राजेन्द्र और उनकी पत्नी इंदु की उनके दोनों बेटे मनीष और आशीष से बहस चल रही थी पर नतीजा कुछ भी नहीं निकल रहा था। बात घर को लेकर हो रही थी।इंदु जी के दोनों बेटे कह रहे थे कि मम्मी पापा इस घर को बेच दो और किसी अच्छी कालोनी में दूसरा अच्छा सा घर ले लेते हैं लेकिन राजेन्द्र और इंदु जी तैयार नहीं हो रहे थे।
असल में इंदु जी के बड़े बेटे की तीन महीने बाद शादी हो रही थी वो चाह रहा था किसी अच्छी सोसायटी में घर ले ले जहां सभी सुख सुविधाएं होती है जैसे ,र्गाड , चौकीदार, लिफ्ट,पार्क सभी सुविधाएं होती है लेकिन इंदु और राजेन्द्र जी तैयार नहीं हो रहे थे । राजेन्द्र जी तो दो तीन बार मना करने के बाद चुप हो गए
लेकिन इंदु अपनी बात पर अड़ी रही कि मकान नहीं बेचेंगे। माना कि मकान को बने कुछ समय बीत गया है लेकिन कितनी यादें जुड़ी हैं यहां से कैसे कैसे मकान बनवाया है उन यादों को कैसे छोड़ दूं।इंदु जी अपनी पुरानी स्मृतियों में खो गई जब व्याह कर आई थी राजेन्द्र जी के साथ दो कमरे का छोटा सा किराए का मकान था ,
साथ में सांस ससुर और एक ननद भी थी ।कितनी मुश्किल होती थी इस छोटे से घर में । फिर इंदु को दो बच्चे भी हो गए मनीष और आशीष। परिवार बढ रहा था और परिवार बढ़ता जा रहा था जगह छोटी पड़ती जा रही थी। लेकिन इतने पैसे नहीं थे कि बड़ा घर लिया जा सके
और ऊपर से हर तीन साल में घर बदलना और किराया बढ़ाना, फिर बहन की शादी भी करनी थी तो अपना घर बनाना संभव नहीं हो पा रहा था । सारी जिम्मेदारी यों को पूरा करते करते घर का सपना सपना ही रह गया था।
इंदु अपने परिवार में एक भाई बहन थे । इंदु की मम्मी पहले ही स्वर्गवासी हो गई थी पिता अभी कुछ साल पहले नहीं रहे थे ।उनका अपना घर था जिसमें इंदु के पिता जी ने बेटे के साथ साथ इंदु का भी हिस्सा लिखा था । फिर भाई ने ईमानदारी से बहन का हिस्सा दे दिया ।
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एक बार में अच्छी रकम मिल जाने से इंदु को अपने घर का सपना सच होता नजर आया ।और फिर प्लानिंग करके इंदु और राजेन्द्र जी ने अपना ये छोटा सा आशियाना बनवा लिया था । सपनों और हसरतों का घर था उन दोनों का ।अब दोनों बेटे आशीष और मनीष भी पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी पर आ गए
थे तो वो सोचने लगे कि किसी अच्छी सोसायटी में अच्छा सा घर ले ले । लेकिन इंदु जी बिल्कुल तैयार नहीं थी। कैसे एक एक ईंट इस घर की मैंने लगाई है मैं ही जानती हूं । इंदु जी का कहना था कि इतने समय से यहां रह रही हूं यहां अच्छा लगने लगा है।अब नई कालोनी में कोई किसी को जानता नहीं सबकुछ पास में है बाजार अस्पताल, सोसायटी में सब दूर दूर होते हैं तुम लोग बाहर रहते हो लेकिन तुम लोग समझते नहीं हो।
बच्चों को मां बाप के फिलिंग्स की कोई परवाह नहीं होती उन्हें जो करना है सो करना है । बहुत कोशिशों के बाद भी इंदु जी तैयार नहीं हुई तो आखिर में नये मकान का आइडिया बदलना पड़ा और इंदु जी का अपने घर में रहने का सपना सच हो गया ।
मंजू ओमर
झांसी उत्तर प्रदेश