सीमा रेखा – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi

बेटा… अगर हो सके तो तुम्हारी सैलरी आते ही इस बार सबसे पहले मेरा चश्मा बनवा देना या फिर नया ही दिलवा देना… बड़ी तकलीफ होती है बेटा… चश्मा के बगैर… अशोक जी ने अपनी बेटे नामित से कहा 

नामित:   आपका ना मुझे समझ नहीं आता पापा… हर बार सैलरी आई नहीं उससे पहले आपकी फरमाई से आ जाती है… एटीएम दिखता हूं क्या आपको…? बस कह दिया और पैसे आ गए… 

अशोक जी:   यह कैसी बातें कर रहा है..? मैं पिछले तीन महीनो से तुझे चश्मा के लिए बोल रहा हूं, पर तू मुझे हर बार यह कहकर टाल देता है कि इस महीने खर्च ज्यादा हो गया है… अगले महीने करवा दूंगा… पर चश्मे के बिना मेरा एक कदम भी कितना भारी पड़ रहा है यह मैं ही जानता हूं…

डरता हूं कहीं गिर गया कुछ हो गया….. इससे पहले अशोक जी अपनी बात खत्म कर पाते… नामित कहता है…क्या होगा पापा..? अरे उम्र तो हो ही गई है ना..? अब हर किसी के जीवन की एक सीमा रेखा होती है… कोई अमृत पीकर तो बैठे नहीं है आप… जो सब होना है वह होकर ही रहेगा…

फिर आपने चश्मा पहना है या नहीं इससे कुछ बदलने वाला नहीं है… यह कहकर नमित वहां से चला गया… पर अशोक जी के दिल को बड़ी ठेस लगी… अपने इकलौते बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुनकर उन्हें बड़ा दर्द हुआ और उन्होंने अपने मन में ठाना के अब वह आगे से कभी भी चश्मा या किसी भी चीज के लिए नामित से कुछ नहीं कहेंगे… 

समय बितता गया पर नमित ने कभी अशोक जी का चश्मा बनवाकर नहीं दिया… नामित की पत्नी मेघा भी काम करती थी.. वैसे वह ज्यादा तो नहीं पर अशोक जी की कभी कदार परवाह कर ही लेती थी… नामित और मेघा की एक 3 साल की बेटी थी मायरा, जिसकी देखभाल के लिए एक आया भी थी…

पर अशोक जी ही ज्यादातर उसकी निगरानी करते थे… अशोक जी अपनी कोई भी जरूरत नमित को ही बताते थे, क्योंकि बहू से कहना उनको शर्मिंदा करता था… जब बेटा ही उन्हें दूत्कार देता था तो बहु से वह किस मुंह से कहे..? पर मेघा जितना हो सके अशोक जी की जरूरत का ध्यान रखती थी…

एक दिन जब मेघा दफ्तर से घर लौटी तो वह देखती है… मायरा बार-बार अशोक जी से कह रही है दादू… यह कहानी पढ़कर आप सुनाओ ना मुझे.. पर अशोक जी उसकी एक नहीं सुन रहे हैं… उल्टा उससे कह रहे हैं जाओ तुम खेलो अपनी गुड़ियों के साथ… मुझे तंग मत करो 

मेघा को बड़ा बुरा लगा और उसने मन में सोचा… पूरा दिन तो बस यह घर पर ही ऐसे ही बैठे रहते हैं… पर एक कहानी नहीं पढ़ सकते बच्ची के लिए…. सच कहते हैं नमित… बाबूजी बड़े स्वार्थी है बस उन्हें अपने आराम और अपने काम से मतलब होती है… फिर मेघा गुस्से में आकर मायरा से कहती है… चलो बेटा अपने कमरे में… मम्मी आ गई है ना…

वह अब आपको स्टोरी पढ़ कर सुनाएगी… आपको किसी की जरूरत नहीं… फिर मेघा मायरा को कमरे में ले जाकर कहती है… मेरे बच्चे को दादाजी कोई कहानी नहीं सुनाते हैं ना..? कोई बात नहीं बेटा आप ना अपने पूरे दिन की सारी विश याद करके रखना… मम्मा जब शाम को घर आएगी तब वह आपकी सारी विश पूरी कर देगी… आपको पूरे दिन अकेला लगता होगा ना..? 

मायरा:   नहीं मम्मी दादा जी मेरे सारी विश पूरी कर देते हैं.. वह मेरे घोड़े भी बनते हैं, छुपन छुपाई भी खेलते हैं लेकिन जब से उनका चश्मा टूटा है वह कुछ भी नहीं करते हैं… वह कहते हैं उनको कुछ नहीं दिखता… पर उन्होंने पापा से कहा है इसके बारे में… पापा जल्दी उनको नया चश्मा दिलवाएंगे… तब वह वापस से खेलने लगेंगे मेरे साथ और मुझे स्टोरी भी पढ़ कर सुनाएंगे… उनके रहते मुझे बिल्कुल भी अकेला नहीं लगता… 

मेघा इस बात की सच्चाई जानने के लिए नमित है उसी रात पूछती है… नमित क्या पापा ने आपको चश्मा लाने के लिए कहा था..? नमित:  हां और क्या..? पिछले तीन-चार महीनो से मेरे पीछे पड़े हैं जब मैंन एक बार चिल्ला कर कह दिया, तब से दोबारा नहीं कहा… देखो बिना चश्मे के भी जी रहे हैं ना आराम से… पर नहीं जब तक मेरा खर्च ना करवाओ… उनको चैन कहां..? 

मेघा उस वक्त तो कुछ नहीं कहती… वह चुपचाप वहां से चली जाती है… अगले दिन मायरा ने नमित से एक गुड़िया की मांग की जिस पर मेघा ने कहा… नहीं कोई फालतू का खर्च नहीं करना नमित… बहुत गुड़िया है इसके पास…

 नमित:   अरे मेघा वह सारी पुरानी गुड़िया है… इसका मन भर गया होगा उन सब से… अब इसके लिए ही तो कमा रहे हैं… एक गुड़िया नहीं दिला सकते..? 

मेघा:   अरे नहीं नहीं दिला सकते…. हम इसके लिए नहीं कमाते… आज आप सब कुछ इस पर लुटा देंगे, तो बुढ़ापे में एक चश्मे के लिए आपको भी इसके सामने हाथ फैलाना पड़ेगा… हम तो इसके शौक का पूरा ध्यान रखेंगे, पर अपने बुढ़ापे को इसके आगे भीख मांग कर और गिड़गिड़ाकर बिताना पड़ेगा… इसे अपने माता-पिता का प्यार याद कहां रहने वाला है..? तो बेहतर है अपने बुढ़ापे को अभी से बेहतर बनाने की कोशिश कर ले… 

मेघा के इन बातों से नमित को समझ आ रहा था कि वह किस ओर इशारा कर रही है… इसलिए वह चुपचाप नज़रे नीचे करके कुछ सोचने लगा तभी मेघा आकर उससे कहती है… पता है हम सभी के जीवन के सीमा रेखा है जो की एक दिन खत्म हो जानी है और सभी रास्तों से होकर ही वहां तक पहुंचना है…

आज जहां पापा जी है कल वहां आप और मैं होंगे… हम अपने बच्चों को हजार संस्कार देने की कोशिश कर ले, पर जो वह देखकर सीखेंगे वह उनके जहन में ऐसे छपेगा कि वह कभी नहीं निकलेगा… हमने खुद अपने माता-पिता की बुढ़ापे में इज्जत नहीं की, पर अपनी औलाद से चाहेंगे कि वह अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करें… जो कि असंभव है…

माता-पिता अपनी हर सुख सुविधाओं को त्याग कर अपने बच्चों की ख्वाहिशो को पूरी करते हैं… पर वही बच्चे उनके बुढ़ापे में उनकी ज़रूरतें तक पूरी नहीं कर सकते… फिर अपने बच्चों से यह उम्मीद क्यों रखना..? 

नमित को अपने किए पर बड़ा पछतावा हो रहा था और वह सबसे पहले जाकर अशोक जी का चश्मा लेकर आता है और अपने पापा से माफी मांगते हुए आगे से ऐसा न करने की कसम भी खाता है… 

मेरी इस कहानी को पढ़ कर काफी लोग कहेंगे कि असल जिंदगी में ऐसा नहीं होता… बहू इतनी समझदार नहीं होती… पर मेरी कहानी लिखने का उद्देश्य यही होता है कि कुछ सकारात्मक बातें आप सबके बीच लाई जाए, क्योंकि नकारात्मक बातों के लिए बहुत सारे स्रोत है…. आपका क्या कहना है इस बारे में..? जरूर बताइएगा 

धन्यवाद 

रोनिता कुंडु 

#सीमा रेखा

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