा जाने लगा… दूसरे बच्चों से मिलने लगा… लेकिन उसे अपने पापा की नसीहत हमेशा याद रहती थी कि यह सभी अमीरों के बच्चे हैं… उनसे दूर ही रहना… हमारे उनके बीच कभी समानता नहीं हो सकती… साथ के बच्चे अक्सर उसका मजाक भी उड़ाते थे निरादर भी करते थे… लेकिन वह चुपचाप सब सह लेता…

वह दब्बू लड़का पढ़ने में होशियार निकला… पहले कुछ सालों तक तो कक्षा में अपनी पहचान बनाने में लगा रहा… बाद में दसवीं तक आते-आते वह कक्षा के मेधावी छात्रों में शुमार हो गया…

12वीं की परीक्षा में कहीं वह दयाल सर के बेटे से आगे ना निकल जाए… इसलिए सर ने इंटरनल में उसके नंबर कम करवा दिए… दयाल सर का अंदाजा बिल्कुल सही था… तिलक ही सही मायने में स्कूल टॉपर होता… मगर उसके नंबर कम करवा देने के कारण वह पीछे रह गया…

मंच पर कोने में महेश थाली में मेडल लिए खड़ा था… दयाल सर का सर अपने बेटे को मेडल पहनाते समय शर्म से झुक गया… वे अब पछता रहे थे… मगर तिलक ने कभी कोई विरोध नहीं किया, और ना ही महेश ने… दोनों ही दयाल सर के पहले किए गए उपकारों को भूले नहीं थे…

कुछ ही महीनों बाद आई आई टी का रिजल्ट आया… तिलक क्वालीफाई हो गया था… उसकी कक्षा से वह इकलौता बच्चा था, जिसने यह परीक्षा पास की थी…

फाइनल में भी बेहतरीन अंकों के साथ, तिलक आईआईटी में स्थान बनाने में सफल रहा…

अपनी जड़ता से बाहर निकल कर दयाल सर ने पहली बार दिल खोलकर तिलक का सम्मान किया… अपने हाथों से उसके माथे पर विजय तिलक लगाया… साथ ही उसके आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल प्रशासन की तरफ से पूरा सहयोग देने का आश्वासन भी दिया…

बचपन से आज तक किए गए सभी निरादरों को धो गया यह आदर का क्षण… तिलक के माथे पर चमकते तिलक के साथ…


रश्मि झा मिश्रा

निरादर


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Rashmi Jha Mishra

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