सोने के पिंजरे से ज़्यादा आत्मस्वाभिमान की टूटी-फूटी झोपड़ी कहीं ज़्यादा अच्छी होती हैं। – संध्या सिन्हा : Moral Stories in Hindi

अचानक से नींद खुली तो देखा सुबह के पाँच बज रहे थे…फ़ोन चार्जिंग के लिए उठाया तो एक मेसेज और कई मिस कॉल दिखी…अरे! ये तो मेरी सहेली गीता की बेटी की कॉल और मेसेज था, मेसेज पढ़ा तो.. दिल को धक्का लगा कि.. गीता के पति नहीं रहे, कल रात में सीने में अचानक दर्द उठा … हॉस्पिटल ले जाते समय रास्ते में उनका निधन हो गया।

कोरोना के बाद से जिसको देखो.. हार्ट-अटैक ही आ रहा और तुरंत डेथ हो जा रही.. हो सकता है मेरा भ्रम ही हों, पर अधिकतर यही सुन रहे ।

उसका हर मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही तो हैं।नित्य ही आना-जाना होता रहा।

धीरे-धीरे कई महीने बीत गए.. आज गीता का फ़ोन आया कि… वह बेटे के साथ मुंबई जा रही और हो सकता है… वही शिफ्ट हो जाये और यहाँ का घर बेच दे…बच्चों की यही राय है कि… अब अकेली क्या करोगी यहाँ रह कर…

सुन कर अच्छा नहीं लगा, सच है कि… पति के बाद बच्चे ही आख़िरी सहारा होते है पर… क्या यह सही हैं??? अपने हाथ-पैर सही सलामत हो तो क्यों किसी पर आश्रित होना??? पति के जाने के बाद..घर और पेंशन ही सच्चा सहारा होता है… ये मेरा अनुभव कहता हैं और मैं अपना यह अनुभव गीता को बताना चाहती हूँ

और उसे दुनिया की इस नयी रीत से अवगत करा समझाना चाहती हूँ और मैं नहीं चाहती थी कि.. जो हम पर बीती वो उस पर बीते.. पर कैसे कहूँ और कैसे समझाऊँ?? कि.. # सोने के पिंजरे  से ज़्यादा आत्मस्वाभिमान की टूटी-फूटी झोपड़ी कहीं ज़्यादा अच्छी होती हैं।

समाज में पैसे को इतना महिमा-मंडित किया गया है, कि इस दुनिया में पैसे से बढ़कर कुछ है ही नहीं ! आजकल बच्चे पैसे कमाने की दौड़ में इस कदर व्यस्त हैं कि… उनके पास आपके लिये समय नहीं हैं… महल नुमा फ्लैट में सारी सुख-सुविधाये तो हैं पर… साथ नहीं।

                                       इस बात का अहसास तब हुआ जब पति के आकस्मिक देहांत  के बाद मैं बच्चों के साथ ही दिल्ली महानगर में रहने लगी, बेटा सुबह ७बजे निकल जाता और रात के ८-९ बजे वापस आता। इतने बड़े सरकारी आवास में कुछ घरेलू नौकर और मैं रहती।

कुछ महीनों बाद बहू भी आ गयी लगा चलो एक से दो भले… लेकिन वो भी  नौकरी करने वाली… आजकल यह चलन हो गया कि… औरते पढ़-लिख कर घर में नहीं रहना चाहती।  ज़रूरत हो या ना हो नौकरी करनी हैं… शायद बढ़ती बेरोज़गारी का ये भी एक बड़ा कारण हैं।७०% महिलायें नौकरी इसीलिए ही करती है कि…

घर में काम ना करना पड़े। आजकल प्रचलन हो गया कि… घर के घरेलू काम-काज काम-वाली बाई करेंगी… वो बाई भी अपना बच्चा घर में छोड़… इन बड़े लोगों के बच्चे पालने आती हैं… चंद पैसों की ख़ातिर।

मुझे भी सारी सुख-सुविधा उपलब्ध थी, पर दिल ख़ुश नहीं था।कहाँ अपना इलाहाबाद… वाला घर… छत पर रखे पचासों गमले…और नाना-प्रकार के पौधे में पानी डालना, गुड़ाई करना..सर्दियों में धूप में बैठ कर स्वेटर बीनना, अग़ल-बग़ल पड़ोसियों संग हंसी-ठिठोली करना… अचार-बाड़ियाँ बनाना…एक-दूसरे के साथ बैठ कर नयी-नयी डिशें बनाना-खिलाना…कब सुबह से शाम हो जाती… पता ही नहीं चलता। और यहाँ… शाम-रात तक बच्चों का इंतज़ार।

         कुछ दिन तो अच्छे से चला, पर कहते है ना… “हर रिश्ता गिव एंड टेक पर टिका हैं यानि एक हाथ से दो और दूजे हाथ से लो।” यह बात समय रहते समझ ना आयी, समझ आयी जब तब तक समय ही निकल गया।

जन्म दिया है तो पालन-पोषण और आत्मनिर्भर बनाना फ़र्ज़ था मेरा … सो किया…उनका शायद कोई फ़र्ज़ ना था… उन्होंने जो किया वो अहसान किया मुझ पर…

तभी अचानक एक दिन मुझे चक्कर आया तो पता चला कि.. मुझे ब्लड-कैंसर हैं, जिसका इलाज बहुत महँगा हैं। आज कल तो ऐसा माहौल बनाया गया है, कि इंसान का वजूद उसके रिश्ते-नाते सब कुछ पैसे  और शारीरिक श्रम से ही तय होता है ! अगर हमारे पास पैसा  और  जाँगर नहीं है — तो मानो कुछ भी नहीं है !

    बच्चों को माँ नहीं… केयर-टेकर चाहिए था… जो अब अस्वस्थ रहने से नहीं हो पा रहा था। 

    

अब बस—-

“अब मैं भी गुब्बारों की तरह मुक्त गगन में उड़ना चाहती थी जो चाहकर भी नहीं कर पाई।तुम्हारी परवरिश की जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने ऐसा जकड़ रखा था।”

#सोने के पिंजरे से ज़्यादा आत्मस्वाभिमान की टूटी-फूटी झोपड़ी कहीं ज़्यादा अच्छी होती हैं।  सो लौट आयी “अपने घर”, जो बाक़ी बची ज़िंदगी हैं.. उन्मुक्त हो जी भर जीना चाहती हूँ ।

संध्या सिन्हा

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