दादी पहली बार पूरब के घर आई हैं। छत्तीसगढ़ के छोटे से शहर दुर्ग से कभी बाहर पांव भी नहीं रखा दादी ने। सारा जीवन घर परिवार को सम्हालने में खर्च करने के बाद एक रात दादी को सपने में गोपाल जी दिखाई दे गए। बस फिर क्या था उन्होंने बस माला जपनी शुरू कर दी। कि उनके गोपाल जी ने बुलाया है उन्हें।
पूरब के पापा अशोक और मम्मी सुधा के लिए बड़ी परेशानी खड़ी हो गई। इस उम्र में अम्मा को वृन्दावन लेजाना एवरेस्ट चढ़ने से कम नहीं प्रतीत हो रहा था उन्हें। एक तो इतनी उम्र ऊपर से सफ़र की थकान। कार से तो किसी कीमत पर ले जाना संभव नहीं था ट्रेन में भी आसान नहीं। उन्हें न पंखा लगता ना एसी। जरा सी ठंड में वो कंबल लपेट कर बैठ जाती फिर काढ़ा और हल्दी दूध और सोंठ के लड्डू जैसी तमाम चीजें उनकी सेवा में लगती।
बहुत सोच विचार, परिवार में सबकी राय लेने के बाद पितृ पक्ष का मुहूर्त निकला। अब दादी इस बात के लिए परेशान की पितृ पक्ष में घर में पितरों की सेवा कौन करेगा। हालांकि अपने हाथ से उन्हें कुछ नहीं करना होता है, सारा काम मम्मी चाची सम्हालती हैं लेकिन मुखिया तो मुखिया ठहरीं। चाची चाचा ने हर तरफ से आश्वत किया उन्हें की अम्मा आप तो जाओ। यहां पूरे नियम धरम से हम रोज़ पितरों को भोजन पानी देते रहेंगे।
एसी टू के कोच में अम्मा के लिए अतिरिक्त कंबल रखे गए। घर से उनके लिए एक अलग सूटकेस पैक किया गया जिसमें उनकी रोज़ की जरूरतों की सारी चीजें उन्होंने खुद रखवाईं। सारा परिवार स्टेशन पर बिदाई करने आया। जीवन में पहली बार अम्मा बाहर जा रही थीं। सब को उत्सुकता थीं की उनका सफर कैसा रहेगा।
मम्मी ने अम्मा को पहले ही इस बात के लिए मना लिया था की वृन्दावन से दिल्ली चलेंगे पूरब के घर। दादी का पहला पोता पूरब दादी का लाडला भी है। दादी खुशी से राजी हो गई। पोता पतोहू के साथ कुछ दिन रहने का सुख मिलेगा। ये दोनो जब भी छुट्टी में घर आते हैं समय ही नहीं रहता दोनो के पास की बैठें बतियाएं। पूरब का सारा समय दोस्तो के साथ और त्योहार की तैयारी में बीत जाता है और अनु का बाजार, घर के काम और बचा समय मायके में निकल जाता है। दादी अब घर की वो वस्तु हो गई है जो बस सबको दिखाई देती है पर महसूस नहीं होती। एक उम्र के बाद सभी बुजुर्ग शायद ऐसे ही हो जाते हैं।
दिल्ली के स्टेशन से पूरब के घर पहुंचते तक दादी कार की खिड़की से अचरज से बड़ी बड़ी इमारतों, चौड़ी सड़क पर गाड़ियों के काफिले और लोगों की भीड़ को देखती रही।
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दिल्ली के बाहरी कोने की एक बहुमंजिला कॉलोनी में पूरब का फ्लैट बारहवीं मंजिल पर है। जहां की खिड़की से छोटा सा आकाश दिखाई देता है और उतनी ही ज़मीन। खिड़की पर लगी लोहे की जालियों से गुजरकर हवा आ भी जाए लेकिन एसी की ठंडक ने उन्हें बाहर ही रोक रखा है।
दोनो ने ऑफिस से छुट्टी ले ली है एक सप्ताह की। पापा मम्मी तो साल में दो बार आ भी जाते हैं लेकिन दादी का आना सुखद संयोग है पूरब के लिए। दादी सारा दिन अनु को उसके बचपन की बातें सुनाती रहती हैं कैसे वो छह महीने का होने के बाद से उनके साथ ही सोया करता था। कैसे दादी ने उसके लिए क्रोशिया वाले कपड़े बनाए थे। ठंड में दादी के बनाए हुए स्वेटर में पूरब की फोटो भी दिखाई अनु ने दादी को तो दादी जैसे निहाल हो गई। यहां आकर दादी को लग रहा था कि उनका बुढ़ापा इन कुछ दिनों में संवर गया। उनकी जिंदगी कुछ दिन और बढ़ गई है।
आज दादाजी की तिथि है। दादी के निर्देश पर मम्मी और अनु ने खाना बनाया। अब मुश्किल यहां खड़ी हुई की दादाजी के लिए भोजन कहां रखा जाए जहां कौए आकर खाएं। सोसायटी के नियम के अनुसार खाने पीने की चीजें गार्डन या किसी जगह पर रखना मना है। बीस मंजिल की इमारत की छत पर कौएं आयेंगे या नहीं पक्का नहीं। और जब तक कोई कौंवा उसे खायेगा नहीं दादी भी कुछ नहीं खाएंगी।
सब बड़ी मुश्किल में। बारह बजने वाले हैं दादी ने नहीं खाया तो किसकी मजाल है कोई कुछ खा ले। कोई उपाय नहीं सूझ रहा। तभी अनु को ख्याल आया की उसके ऑफिस के रास्ते में एक गार्डन पड़ता है जहां छोटा सा चिड़िया घर भी है। अक्सर शाम को वापसी में वहां कौए दिखाई देते हैं। उसने पूरब से यह बात बताई।
पूरब ने बड़ी हिम्मत कर दादी के सामने बात रखी। की सब टिफिन में खाना लेकर चलते हैं। वहां गार्डन में आउटिंग भी हो जायेगी और श्राद्ध का नियम भी हो जायेगा। दादी पहले तो इस बात पर अटक गई की ये काम तो घर पर होता है। बाहर कैसे किया जायेगा। पितरों को ऐसे कहीं भी थोड़े ही भोजन दिया जाता है। अब मोर्चा सम्हाला पापाजी ने। उन्होंने व्यवहारिक समस्या समझाई, उनके भूखे रहने से तबीयत बिगड़ने का डर दिखाया तब जाकर दादी तैयार हुई।
सब तैयार होकर निकले। दादी फिर शहर की इमारतों और सुंदरता पर मोहित होती रहीं। कहां छोटा सा दुर्ग और कहां यहां दिल्ली। जब गार्डन पहुंचे तो पता चला की यहां किसी प्रकार का खाने का सामान भीतर ले जाना मना है।
अब क्या करें? पूरब और अनु तो ठहरे आज के जमाने के, उन्हें ऐसे मामलों को सुलझाने का ज्ञान नहीं। पापाजी नियम कानून को मानने वाले ठहरे। अब पितरों को भोजन तो कराना है है। तो दादी ने सम्हाला मोर्चा और गार्ड के पास जा पहुंची। गार्ड ने नियमों का हवाला देना शुरू किया तो दादी बोल पड़ी की अगर हमारी जगह तुम्हारी दादी होती तो क्या करते बेटा तुम। बस कौवों को थोड़ा सा भोजन ही तो खिलाना है। हम सब भले यहां नहीं खाएंगे पर तुम एक प्लेट में रखकर किसी किनारे रख दो। उनकी।मर्जी होगी तो स्वीकार लेंगे।
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दादी की बात पर इमोशनल होकर गार्ड ने हामी भर दी। मम्मी ने जल्दी से एक पत्तल में सब परोसा और पूरब दादी को साथ लेकर एक पेड़ के नीचे उसे रख आया।
दिल्ली में बारिश के मौसम के बाद उमस बढ़ जाती है। दोपहर को और भी असहनीय हो जाता है मौसम। एक बज गए थे दादी के चेहरे पर थकान झलक रही थी। बेंच पर बैठे सब इंतज़ार कर रहे थे की कोई कौवा आए और कुछ खा ले। मम्मी को इस बात की चिंता थी की दादी की कमजोरी न बढ़ जाए। दादी बड़े इत्मीनान से बैठी जैसे उन्हें पता हो की कोई न कोई तो आयेगा।
जिस जगह पर खाने की चीजें न मिले वहां पशु पक्षी भी आसानी से लालच में नहीं आते। उन्हें पकवान की आदत होती नहीं। वैसे भी जैसी आज की पीढ़ी सब रीति रिवाज भूलते जा रही है पशु पक्षी भी कहां अपवाद हैं।
लम्बे इंतज़ार के बाद एक कौवा आया और पत्तल पर बैठ गया। एक चोंच उसने मारी और दादी के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उन्होंने हम सब की तरफ़ संतोष भरी नजरों से देखा और वहां कौंवे ने अपने साथियों को आवाज लगानी शुरू कर दी।
दादी ने अनु से कहा पतोहू थोड़ा पानी हमें भी दे दो, प्यास लग आई है। पूरब घर चलो, सब के पेट में चूहे दौड़ रहे होंगे आज तो। आज तुम्हारे दादाजी ने दिल्ली में पूड़ी खाई है कितने खुश होंगे तुम दोनों को देखकर वो। दादी ने सीट पर सर टिकाया और आंखें बंद कर ली।
पूरब को लगा जीवन का एक बड़ा दिन जी लिया उसने।
©संजय मृदुल