“सौतेला ” – हरी दत्त शर्मा : Moral Stories in Hindi

 ” जिम्मेदार और परिश्रमी व्यक्ति के जीवन में कठिनाई और परेशानी कभी कभार आ सकती हैं पर निकम्मे और गैरजिम्मेदार लोगो का पीछा जीवन भर नहीं छोडतीं। ” नारायण जी अपने बड़े बेटे गगन को समझा रहे थे । ” तुम बड़े होने के साथ साथ जिम्मेदार भी हो, मैं तुम्हारे साथ न्याय नहीं कर पाया,और ये लोग भी तुम्हारे साथ अब तालमेल नहीं बैठा पाएंगे  पर तुम संयम बनाए रखना। मेरी बसीयत से जो भी मिले स्वीकार कर लेना और हो सके तो मुझे…. मुझे… ”  नारायण जी बात पूरी करने से पहले ही शांत हो गए। गगन के हाथों में से उनके हाथ सरक गया। वह दैवलोक जा चुके थे।

   आज पूरा एक महीना ही हुआ था नारायण जी को गुजरे हुए। आज ही गगन अपनी पत्नी के साथ पुराने छोटे से घर में रहने के लिए आया था। मन में बेचैनी जरूर थी पर दुखी नहीं था। घर में सामान सही से लग चुका था। पत्नी दीपा चाय बना कर दे गई थी सो गगन सोफे पर अधलेटा सा होकर थकान उतारते हुए चाय पी रहा था ।नारायण जी के जाने से लेकर आज तक का घटनाक्रम उसकी आँखों में दौड लगा रहा था।

   गगन जब दो साल का था कि माँ गुजर गई। नारायण जी का जीवन असहज हो गया। गगन की देखभाल के लिए कोई नहीं था। कामबाली घर में खाना बर्तन और साफसफाई तो कर जाती थी लेकिन गगन की जिम्मेवारी लेने से उसने हाथ जोडकर साफ मना कर दिया।

 नारायण जी का व्यापार अच्छा चल रहा था पर अब वह न दुकान खोल पा रहे थे और ना ही गगन को संभाल पा रहे थे। छोटे भाइयों के परिवार वालों ने भी कोई आत्मीयता नहीं दिखाई। मित्रों और शुभचिंतकों की राय मानते हुए दूसरी शादी करने के लिए तैयार हो गए।

 शीतला देवी गगन की दूसरी मां बनकर घर में आ गई।

सब कुछ ठीक से चलने लगा। गगन की देखभाल के अच्छे से होने लगी। पर नियति कुछ और ही चाहती थी।

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   अब गगन बड़ा होकर स्कूल जाने लगा था ।नारायण जी ख़ुश भी थे और निश्चिंत भी। तभी शीतला देवी ने आकाश को जन्म दिया। भाई के रूप में खिलौना पा कर  गगन बहुत ही खुश हो रहा था।

   मगर शीतला देवी में अचानक परिवर्तन का भंडार फूट पड़ा। वह बात बात पर गगन को झिडकने लगीं। कभी गुस्से में हाथ झटक देती तो कभी अलग धकेल देतीं।

गगन की बालसुलभ शरारतों को शिकायतों का पुलिंदा बनाकर नारायण जी के सामने परोसने लगीं।

  वह भी कभी कभी गगन को डांट देते। अब वह सहमा सहमा सा रहने लगा। समय गुजरता गया। शीतला देवी ने एक और बेटे बादल तथा बेटी बरषा को जन्म दिया। नारायण जी का परिवार भी उनके व्यापार की तरह बड गया।

  रोज की शिकायतों ने बहस का और फिर छिटपुट झगड़े का रूप ले लिया। गगन पूरी तरह उपेक्षित होकर रह गया। न तो वह इतना समझदार था और ना ही इतना साहस कि अपनी उपेक्षा का कारण माँ से पूछ सके या पिता नारायण जी को अवगत करा सके।

  गगन को वह सब अब उपलब्ध नहीं हो रहा था जो परिवार के अन्य बच्चे आकाश, बादल और बरषा को आसानी से मिल रहा था। वह उदास रहने लगा, पढाई में पिछडने लगा था। मां और भाई बहन अपने साथ टिकने नहीं देते और पिता के सानिद्य से भी दूर ही रखा गया।

नतीजा ये कि दसवीं की परीक्षा में असफल हो गया।

 फिर क्या था, मां की डांट, उलाहने, भाई बहन के ताने और पिता झिडकना चरमसीमा पर पहुंचने लगा।

   बहुत कोशिश करने के बाद भी जब घर की चिखचिख का समाधान नहीं निकला तो नारायण जी गगन को अपने   साथ दुकान पर ले जाने लगे। पढाई छूट गई।

  गगन का बालसुलभ मन नहीं समझ पाया कि माँ उसी के साथ एसा व्यवहार क्यों करती है। उसकी नजर में मां आज भी एक आदर्श मां ही थी जैसी स्कूल की किताबों में पढाई जाती है। पिताजी ने भी यही समझाया था कि माँ काम के बोझ से थक जाती है इसलिए कभी कभी गुस्सा कर बैठती है। वह मान जाता और पुनः दुकान पर पिता का हाथ बंटाने लग जाता।

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  समय सरकने लगा। गगन पिता के व्यापार में सिद्धहस्त हो गया। सत्ताईस बरस का हो गया तो नारायण जी को उसकी शादी की चिंता होने लगी।

 ” अब ढंग से पढा लिखा होता तो कम से कम अच्छे और बराबरी बाले परिवार की पढीलिखी तो मिल जाती, ”  जब नारायण जी ने घर में जिक्र किया तो शीतला देवी मुँह बिचकाती हुई बोली, ” मेरे मुकद्दर में सुख तो है ही नहीं, वरना इतना लाड प्यार लुटाने के बाद भी पढाई छोड़ दी। अब तो कोई गंवार अनपढ़ भले ही मिले। समाज में मजाक तो हमारा ही उड़ाया जाएगा। “

 नारायण जी सुन भी रहे थे और समझ भी। बचपन से लेकर आज तक गगन को लेकर जितनी शिकायतें की गई थीं, अब सब समझ आ गई थीं।

   नारायण जी ने जल्द ही एक कठोर निर्णय ले लिया। दुकान के एक बहुत पुराने और ईमानदार नौकर बलराम का चेहरा सामने आ गया। बलराम पैसे की तंगी से बेटी की शादी में होने बाली देरी से दुखी थे। आर्थिक स्थिति से परेशान बलराम की बेटी को नारायण जी ने अपने खर्च पर पढाया भी था और ‘फैशन डिजाइनिंग ‘का कोर्स भी कराया था। बात मन को भा गई और बलराम की बेटी दीपा का हाथ गगन के लिए मांग लिया।

   घर में अब कोहराम मच गया। शीतला देवी, आकाश, बादल और यहाँ तक कि चौदह साल की बरषा भी, सबको अपनी अपनी नांक अलग अलग कटती हुई दिखाई दे रही थी। पर नारायण जी अपने फैसले पर अडिग ही रहे।

  विवाह संपन्न हुआ, दीपा बहू बनकर घर में आ गई। शीतला देवी पहले से ही गगन से कम ही बात करती थीं, अब तो बिलकुल भी बोलना बंद कर दिया। छोटे भाई बहन तो पहले से ही गगन को अपने स्टेटस का नहीं समझते थे।

   गगन ओर दीपा को घर के पीछे बाले हिस्से में बने कमरे और किचन में भेज दिया गया, जिसका दरबाजा पीछे बाली गली में ही खुलता था। मुख्य घर में आने जाने पर अब रोक टोक होने लगी तो गगन और दीपा का बाहर आना जाना पिछली गली के दरबाजे से ही होने लगा

   शीतला देवी के तीनों बच्चों में रईशी के भरपूर लक्षण बचपन से ही पनप रहे थे अब और भी मजबूत हो गए।

 आकाश अपने लिए एक बहुत बड़ी कंपनी खड़ी करने के सपने देख रहा था तो बादल और बरषा फिल्मों में  कैरियर  बनाने की जिद पर अडे थे।

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 आकाश अक्सर शराब के पैग लगाकर बड़ी बडी कंपनियों के आॅनर की तरह बड़ी बड़ी बातें करते हुए घर में घुसता तो बादल सिगरेट के धुएँ के छल्ले उडाते हुए अपने आप को किसी सुपर स्टार से कम ना समझता।

बरषा सारी दीन दुनिया से दूर सोशल मीडिया पर अपनी जिंदगी जी रही थी।

  नारायण जी ने आकाश को रोकने की कोशिश की तो घर में बबाल खड़ा हो गया और बंटवारा नाम का तूफान आ गया। फिर शांत न हुआ। सब माँ बेटे एक ओर और नारायण जी अकेले दूसरी ओर। बंटबारे का मुख्य कारण गगन को ही ठहराया गया जबकि गगन को सपने में भी भनक न लगी।

 कई  दिन तक जब कोई बात न बनी तो मन मारकर नारायण जी को हिस्सा बांट करने का निर्णय लेना पड़ा।

    रात को सब लोग बैठक में शामिल हुए। सबकी इच्छा को दरकिनार करते हुए नारायण जी ने गगन को भी बुला लिया था।

   ” अब क्योंकि पानी सिर से ऊंचा हो गया है तो, ” नारायण जी ने अपना फैसला सुनाना शुरू किया। ” तो अब सबके लिए ये जानना जरूरी है कि गगन मेरी पहली पत्नी से है और…. “

  गगन को एक झटका महसूस हुआ। एक ही क्षण में शीतला देवी के व्यवहार का कारण समझ में आ गया। वह भौंचक्का सा कभी अपने पिता नारायण जी को देखता तो कभी शीतला देवी को। अपनी भावनाओं को आहत पाकर भी गगन ने संयम बनाए रखना ठीक समझा।

  ” और कानूनी तौर पर… ” नारायण जी ने अपना फैसला जारी किया, ” उसका सारी संपदाओं में आधा हिस्सा बनता है तो…. तो अब जबकि यह घर तुम्हारी माँ के नाम हमारी शादी से पहले ही कर दिया था तो… “

  गगन के लिए यह एक और झटका था। दर असल शीतला देवी ने शादी ही इसी शर्त पर की थी कि उनकी आने वाली संतान का भविष्य सुरक्षित करना होगा।

  ” तो अब बाजार की दुकान और पीछे बाला मकान गगन को देना चाहता हूँ, उसे अनुभव भी है और हकभी।”नारायण जी ने फैसला जारी रखा, ” वाकी शहर के बाहर की जमीन और बैंक का सारा धन शीतला देवी के लिए है, ” नारायण जी ने अपना फैसला सुना दिया ।

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  संनाटा पसर गया। शीतला देवी विना कुछ कहे उठकर चली गईं।

   ” डैड, ये आपने ठीक नहीं किया। हमें मंजूर नहीं है। ” आकाश भी खड़ा हो गया। एक एक कर सारे बाहर निकल गए। गगन पिता की परेशानी समझ सकता था,पर कुछ न कह सका ना कुछ कर सका।

   अगले दिन सबेरे ही शीतला देवी ने वकील बुला कर नारायण जी के सामने पेश किया और उनकी इच्छा के विरुद्ध बसीयत लिखवाली। भविष्य में फिर से कोई महाभारत न हो, इसलिए नारायण जी ने शीतला देवी की हर बात मान ली और बसीयत पर हस्ताक्षर कर दिए।

   इस फैसले में गगन को सिर्फ पच्चीस लाख रुपए देने की बात लिखी गई। न मकान, न दुकान और ना ही कोई ज़मीन।

   हस्ताक्षर करने के बाद नारायण जी बिना नाश्ता किए ही दुकान निकल गए। आज उनका मन और तबियत दोनों ही ठीक न थे। अंतरमन में बहुत कुछ टूट गया था रात को घर लौटने के बाद भी कुछ नहीं खाया। दो तीन दिन बाद ही बिस्तर पकड लिया और फिर न उठ सके। गगन को आवाज देकर बुलाया और उसके सामने ही दुनिया छोड़ गए।

   गगन नहीं समझ पाया कि सब कुछ इतना जल्द कैसे हो गया। अभी चिता ठंडी भी न हुई कि शीतला देवी ने गगन के हाथों में पच्चीस लाख रुपए पकडाते हुए  एक महीने में घर खाली करने का आदेश दे दिया। गगन भौंचक्का सा हो कर मां की निष्ठुरता को देखता रह गया ।

आज पहली बार उसके आंसू छलक पड़े।

  ” तुम से अलग होकर कहाँ जाऊं माँ? “गगन बोल पड़ा, ” मैं आज तक नहीं समझ पाया कि मेरा अपराध क्या है?

 शीतला देवी पूरी बात सुनने से पहले ही जा चुकी थीं।

     बस, महीने से पहले ही गगन ने एक छोटा सा पुराना मकान तलाश कर खरीद लिया और आज अपनी पत्नी दीपा के साथ इस घर में आ गया।

    “चाय क्यों नहीं पी? कहाँ खो गए? “

 दीपा की आवाज़ से गगन उचक गया जैसे विचारों के समंदर में किसी ने पत्थर फेंक दिया हो। ” कुछ नहीं दीपा, सब ठीक हो जाएगा ” कहते हुए गगन उठ कर खड़ा हो गया और नहाने चला गया।

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  दुकान हाथ से जा चुकी थी और मकान खरीदने के बाद पैसा भी नहीं बचा तो गगन के सामने रोजगार की समस्या आ गई। उधर बलराम और कुछ अन्य लोगों को भी आकाश और शीतला देवी ने दुकान से हटा दिया।

  परिश्रमी और ईमानदार लोगों के लिए ईश्वर हजार रास्ते खुले रखता है। गगन को भी रास्ता मिल गया। बाजार में ही परिचित दुकानदारों के सहयोग से एक बंद पड़ी दुकान  किराए पर मिल गई। पुराने व्यापारी जो नारायण जी को कपड़े की सप्लाई करते थे, उनके ही सहयोग से कुछ नगद कुछ उधार लेकर कपडा भर लिया। अपने ससुर और पुराने अन्य सहयोगियों को भी काम पर बुला लिया।

   बाजार वही था, लोग वही थे और प्रतिष्ठा भी वही थी बस दुकान बदल गई थी। पर गगन और बलराम के पास सालों का अनुभव भी था अतः महीने भर में ही व्यापार चल पड़ा।

  उधर शीतला देवी ने अपने छोटे भाई को मालिक बनाकर दुकान पर बैठा दिया। रोजाना शाम को कभी शीतला देवी तो कभी आकाश दुकान पर जाते और दिन भर का हिसाब लेकर नगदी उठा लाते।

  परिश्रम किए विना हाथ लगने वाला धन मनुष्य को उन्मादी और मदांध बना देता है। ऐसा नारायण जी कहा करते थे। हुआ भी वही, शीतला देवी के पुत्र और पुत्री तो पहले से ही हवा में उछल रहे थे, अब और ऊंची उड़ान भरने लगे।

   एक एक कर अलग अलग दो गाडियां घर में आ गईं, बड़े बड़े लोगों से अब अधिक उठना बैठना होने लगा। अपने अपने सपनों के संसार की ओर दौड लगा दी। कोई बड़ी कंपनी खड़ी करने निकल पड़ा तो कोई फिल्म इंडस्ट्री की ओर।

    विना मालिक के और धन की अधिक निकासी से दुकान की गति धीमी पडने लगी और खाली खाली सी दिखने लगी। और आय का एकमात्र साधन ठप हो गया,पर किसी की उड़ान में रत्ती भर भी कमी नही आई।

      ऊपर से एक और चमत्कार हुआ जो शीतला देवी के अरमानों पर पानी फेर गया। आकाश रोहिणी से शादी कर घर ले आया। ” तुम नहीं समझोगी माँ, रोहिणी एक ‘सीए ‘ है और बहुत इंटेलीजेंट भी, ” आकाश ने माँ को समझाया, ” ये मेरी कंपनी के ‘प्रोजेक्ट ‘ पर काम कर रही है, बहुत जल्द ही आप एक बड़ी कंपनी की मैनेजिंग डाइरेकटर होगीं “।

  तीर तो शीतला देवी के हाथ से पहले ही निकल चुका था, आज कमान भी हाथ से चली गई। अपना सा मुंह लेकर शीतला देवी अवाक सी खड़ी रह गयीं।

   रोहिणी आते ही घर में फैल गई। अब घर की बैठक कंपनी के सिलसिले में होने बाली मीटिंग के लिए घेरली गई, दूसरा बड़ा कमरा आकाश और रोहिणी का ‘वर्क शाॅप ‘ बन गया। एक ‘पर्सनल बैडरूम ‘ तो चाहिए ही था सो बरषा और बादल का कमरा था ही,  जो आजकल खाली रहता था। न चाहते हुए भी शीतला देवी को बरषा और बादल का सामान अपने ही कमरे में रखना पड़ा।

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   वैसे भी वह दोनों महीने दो महीने में एक दो दिन के लिए ही घर आते थे। मुंबई में फ्लैट किराए पर लेकर डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर के चक्कर लगाते रहते।

   कंपनी लगाने के लिए आकाश को बहुत सारे पैसों की जरूरत थी। शीतला देवी के पास बेंक में जरूरत का दसवाँ हिस्सा भी नहीं बचा था सो अब बंद सी पड चुकी पैत्रिक दुकान और शहर के नजदीक बाली जमीन को बेचने का दबाव बनाया जाने लगा।

  अपने हाथ से सब कुछ फिसलता देख शीतला देवी ने भरपूर विरोध किया पर एक न चली। आकाश अब बेहूदगी पर उतर आना चाहता था।

   ‘ दुकान बिकाऊ है ‘ का बोर्ड देख कर गगन के पैरों तले नीचे की जमीन हिल गई। फिर कुछ सोचते हुए अपनी दुकान पर चला गया। बलराम जी से सलाह मशविरा लेकर दुकान खरीदने का मन बना लिया। अभी इतना तो नहीं कमा पाया था कि दुकान की पूरी कीमत जुटा सके तो बैंक से लोन ले लिया।

   कुछ ही दिनों में सब कुछ बिक गया। शीतला देवी का बैंक खाता भी खाली हो गया। कंपनी उठाने का काम जोर पकड गया।

       संबंधित सरकारी विभागों के अधिकारियों की घर बुला कर आव भगत की जाने लगी। बड़े बड़े होटलों में डिनर कराया जाता, मंहगी मंहगी बोतलों से सत्कार किया जाता।

     अब शीतला देवी को कोई न कुछ पूछता और ना ही कुछ बताता।  वह अपने कमरे में ही सिमट कर रह गई। बैठक या किसी और कमरे में आने जाने से ‘डिसटरव मत किया करो मां ‘ कहकर मनाही करदी गई थी। अपने अकेलेपन और संनाटे भरे कमरे में शीतला देवी के पास मुकद्दर को कोसने के अलावा और कोई काम नहीं बचा था। अपने स्वार्थ और लालच वश किया गया सगे और सौतेले का फर्क अब झकझोरने लगा। नतीजतन उदास, निराश और बीमार रहने लगीं। कोई सुध लेने बाला पास नहीं था। कभी कभी आकाश डाक्टर को ले आता था।

   पर क्योंकि खांसी और कराहट की आवाज़ से रोहिणी को  परेशानी होने लगी तो शीतला देवी को घर के उसी पिछले हिस्से में पहुंचा दिया गया जहाँ कुछ दिन गगन को रहना पड़ा था। अब न कोई सुनने बाला और ना ही देखने बाला। खाना बनाने बाली सुबह शाम खाना रख आती और झूठे बर्तन उठा लाती।

 बादल और बरषा भी महीनों से नहीं आए थे।

  समय कब और किसके लिए रुका है जो शीतला देवी के लिए रुकता, बीमारी बढती रही और अब चलना फिरना तो दूर, बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थीं।

     एक दिन किसी पडौसी ने गगन को शीतला देवी के हालात से अवगत कराते हुए कहा कि वह तुम्हें बहुत याद करती हैं और अकसर आँसू बहाती रहती हैं।

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 ” जानता था कि एक दिन ये भी हो कर रहेगा। ” गगन की आँखें नम हो गईं।

     कुछ ही देर में वह शीतला देवी के सामने था। गगन को सामने आया देख उनकी रुलाई फूट पड़ी।कुछ बोल न सकीं बस आंसुओं की धार बहती रही।

    ” चल उठ मां, कुछ मत बोल, सब ठीक हो जाएगा, चल, घर चल। ” गगन ने कुछ भी नहीं पूछा। सहारा देकर मां को खड़ा किया और अपने घर ले आया।

 ” ये भी आपका ही घर है माँ जी, ” दीपा ने शीतला देवी को पलंग पर बिठा कर अपनी चार महीने की बेटी को गोद में डालते हुए कहा, ” और ये है आपका खिलौना। “

   “मैं कितना निष्ठुर और लालची थी अपने अहंकार में, “शीतला देवी ने दीपा का हाथ कसकर पकड लिया। ” सौतेले व्यवहार में सारे हक हिस्सा छीन बैठी थी मैं, मेरे पास शर्मिंदगी के अलावा और कुछ भी नहीं बचा। मुझे मांफ…… ” कहते कहते फफक पडीं।

  ” दुखी मत होना माँ, ” तेरी निष्ठुरता मेरे लिए किसी बरदान से कम साबित नहीं हुई। अगर पढलिख पाया होता तो सगे और सौतेले में फर्क करना सीख गया होता।, ” गगन पास में बैठता हुआ बोला। ” और रही बात हिस्से की, तो अब तू मिल गई तो हिस्सा क्या, दुनिया का सारा खजाना मिल गया। “

   दीपा चाय बना कर ले आई। फिर सबने पहली बार एक साथ बैठ कर चाय पी।

   दिन गुजर गए। आकाश की कंपनी का प्रोजेक्ट किसी झंझट में फंस गया। सरकारी अधिकारियों और नेताओं की अनुचित और अनैतिक मांगों को पूरा न कर पाने की स्थिति में सारा पैसा डूब गया। बरबाद होने की स्थिति में मां को ढूंढता हुआ आकाश गगन की दुकान पर पहुंच गया। नशे की हालत में ढंग से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। 

   गगन जानता था कि आकाश पैसा बरबाद कर चुका है। उसने उठ कर सबके सामने ही दो झंनाटेदार  तमाचे  आकाश की कनपटी पर जड दिए और बोला, ” न मैं दुष्ट था और ना हूं। पर ये बहुत जरूरी था तुम्हारे लिए। पहला तमाचा पिताजी की दुकान और प्रतिष्ठा बेचने के लिए था और दूसरा मां को घर से निकालने के लिए।वैसे ये काम पिताजी या मां को बहुत पहले ही कर देना चाहिए था पर अफसोस, ये भी तुम्हारे भाग्य में नहीं था।  अगर अभी थोड़ा सा लिहाज बचा हो तो शाम अच्छे बेटे की तरह घर पहुंच जाना, माँ मेरे ही घर में हैं। ” गगन ने कालर पकड कर घर की ओर इशारा कर दिया।

     रात को गगन जब घर लौटा तो आकाश और रोहिणी को किसी अपराधी की तरह नजरें झुकाए बैठे पाया। गगन को आता देख आकाश उसके पैरों में गिरकर फूटफूट कर रो पड़ा।

  ” उठो, होश में आ जाओ और कल…. ” गगन ने आकाश के सिर पर हाथ फिराते हुए कठोरता बरकरार रखी, ” कल से समय पर दुकान खोल लेना। आज भी दुकान अपनी ही है। दीपा के नाम। दस साल तक लगातार ईमानदार बन कर मेहनत से नौकरी करोगे तो तुम्हारी दुकान तुम्हें फिर से बापस दे दी जाएगी “.

  “और हाँ, ” गगन कपड़े बदलते हुए बोला, ” उस गधे बादल और पागल लड़की को भी बोलो कि सुपर स्टार बन गए हों तो अब घर बापस लौटें,…. घर की नाक कटा कर नाम नहीं कमाया जाता। “

     ” अब बस भी करो, ” दीपा बीच में बोल पड़ी, ” कल तक तो घर बिखरने की चिंता में सोते तक नहीं थे, और अब जब सँवरने चला है तो सुनाते ही चले जा रहे हो। “

   पास में बैठी शीतला देवी के आँसू बरस पड़े, कुछ खुशी से और कुछ पश्चाताप से।

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कहानी – “सौतेला ” (मौलिक)

 – हरी दत्त शर्मा (फिरोजाबाद )

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