संस्कार तो गिरवी रख दिये – चेतना अग्रवाल

वह हमारा सपनों का घर था और आपने उसे गिरवी रख दिया।” कहते-कहते काजल की आँखों में आँसू आ गये।

“मुझे भी बहुत दुख है, काजल। लेकिन मैं क्या करता। लड़के वालों की माँग थी गाड़ी की। कहाँ से देता…. कितना जोड़-तोड़ करके शादी का इंतजाम किया था। दो दिन रह गये हैं शादी में। आज सुबह ही समधी जी का फोन आया था, दुल्हन तो नई गाड़ी में विदा होनी चाहिए। आप मेरा इशारा समझ रहे हैं ना। फिर थोड़ी देर बाद शुभम बेटे का फोन आया, पापा जी; मुझे और कीर्ति को होंडा की कार पसंद है। इसलिए पापा जी वही कार लेना और सफेद रंग की ही लेना।”

“तो बताओ, मैं क्या करता। इस समय तो समधी जी से बात करने का भी कोई फायदा नहीं है। तुम चिंता मत करो, मैं जल्दी ही अपने घर का कर्ज उतार दूँगा।” आँखे तो विशाल की भी नम थी, लेकिन काजल को ज्यादा दुख ना पहुँचे; इसलिए एकदम बोला कि “बहुत भूख लगी है, खाना लगा लो।”

काजल और विशाल दोनों ही सोच में थे, किस तरह तिनका-तिनका जोड़कर ये घर बनवाया। एक-एक चीज कितने अरमानों से लगवाई थी। कितने साल उन्होंने किराये के मकानों में ठोकरें खाई थी। इस मकान से उस मकान, जैसे खानाबदोश जिंदगी हो गई थी हमारी। अपनी जरूरतों को कम करके ये सपनों का घर बनाया था। कितनी खुश थी काजल उस दिन। जब इस घर में गृहप्रवेश किया था।

कमरे के बाहर से उनकी बेटी रिया सारी बातें सुन रही थी, वह कमरे में आई, “पापा, क्या दहेज देना इतना जरूरी है कि उसके लिए अपना घर भी गिरवी रखना पड़ रहा है।”

“बेटा, तू चिंता मत कर। मैं सब ठीक कर लूँगा।” एक बेटी का पिता इस समय बहुत विवश होता है।

“पापा, मुझे नहीं पता था कि शुभम मुझसे इसलिए कार के बारे में बात कर रहा है। पापा, प्लीज घर को गिरवी मत रखो। मैंने देखा कितने अरमानों से आपने और माँ ने ये घर बनवाया था। नहीं पापा, घर गिरवी नहीं रखा जायेगा। मैं बात करूँगी शुभम से।”

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“मुझे तुम जैसी बेटी पर नाज है बेटा, लेकिन शादी में केवल दो दिन रह गये हैं; अब बात करने का कोई  समय नहीं रहा।”

तब तक रिया ने शुभम को फोन मिला दिया। “शुभम, ये मैं क्या सुन रही हूँ। तुमने पापा से कार देने के लिए कहा है।”

“तो इसमें क्या गलत किया मैंने। सबको जरूरत होती है कार की। हमें भी होगी।कहीं घूमने जायेंगे तो तुम्हें लेकर रिक्शा में थोड़े ही ना घूमूँगा।” कहकर शुभम हँसा।

“तो फिर मुझे घर भी अलग चाहिए। मैं तुम्हारे संयुक्त परिवार के साथ नहीं रह सकती। मुझे इस घर में अकेले रहने की आदत है।”

“ये क्या बकवास कर रही हो तुम। यही संस्कार दिये हैं क्या तुम्हारे पिता ने।”

“तुम्हारी माँगो में संस्कार तो कहीं लिखे ही नहीं हैं, शुभम। तुम्हारी माँगो में तो फर्नीचर, गहने, रूपया और अब कार ही है। संस्कार तो कहीं नहीं है। इसलिए मैं अपने पिता के दिये संस्कार उनके पास ही छोड़कर आऊँगी।”




यह सुनकर शुभम चुप हो गया।

“शुभम मेरे पापा कार देने के लिए अपना सपनों का घर गिरवी रख रहे हैं, जो मैं कभी नहीं होने दूँगी। आज घर के साथ मैंने अपने संस्कार भी गिरवी रख दिये। मैं आज ही ये रिश्ता तोड़ रही हूँ। क्योंकि जो आदमी अपनी पत्नी की जरूरतें अपने आप पूरी नहीं कर सकता, ऐसे अपाहिज इंसान से मैं शादी नहीं कर सकती।”

रिया की बात सुनकर शुभम बोला, “तुमने मेरी आँखे खोल दी हैं, अपने मम्मी-पापा के कहने से मैं भटक गया था। पापा से कहना, घर गिरवी रखने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे गर्व है कि मेरी होने वाली पत्नी इतनी समझदार है। जो मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर मेरे साथ हर मुश्किल में खड़ी है। तुम दुल्हन बनकर मेरा इंतजार करना। परसों मैं तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर ले जाऊँगा।”

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शुभम से बात करके रिया के सिर से जैसे बहुत बड़ा बोझ उतर गया। वह अपने पापासे बोली, “पापा, अभी जाकर घर के कागज वापस लाइये और ये कागज माँ की अमानत हैं, इन्हें माँ से कभी मत लेना। ये घर हमारे सपनों का घर है, हमने इसे अपने प्यार से बसाया है। इसे हमसे कोई नहीं छीन सकता।”

विशाल जी और काजल ने बेटी रिया को गले से लगा लिया।

दोस्तों अक्सर ऐसा होता है, एक पिता अपनी बेटी की विदाई के लिए खुद बाजार में बिकने को तैयार हो जाता है। यही वह समय होता है जब एक पिता सबसे ज्यादा विवश होता है।

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मैरी रचना मौलिक और स्वरचित है।

धन्यवाद

चेतना अग्रवाल

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