संध्या बेटा.. अभी थोड़ी देर तुम कमरे में ही रहना तेरी भाभी देहरी पूज कर अपने भाई के साथ भाई की शादी में जा रही है मैं नहीं चाहती उस समय तुम सामने आओ, तुम्हें तो पता है ना ऐसे शुभ मौके पर तुम्हारा आना अब उचित नहीं है हालांकि यह बात कहते हुए मां का दिल बहुत छलनी हो रहा था पर मां थोड़े पुराने विचारों की भी थी और और उन्हें लगता था
की कहीं उनकी बहू के साथ कुछ अप्रिय ना घट जाए, संध्या को अपनी मां के मुंह से ऐसा सुनकर बहुत दुख हुआ और वह कमरे में ही चुपचाप आंसू बहाती रही,वह रोहन की लाई हुई चीजों को देखकर और उदास हो गई, यह सिंदूर की डिब्बी रोहन केरल से लाए थे और यह लाख का इतना सुंदर चूड़ा जोधपुर से लाए थे,
मंगलसूत्र.. यह तो शादी से पहले ही उन दोनों ने पसंद कर लिया था तो क्या अब यह सब चीज उसके लिए कोई महत्व नहीं रखती, संध्या के पति का 6 महीने पहले कार एक्सीडेंट में निधन हो गया था संख्या कितना मना करती थी कि वह गाड़ी की स्पीड कम रखें और रोहन संध्या को डरपोक कह कर चुप करा देता, साल भर पहले ही संध्या की शादी हुई थी
और 6 महीने बाद ही उसके साथ ऐसा हादसा हो गया, ससुराल वाले बहुत अच्छे थे उन्होंने कभी भी संध्या को अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार नहीं ठहराया, संध्या अपने ससुराल में ही रह रही थी किंतु अभी महीना भर पहले ही अपने मायके आई थी, वह सोचने लगी जब तक मेरी शादी नहीं हुई थी और मेरे साथ यह हादसा नहीं हुआ तब तक मैं अपने घर वालों के लिए कितनी शुभ मानी जाती थी
कोई भी मंगल कार्य हो मेरे बिना तो कल्पना ही नहीं की जाती थी, चाहे घर के मुहूर्त में कुंवारी कन्या के हाथों की छाप हो या भाई की शादी में मंगल कलश लेकर आने वाली सवासनी के आने कीशुभ रस्म, संध्या का होना अतिआवश्यक था, उसे याद आने लगा आज से 6 साल पहले जब पापा ने गाड़ी ली थी तब भी उसी के द्वारा गाड़ी का पूजन करवाया गया था यहां तक की पूरे खानदान में संध्या को बहुत ही सौभाग्यवती माना जाता था
किंतु आज उसे पहली बार यह एहसास हुआ कि हमारे समाज में आज भी विधवा का क्या स्थान है, क्यों वह सारी रीति रिवाज नहीं कर सकती जो उसके पति के रहते हुए करती थी, जब पहली बार वह अपने पति के साथ अपने मायके आई तो मम्मी पापा ने पूरे घर को दुल्हन की तरह से सजाया था और कौन सी ऐसी फरमाइश थी जिसे उन्होंने पूरी नहीं किया,
इस कहानी को भी पढ़ें:
हर शुभ कार्यों में संध्या को ससम्मान बुलाया जाता और संध्या भी अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझती किंतु आज जब जमाना इतना आगे पहुंच गया तब भी उसकी मम्मी की सोच वही पिछड़ी हुई है, किसी स्त्री के निधन के बाद तो पुरुष को यह सब नहीं सहना पड़ता तो फिर औरत ही इन सबके लिए क्यों जिम्मेदार ठहराए जाती है,
तो क्या मैं अब कभी किसी भी प्रयोजन में हिस्सा नहीं ले पाऊंगी मेरे पति की मृत्यु का जितना दुख मुझे हुआ है क्या कोई मेरी भावनाएं समझ सकता है और इसमें मेरा क्या कसूर जो सब मुझे दुर्भाग्यशाली समझने लग गए, औरों का तो क्या कहूं मेरे खुद मम्मी पापा की नजरों में मैं अपने आप को अपशकुनी समझने लग गई,
कुछ दिन मायके में रहकर संध्या अपने ससुराल वापस आ गई क्योंकि वहां उसके सास ससुर बिल्कुल अकेले पड़ गए थे, अपने बेटे की असमय मृत्यु से वह भी बहुत दुखी थे, संध्या की सास संध्या का मन बहलाने का प्रयास करती पर संध्या अपने पति की यादों से बाहर नहीं आ पाती, कुछ समय बाद संध्या के घर के थोड़ी दूर पर ही एक नई अनाथ आश्रम का उद्घाटन हुआ था
वहां संध्या भी अपना समय बिताने के लिए और कुछ सेवा भाव से वहां जाने लगी, अब इसका ज्यादातर समय अनाथ आश्रम में ही बीतने लगा वह छोटे-छोटे बच्चों को देखकर खुश होती, एक दिन उस शहर के मशहूर उद्योगपति और समाजसेवी गिरधारी लाल जी वहां आए, वह बच्चों के लिए अक्सर बहुत सारी चीज लाया करते थे,
वहां उन्होंने संध्या को देखा थोड़ी बहुत संध्या से बातचीत करने के बाद अगले दिन वह अपने पुत्र गौरव के साथ वहां आए और संध्या को उससे मिलवाया, गौरव की भी 2 वर्ष पूर्व पत्नी चलवसी थी गौरव हर समय अवसाद से ग्रस्त रहता था, धीरे-धीरे गौरव और संध्या दोनों करीब आने लगे क्योंकि दोनों के दुख और भावना ही एक जैसी थी
गिरधारी जी ने संध्या के माता-पिता और सास ससुर से उसका हाथ अपने बेटे गौरव के लिए मांगा जिसे सभी ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया क्योंकि दिल से हर कोई चाहता था संध्या खुश रहे और एक दिन शुभ मुहूर्त में संध्या की शादी गौरव से हो गई और अब वह भी सौभाग्यवती हो गई, चारों तरफ से उसे सौभाग्यवती भव सदा सुहागन रहो के आशीर्वाद मिल रहे थे, आज संध्या और गौरव दोनों की अपूर्ण जिंदगी पूर्ण हो गई!
हेमलता गुप्ता स्वरचित
कहानी प्रतियोगिता (#सौभाग्यवती)
vm