जिन्दगी में सिन्दूर का बंधन आरंभ में सुगंधित फूलों के झोंके के समान प्रतीत होता है,परन्तु कभी-कभी वह झोंका क्षणभंगुर साबित हो जाता है।पलभर के सुगंधित झोंकों के सहारे केवल सिन्दूर के नाम पर पूरी जिन्दगी काटनी मुश्किल हो जाती है।पति-पत्नी दाम्पत्य-जीवन
निभाने के लिए अग्नि के समक्ष सात फेरे लेते हैं,परन्तु उन सात फेरों का बंधन निभाने के लिए अपनत्व, प्रेम,त्याग, समर्पण रुपी खाद की जरूरत होती है,वर्ना दाम्पत्य-जीवन की बगिया मुरझाने लगती है।माथे पर सिन्दूर की चमक धूमिल पड़ जाती है।दाम्पत्य-जीवन में अपनी अस्मिता और सम्मान के लिए जूझती मीता की कहानी आपबीती के रुप में प्रस्तुत है।
मुझे(मीता) तुम्हारी (पति अमन) पहली झलक आज भी याद है।शादी की सप्तपदी पर जब हम पहली बार मिले थे।मैंने घूंघट की आड़ से कनखियों से पहली बार तुम्हें देखा था।तुम्हें देखकर मेरा मन-मयूर खुशियों के अतिरेक से नृत्य करने लगा था। मेरा रोम-रोम रोमांचित हो उठा था।जब तुम्हारे हाथ में मेरा हाथ दिया गया,तो मैं तुम्हारी छुअन से सिहर उठी थी।तुम्हारी भीनी-भीनी खुशबू मुझमें समाने लगी।तुम्हारे अप्रतिम रुप-सौन्दर्य को देखकर मैं खुद को दुनियाँ की सबसे भाग्यशाली लड़की समझने लगी।
तुम बहुत खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।तुम्हारे रुप को तुम्हारे गुण मेडिकल की की पढ़ाई चार-चाँद लगा रही थी।तुम्हारे आकर्षक व्यक्तित्व के समक्ष मेरा साँवला रंग और मध्यम लंबाई बौनी लग रही थी।तुम मेडिकल प्रथम वर्ष में थे और मैं दसवीं में पढ़ रही थी।उस समय मुझे इतना तो पता था कि तुम्हारे परिवारवालों को मेरे पिता ने काफी दहेज दिया है,परन्तु उस समय मुझे इतनी समझ नहीं थी कि मेरे साधारण रूप-रंग के कारण मेरे पिता ने तुम्हें इतना दहेज दिया है।बस मैं तुम्हें देखकर काफी खुश थी।
शादी के बाद हम कुछ ही पलों के लिए मिले थे।उन पलों में मेरी धड़कनें बेकाबू हो रहीं थीं,परन्तु तुम चुपचाप निर्विकार भाव से खड़े थे।मुझे एहसास हो रहा था कि तुम मुझे देखकर खुश नहीं थे,परन्तु आगे सोचने की समझ नहीं थी।तुम अपनी मेडिकल पढ़ाई पूरी करने चले गए। मैं भी अपनी पढ़ाई में लग गई।
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हमारा गौना बाकी था।उस समय माता -पिता को बस बेटियों की दहेज की चिन्ता रहती थी।मैंने भी बस साधारण श्रेणी में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।हमारा गौना तीन साल बाद तय हुआ था,परन्तु वे तो कब के बीत चुके थे।मैं तो हर पल तुम्हारे साथ अपने सुखमय जीवन के इन्द्रधनुषी सपनों में खोई रहती थी।हर पल तुम्हारी सूरत मेरी आँखों में समाई रहती थी।उस समय मोबाइल की तो सुविधा नहीं थी और गौना से पहले पत्र-व्यवहार को संकोच ने रोक रखा था।हमारी शादी को पाँच वर्ष व्यतीत हो चुके थे,फिर भी तुम्हारे घरवाले तुम्हारी पढ़ाई का बहाना कर गौना टाल रहे थे।
आखिरकार शादी के सात साल बाद एक बार फिर से मेरे पिता ने तुम्हारे घरवालों का मुँह दहेज से भर दिया।मेरे पिता को गलतफहमी थी कि वे प्रचुर दहेज देकर बेटी की खुशियाँ खरीद लेंगे।आखिर शादी के सात साल बाद मैं ससुराल आ गई।
ससुराल में मैं पहले ही दिन समझ गई कि मेरी सास ने केवल दहेज के लोभ में ही तुम्हारी शादी करवाई है।तुम अपनी माँ के अंधभक्त थे,इस कारण तुम मुझे छोड़ नहीं सकते थे।तुम माँ-बेटे मेरे रुप को लेकर पहले दिन से ही मुझपर मानसिक अत्याचार करने लगें। न तो तुम्हें पसन्द थी,न ही तुम्हारी माँ को।उस समय मैं भी चुपचाप डरी-सहमी रहती।तुम माँ-बेटे का मेरे प्रति दुर्व्यवहार तुम्हारे पिता को बिल्कुल ही पसन्द नहीं था,परन्तु तुमलोगों के सामने उनकी कुछ नहीं चलती थी।मैं अपने ससुर के अपनत्व और प्यार के सहारे ससुराल में समय काट रही थी।पाँच साल तक ससुराल में मैं तुम्हारी माँ के जुल्मे-सितम सहती रही।बीच-बीच में बस तुम कुछ दिन के लिए आते।
तुम अब एक सरकारी डाॅक्टर बन चुके थे।तुम्हारे पिता ने जिद्द कर मुझे तुम्हारे पास भेज दिया।मैं खुश थी कि तुम्हारे पास आकर अब मैं अपनी नई दुनियाँ बसाऊँगी।एक-दूसरे के आपसी सानिध्य से हमारा प्यार बढ़ेगा,परन्तु मैं तुम्हें बिल्कुल पसन्द नहीं थी।बस तुम अपने काम से मुझसे मतलब रखते थे।उन्हीं दिनों मेरे जीवन में खुशखबरी आ गई। मैं माँ बननेवाली थी।मुझे महसूस हुआ कि अब मेरी जिन्दगी बदल जाएगी,परन्तु ये मेरा भ्रम था।मेरी पहली संतान लड़की हुई।मैं काफी खुश थी।शादीशुदा जिन्दगी में पहली बार मुझे खुशी हुई
कि तुम बेटी को देखकर निराश नहीं बल्कि खुश हुए। तुमने बेटी जनने पर मुझसे कोई सवाल नहीं उठाए। कुछ समय पश्चात मैंने दूसरी बेटी को जन्म दिया।इस बार भी तुमने मुझे कोई उलाहना नहीं दिया।शायद डाॅक्टर होने के नाते तुम्हें पता था कि बेटे के जन्म के लिए मुख्यतः पुरुष ही जिम्मेदार होते हैं।विवाहित जीवन में खुशियों के जो चंद लम्हें याद करने लायक थे,वह तुम्हारा बेटियों से प्रेम था।तुम मुझे बस बेटियों से प्यार करनेवाले पिता के रुप में ही अच्छे लगे थे।
तुम्हारे नाम का सिन्दूर तो बस मैं संस्कारवश लगा रही थी।धीरे-धीरे तुम बेटियों को मेरे खिलाफ भड़काने लगे।मेरे प्रति उनके मन में जहर घोलने लगे।जिस तरह तुम मेरी भावनाओं की कद्र नहीं करते थे,उसी प्रकार तुम्हारी शह पाकर बेटियाँ भी मेरा लिहाज नहीं करती थीं।
मेरी शादीशुदा जिन्दगी में रिक्तता भरती जा रही थी।अन्य खुशहाल दम्पत्ति को देखकर सोचती “काश !मेरा भी दाम्पत्य-जीवन इसी तरह खुशहाल होता!”
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धीरे-धीरे तुम शराब भी पीने लगे।शराब के नशे में तुम मुझसे बेवजह झगड़ने लगे और मुझ पर हाथ उठाने लगे।मैं न तो कोई पत्थर की मूरत थी,न ही संवेदनशून्य।कितने दिनों तक मैं तुम्हारी ज्यादातियाँ झेलती?बेटियाँ बड़ी हो रहीं थीं।अपने सम्मान और बेटियों के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक साहसी योद्धा के समान तुम्हारा प्रतिकार करने लगी।
तुम्हारे प्रति धीरे-धीरे मेरा विश्वास, गुमान,प्यार ताश के पत्ते के महल के समान ढ़हकर धराशायी हो चुका था।जिस इंसान को बिना जाने-समझे निःस्वार्थ भाव से मैंने जिन्दगी के इतने साल समर्पित कर दिएँ,उस इंसान के हाथों पग-पग अपमानित होना अब बर्दाश्त से बाहर हो चुका था।तुम्हारे साथ सात फेरे लेने के बाद मैंने एक खुबसूरत जिन्दगी का ख्वाब देखा था।तुम जिस बात में खुश रहो,वही मैं करती रही।एक डाॅक्टर की पत्नी होने के बावजूद मैं छोटी-छोटी चीजों के लिए तरस जाती थी।मैं तुम्हारी और अपनी इज्जत बचाने की खातिर मायकेवालों से कुछ नहीं कहती।
तुम्हारे नर्स के साथ अफेयर की खबरें मैंने भी सुनी थी,फिर भी मैं मौन रही।ऐसा नहीं था कि ये सब सुनकर मुझे गुस्सा नहीं आता था ,परन्तु बेटियों के भविष्य के साथ मैं खिलवाड नहीं करना चाहती थी।मैं बस तुमसे थोड़ा-सा प्यार और अपनापन चाहती थी ,परन्तु तुम्हारे लिए मेरी भावनाएँ महत्वहीन थीं।औरत की जिन्दगी में एक समय ऐसा भी आता है,जब वह अन्याय का प्रतिकार करना तो सीख जाती है,परन्तु आर्थिक परतंत्रता अन्य कदम उठाने से रोक लेती है।मेरी जिन्दगी बिल्कुल मशीन बन चुकी थी।जीवन में नीरसता भर चुकी थी,बस मैं रिश्ता यंत्रचालित ढ़ंग से निभाए जा रही थी।अब न तो मुझे वसंत के आगमन का एहसास होता,न ही पक्षियों के कलरव लुभाते।प्रकृति के अनूठे सौन्दर्य भी मेरे मन को अभिभूत नहीं करते।मेरी जिन्दगी बस यूँ ही गुजर रही थी।
समय के साथ तुम्हारी ज्यादतियाँ बढ़ती ही जा रही थीं।मैं भी अब तुमसे नहीं डरती थी।आरंभ में तुम्हारी माँ ने मुझपर हाथ उठाया था,अब तुम भी मुझपर हाथ उठाने लगे थे।शराब के नशे में मुझे रोज आत्महत्या की धमकी देते थे।तुम्हारी कहानी ‘भेड़िया आया’,’भेड़िया आया’ वाली हो गई थी।अब बेटियाँ भी तुम्हारी धमकी को मजाक समझने लगीं थीं।
एक दिन रविवार को तुमने सुबह से ही शराब पीने शुरु कर दी थी।मेरे टोकने पर तुमने मुझपर हाथ उठाया और चिल्लाते हुए मरने की धमकी देकर ऊपर कमरे में चले गए। तुम्हारी धमकियों के हम आदी बन चुके थे,इस कारण तुम्हें देखने कोई ऊपर नहीं गया।उस दिन सचमुच तुम पंखे में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर चुके थे।खाना के समय तुम्हें बुलाने जाने पर देखा कि तुम पंखे से लटके हुए थे।मुझे समझ नहीं आ रहा था कि सिन्दूर उजड़ने का शोक मनाऊँ या दमघोंटू रिश्ते खत्म होने का जश्न! हाँ!बेटियों के सिर से पिता का साया हटने का दुख था,
अपने लिए सिन्दूर, मंगलसूत्र न पहनने का गम था,परन्तु आन्तरिक पीड़ा का एहसास नहीं था।शायद सुहाग के चिन्ह मेरे लिए भार बन गए थे, इस कारण इन्हें उतारते हुए मुझे कोई खास दुख नहीं हुआ। तुम्हारी मौत पर दुख तो था ,परन्तु तुम्हारा उपेक्षित और क्रूर व्यवहार मेरे अंतर्मन को पिघला न सका।तुम्हारी मौत से मन में जब-तब एक हूक अवश्य उठती थी,मन में नैतिकता की गाँठ जो अवचेतन मन में दबी थी,वो फूट-फूटकर रोना चाहती थी ,परन्तु रुदन स्वर कंठ में ही दबकर रह गए। अपने बचाव में मैं किसी को सफाई नहीं देना चाहती थी।मेरे मन में प्रश्न उठ रहे थे -“क्या चुटकी भर सिन्दूर का मतलब आजीवन कारावास है?”
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मेरे करीबी रिश्तेदार, जिन्हें तुम्हारे दुर्व्यवहार के बारे में पहले से पता था,कई बार उन्होंने तुम्हें समझाने की कोशिश भी की थी,उन्होंने ही मेरी खातिर और बेटियों के कारण तुम्हारी मौत को नार्मल करार करवा दिया,जिसके कारण मुझे अस्पताल में नौकरी मिल गई। अब दोनों बेटियों को भी मेरी भावनाओं की परवाह होने लगी।मुझे नौकरी पर जाते देखकर मेरी सास ताना मारते हुए कहती -” इसे पति की मौत का कोई गम नहीं है,सज-धजकर काम पर जाती है!”मैंने भी एक दिन सास को दो टूक जबाव देते हुए कह दिया -“माँ जी! जब आपका बेटा जिन्दा था तो मैं तिल-तिलकर मर रही थी।अब भले ही समाज और परिवार मुझे स्वार्थी कहें,परन्तु मैं खुश हूँ।”
मेरी सास अब मेरे सामने कुछ नहीं कहती।मेरे लिए सिन्दूर, मंगलसूत्र बेमानी हो गए थे।उन्हें छ्द्म आवरण में छिपाते-छिपाते मैं थक चुकी थी।अब मेरा एक स्वतंत्र वजूद है,जिससे मैं बेटियों के उज्ज्वल भविष्य को सँवार सकती हूँ। जीवन की राह अब भी कठिन है,पर बेबस नहीं!बस मैं मीता अपनी दुखद आपबीती समाप्त करती हूँ।
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)