आज इशिता अपने पापा की लिखी पुस्तक के विमोचन समारोह में शानदार स्टेज पर खड़ी है। पुस्तक का नाम “सत्य की खोज” है। उसके पापा का नाम स्वर्गीय करण सिंह है। जीते जी उन्हें पता ही नही था, कि उनकी प्यारी बेटी, उनके लिखे शब्दो को एक पुस्तक की मंजिल तक पहुँचाएगी।
“अब गणमान्य अतिथियों, उनके डायरी के शब्दों को सुनिए, जिन्हें मैंने कहांनी का रूप दिया।” ये इशिता ने माइक में कहा
1946 का वर्ष था, अपनी जिद से ही दुनिया चलाने वाले करण सिंह ने कभी भी किसी और की बात नही मानी। वैसे तो महाराष्ट्र के जमींदार के बेटे हैं, बाबूजी ने चारों बेटों को स्नातक की डिग्री दिलवाई। अंग्रेजो के दुर्व्यवहार के कारण भरा पूरा गांव होते हुए भी कभी कभी उजाड़ नजर आता था। उस समय ये जरूरी नही होता था, कि लड़का कुछ करता है या नही, लड़का होना ही अपने आप मे उपलब्धि थी। इसी कारण शिखा जैसी सुंदर पत्नी भी मिल गयी। पर उनके अंदर का विवेक उन्हें कुछ बढ़िया काम करने को उकसा रहा था और उन्होंने शहर की राह पकड़ ली।
और शहर आने के कुछ दिन बाद ही करण सिंह को इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गयी।
पुलिस थाना के ही क्वार्टर में निवास कर रहे, करण सिंह इंस्पेक्टर ने आकर एक दिन पत्नी शिखा से कहा, “सुनो, सामान पैक करना शुरू करो, बच्चो को भी तैयार रखो, मेरा अंतःकरण तड़प रहा है, यहां की व्यवस्था देखकर, बिना समय दिए, मैं कहूंगा, चलो।”
उस दिन थाने से वापस आते ही कहा, “कल सुबह हम सब यहां से प्रस्थान कर नागपुर बड़े भैया के पास चलेंगे।”
सीधी साधी शिखा परेशान हो गयी, तीन बेटियों के साथ जाकर जेठ जेठानी के पास रहना कहाँ तक उचित होगा।
समझा कर बोली, “सुनो, अच्छी खासी तनख्वाह है, रुतबा है, फिर क्यों सब छोड़कर जाना चाहते हैं, मुझे भय लग रहा।”
एक तीखी सी डांट पड़ी, “जब कुछ जानती नही हो तो शिक्षा मत दो, चुप रहो। पता है, मैंने क्या देखा। दरवाजे की संध से छुपकर नजर पड़ी, एक हिन्दू नेता बहुत दिनों से नौजवानों के समूह बना रहा था। उसे अंग्रेज पकड़ लाये, और गले पर छुरी चला कर उसका काम तमाम कर दिया। मुझे समाचारपत्र में रिपोर्ट भेजने बोला गया, फलाना नेता कहीं गुम हो गया है। मैं किसी के खिलाफ कुछ बोल नही सकता, वरना पता नही मेरे साथ ये लोग क्या करेंगे। हिंदुओ का ये हश्र देखने की शक्ति मुझमें नही। बाबूजी ने मुझे गाँधीजी की कथाएँ सुनाकर ही बड़ा किया, मैं भी सत्य, अहिंसा का पुजारी हूँ।” और वो फफक कर रो पड़े।
“चलिए, तब तो ठीक है, एक रोटी कम खाएंगे, पर अत्याचार न सहेंगे, न देखेंगे।
उस समय बड़े प्यार से अपनी शिखा को निहारते रहे, करण सिंह और सोचते रहे, मेरे जीवन को हमेशा प्रकाशित करने वाली पत्नी को मैं कभी कोई खुशी नही दे पाया, कभी ईश्वर ने मौका दिया, तो सुख से मालामाल करूंगा।
शिखा कम पढ़ी लिखी थी, शिक्षित और अभिव्यक्तियो के अथाह गहरे सागर में हिम्मत नही कर सकी, उतरने की,
बग़ैर सोचे आगे बढ़ चली थी उन नए विचारों के गांधी के नए रूप की गहराई में।
सुबह ही माल असबाब लेकर रेलगाड़ी में बिना रिजर्वेशन सब घुसकर बैठ गए। समान ज्यादा नही था किसी तरह चौबीस घंटे की यात्रा के बाद नागपुर पहुँचे। रिक्शे के बैठकर घर पहुँचे। रेलवे अफसर थे बड़े भैया, करण को बहुत प्यार करते थे, देखकर गले लगाकर सब बातें सुनी और बोले, अपना ही घर है, आराम से रहो। भाभी जरूर कुछ परेशान सी दिखी।
धीरे धीरे समय बीतने लगा, करण सिंह बच्चो को ट्यूशन पढ़ाने लगे, थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी। करण सिंह की एक के बाद एक लड़के की चाह में चार लड़कियां हो गयी और जेठानी के पांच बेटे थे। वो समय था, बेटे की मां हमेशा एक रुतबे में रहती थी और घर का पूरा काम शिखा के भरोसे था।
आखिर वो दिन भी आया, जब कई दिनों के संघर्ष के बाद, हर तरफ भारत माता की जय हो, आवाज़ें गूंज रही थी, सबलोग बहुत प्रसन्न थे। देश आजाद हो चुका था।
कुछ वर्षों बाद पैंतीस की उम्र होने के बावजूद उनकी डिग्रियों के कारण करण सिंह को एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी लग गयी। उनका पढ़ाने का तरीका इतना बढ़िया था, कि पूरे विद्यालय के बच्चे उनको बहुत पसंद करते थे।
इन सबके साथ एक आदत उनमें थी हमेशा से, वो रात में डायरी अवश्य लिखते थे।
इसी स्कूल में पढ़ाते हुए उन्होंने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष गुजार लिए। उनके कई विद्यार्थी डॉक्टर, इंजीनियर बनकर पूरे देश विदेश चले गए।
रिटायरमेंट के बाद मन के खालीपन उन्हें ज़्यादा दिन स्वस्थ नही रख पाया और एक दिन दिल के दौरे से वो दुनिया छोड़ गए।
सारा हाल तालियों से गूंज रहा था, पर इतने शोर और वाह वाह को असली हकदार नही सुन पा रहा था।
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बैंगलोर