शारदा अक्सर सुबह जल्दी उठ जाती …स्नान करके तैयार हो जाती …फिर सूर्य को नमस्कार करती… पौधों में पानी देती… पंछियों के लिए पानी बदलती… यह सब उसके दैनिक कार्य थे… एक मध्यवर्गीय परिवार से आई शारदा, हमेशा अपनी साड़ी का पल्लू अपने सर पर रखती …
उसका माथा कभी सूना नहीं रहा …छोटी सी लाल रंग की बिंदिया उसके चेहरे का नूर और भी बढ़ा देती थी… हमारी बड़ी सी हवेली में आकर शारदा , बहुत व्यस्त हो गई थी ,जैसे वह हमेशा से यहीं की थी …मां अक्सर कोशिश करती कि शारदा आधुनिकता में ढल जाए… उसे अच्छे-अच्छे शहरी लिबास लाकर देती… परंतु शारदा अपनी फूल पत्तियों के डिजाईन से सजी साड़ियों को पहनकर ही खुश होती… मां को हमेशा ही यह बुरा लगता
कि शारदा उनका कहां नहीं मानती… मां अक्सर मुझसे शिकायत करती…. मैं भी कई बार मां की बातों में आकर शारदा को डांट देता कि वह मेरी मां की इज्जत नहीं करती…. उनका कहा नहीं मानती… क्या उसके माता-पिता ने उसे इतनी भी तमीज नहीं सिखाई कि बड़ों का कहा मानना चाहिए…
शारदा अक्सर रो पड़ती…. वह मुझसे कहती कि उसने शादी से पहले ही कहा था …वह बहुत साधारण रहन-सहन वाली लड़की है…. उसे बड़े घरों के तौर तरीके नहीं आते ….उसे तो बस सादा जीवन ही पसंद है… मैं जवाब देता कि हां उसने कहा था,
परंतु लड़कियां अक्सर अपने ससुराल जाकर वहां के तौर तरीके सीख जाती है… शारदा कहती कि वह घर का सारा काम बहुत अच्छे से कर देती है.. फिर भी उसे यह सब सुनना पड़ता है… मैं शारदा से कहता कि यदि तुम मां की पसंद के कपड़े पहन लो तो मां भी खुश हो जाएगी… शारदा कहती ,
उसने बहुत बार कोशिश की, लेकिन उन कपड़ों में उसे ऐसा महसूस होता है, जैसे किसी ने उसे जंजीरों में बांध दिया है … उसका सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है …शहरी तंग लिबास उसे बिल्कुल नहीं भाता… उसे तो अपनी साधारण साड़ियों में ही रहना अच्छा लगता है…. यह सुनकर मैं भी चुप कर जाता….
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मेरा मन भी अंदर से दुखता… क्या शादी का मतलब किसी को खरीद लेना होता है… क्या शादी के बाद लड़की की हर सांस पर हमारा अधिकार हो जाता है…. मुझे बहुत अजीब सा लगता… एक पल के लिए तो ऐसा महसूस होता ,जैसे मैंने शारदा को बंधुआ मजदूर बना लिया…
जैसे एक खिले हुए फूल को इसलिए तोड़ लिया कि वह मेरी शोभा बढ़ा दे… परंतु यह भूल गया कि टूटने के बाद वह फूल तो मुरझा जायेगा… इसकी तो खुद की शोभा ही खत्म हो जाएगी… तो मेरी शोभा कहां से बढ़ाएगा… मैं जाकर मां को समझाता… मां शारदा एक इंसान है… हमारे पूरे घर की जिम्मेदारी बहुत अच्छे से संभालती है…
परंतु उसे इतना तो हक है कि वह अपने मन को भाता हुआ पहरावा पहने … वह पुराने संस्कारों में ढली हुई लड़की है… आपकी आधुनिकता में नहीं ढल पाएगी, और वैसे भी इसे कहां ही कोई समस्या उत्पन्न हो रही है… क्यों ना इस जिद को छोड़ दिया जाए… अगर आप इस बात को छोड़ दें तो, इस घर में हम सब खुशी से रह लेंगे…
हमारे बीच झगड़े का और कोई कारण नहीं है… अगर बार-बार हम शारदा को पूर्ण रूप से बदलने की कोशिश करेंगे, तो उसका यहां मन नहीं लग पाएगा… वह आपकी सेवा अपनी मां की तरह ही करती है… आप भी उसकी खुशी का ख्याल रखें ..
जैसा पहरावा आपको पसंद है, आप पहने …शारदा को उसकी फूल पत्तियों वाली साड़ियों में खुश रहने दे …मां यह सुनकर कुछ नाराज सी हो जाती …हां, मेरा हक ही क्या बनता है… यह सुनकर मैं समझ जाता कि मां अपने बचपन में वापस आ चुकी है… मैं मुस्कुरा कर मां को गले लगा लेता….
स्वरचित रचना
शालिनी श्रीवास्तव