रोज की तरह शाम को रुनू की दादीमाँ अपनी हमउम्र सखी के साथ जब पास वाले मन्दिर गयीं, वापसी में उन्हें सड़क के किनारे ठेले पर सजी ताज़ी सब्जियों के साथ आलू, प्याज भी बिकते दिख गये। वे भी एकदम फ्रेश दिख रहे थे।
सुबह-सुबह बहू की बातें कानों में पड़ी थीं, कि आलू-प्याज दोनों ख़त्म होने को हैं, लाने ज़रूरी हैं, अतः उन्होंने सोचा, अच्छे-भले दिख रहे हैं, ले ही चलती हूँ, आखिर हर सब्जी में दोनों काम आते हैं। दाम पूछे तो सब्जी वाले ने दोनों के दाम बीस-बीस रुपये किलो बताये और मोलभाव से साफ़ मना करते हुए फिक्स रेट पर अड़ गया,
“माँजी!…साफ कहना, सुखी रहना! रोज जिधर ठेला लगाता हूँ, आज वहाँ कुछ काम हो रहा है जिसकी वजह से मजबूरी में यहाँ नयी जगह पर खड़ा हूँ और थोड़े सस्ते में ही बेच रहा हूँ, घर जल्दी जाना है करके! …नहीं तो मैं चुन-चुन कर बिल्कुल चोखा माल लाता हूँ और एकदम खरे दामों में ही बेचता हूँ! हाँ नहीं तो…साफ कहना, सुखी रहना!”
वह अपना तकिया कलाम दुहराता हुआ बोला।
“हुँह, साफ कहना..सुखी रहना!” दादी मन ही मन भुनभुनाते हुए एक-एक किलो तुलवा रही थीं कि इससे ज्यादा वजन तो ढो कर उनसे ले जाया नहीं जा सकेगा तभी उनकी पोती रुनू और सखी की पोती सोना एक साथ सायकल से आती दिख गयीं, वे कोचिंग क्लास से वापस लौट रही थीं। उन्होंने तुरन्त लड़कियों को रुकवाया और 3 किलो आलू, 2 किलो प्याज ख़रीद कर उनके सायकल के सामने लगी बास्केट में रखवा कर घर को रवाना कर दिया और ख़ुद सखी के साथ टहलते हुए घर को चली आयीं।
घर पहुँचने पर उन्होंने देखा, बैठक में बेटे के साथ उसके दो सहकर्मी बैठे चाय पी रहे थे। बहू दोनों अम्माँओं के लिए भी चाय ले आयी।
दुआ-सलाम के बाद बेटे के एक सहकर्मी रघुवीर ने वहाँ रखे आलू-प्याज की थैलियों को देखकर बातों-बातों में बताया कि आलू दस रुपये और प्याज पन्द्रह रुपये किलो के भाव से कल-परसों ही वे घर के लिए कई किलो लेकर आये हैं, घर पर कई मेहमान हैं तो सब्जियों की खपत अभी कुछ बढ़ गयी है इसलिए।
चाय पीकर वे सभी तो अपने-अपने घर चले गये मगर इधर रुनू की दादी के दिलोदिमाग में हलचल मच गयी। वे चाय का कप हाथ में लिये भौंचक्की-सी बैठी रह गयीं। चाय का घूँट गले से उतरने से इनकार करने लगा। लगता है कुछ हानि हो गयी है उन्हें आज के सौदे में।
छोटे-मोटे जोड़-घटाव वे पहले से जानती थीं, कुछ दिनों पहले ही उन्होंने हानि-लाभ वाला गणित सीखा है पोती से। मन ही मन वे हिसाब लगाने लगीं कि सब्जी वाले ने उन्हें कितने रुपयों का चूना लगा दिया है, मतलब कितने की उनको हानि हो गयी है।
“रघुवीर के बताये हिसाब से…तीन किलो आलू 30 ₹ के…दो किलो प्याज भी पन्द्रह रुपये किलो के हिसाब से 30 ₹ के…दोनों मिलाकर, 30 अउ 30…40, 50, 60 (वे उँगलियों पर दहाई-दहाई करके जोड़ने लगीं।) मतलब सिर्फ 60 ₹ का सामान देकर नासपीटे ने 100 ₹ लूट लिये हमसे, ‘साफ कहना..सुखी रहना’ बोल-बोल कर दुःखी कर दिया हमें तो निगोड़े ने!…हाय रे मेरे 50 रुपये..नहीं.. नहीं शायद 40 रुपये मुफ्त में चले गये!”
वे सदमें में आकर हाय-हाय करती अपने आप से बोलीं और फिर मन मसोस कर निश्चय किया कि इस चालीस रुपये की हानि की भरपाई के लिए वे चार दिनों तक चाय नहीं पियेंगी।
दूसरे दिन सुबह ही चाय की तलब ने उन्हें बेचैन कर दिया लेकिन नुक़सान की भरपाई के लक्ष्य पर अडिग उन्होंने बहू से चाय के लिए मना कर दिया। शाम को भी लाख मन ललचने के बाद भी नहीं पिया तो नहीं पिया। रुनू के द्वारा कारण पूछे जाने पर बोलीं कि उनको उनकी गलती और लापरवाही के कारण कुछ घाटा लग गया है जिसको वे चुकता करके ही चैन पायेंगी, तभी फिर से चाय पियेंगी।
अपनी छोटी से छोटी भूलों पर ख़ुद को सज़ा देने की दादी की इस आदत से वाकिफ़ रुनू अब कुछ नहीं बोली, बस मुस्कुरा कर स्कूल के लिए निकल गयी।
दूसरे दिन सुबह से उनका सिर दर्द से फटा जा रहा था। सालों से चाय की आदत थी, सुबह-शाम अगर समय पर न मिले तो उनका माथा भन्नाने लगता था और इधर वे चार दिनों के लिए चाय के अनशन पर मन ही मन अड़ी हुई थीं।
नाश्ते के बाद बर्तन धो रही घर की मेड रमिया उनकी बहू से बातें कर रही थी। अचानक दादी के कानों में उसकी कही बात पड़ी,
“हरी सब्जियन के दाम में तो आग लगी हुई है दीदी! …एही खातिर हम लोग रोज भात के साथ या तो पतली दाल बना लेत हैं या फिर आलू की रसेदार सब्जी…महँगे तो ई भी हैं, फिर भी हरी सब्जियन से सस्ते पड़त हैं! …कल ही 50 रुपिया के दू किलो आलू लाइन हैं गुड्डी के बापू, अउर 30 रुपिया किलो के प्याज हम आज ही सुबह खरीदी हैं कि ऊके बिना भी काम नाहीं चलत!”
दादी इस बार ख़ुद हिसाब नहीं लगा पा रही थीं शायद तो उन्होंने कहीं जाने के लिए तैयार होकर बगल से गुजर रही रुनू को पकड़ा और हिसाब पूछने लगीं,
“ये बता बिटिया! 50 रुपिया के दो किलो आलू, तो तीन किलो के कितने हुए? …और 30 रुपिया के एक किलो प्याज तो दो किलो के कितने हो गये?”
“दादी, इस हिसाब से आलू के 75 रुपये और प्याज के 60 रुपये हुए और दोनों के मिलाकर 135 रुपये हो गये। मगर आप ये सब क्यों पूछ रही हैं भला?…आपने तो कल ही खरीदे न दोनों चीजें!”
“हाँ, सौ रुपिया के लिये थे बिटिया, तो इस हिसाब से 35 रुपिया बच गये क्या हमारे?”
“बिल्कुल दादी, आपने एकदम सही-सही जोड़ लिया है इस बार तो!”
पोती जो दादी को रोज थोड़ा-बहुत गणित और अंग्रेजी सिखाती रहती थी, प्रशंसा में उनके पीठ थपथपाती हुई बोल पड़ी। तब दादी ने तत्काल अपने कुर्तेनुमा ब्लाउज के खीसे से 50 रुपये का नोट निकाला और उसे थमाते हुए कहने लगीं,
“तो लो बिटिया, जाओ, उन बचे रुपियन के रबड़ी-जलेबी लिआओ, हम दोनों के लाने!…दोनों दादी-पोती मज़े करेंगी आज! …ऊ का कहती हो तुम लोग…इंजाय, इंजाय करेंगी हम दोनों!!”
दादी अपनी बची-खुची सुन्दर बत्तीसी चमकाते हुए जब बोलीं तो रुनू जोरों से खिलखिला पड़ी, अपनी प्यारी दादी की इस जिन्दादिली पर। इस उम्र में भी एन्जॉय करने का उनका उत्साह और हानि-लाभ का उनका अनोखा हिसाब समझ कर उसने उन्हें कस कर गले से लगा लिया और उनके पोपले गालों पर चुम्बन की बौछार कर दी।।
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स्वरचित, मौलिक
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़
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