*संघर्ष अभी शेष है* -सरला मेहता 

” माँ माँ ! अब पापा तो वापस नहीं आएँगे, आप कितने भी आँसू बहाओ। चलिए कुछ खाकर दवाई  ले लीजिए। ” गर्विता, माँ वसुधा को दिलासा देते हुए कहती है। 

अभी अभी दोनों लौटी हैं गणतंत्र दिवस  समारोह से। आज गर्विता क पिता शहीद मेजर पुनीत मेहरा जी को मरणोपरांत परमवीर चक्र सम्मान से नवाज़ा गया है। बहुप्रतीक्षित यह पुरस्कार गर्विता के अथक प्रयासों का ही परिणाम है। ईमानदारी की राह में रोड़ों की कमी नहीं। ऑपरेशन स्थल से बरामद शव की पहचान पर उठाए गए सवालों के कारण चार वर्ष से पिता का प्रकरण अटका पड़ा था। 

गर्विता ने हार नहीं मानी और आज अपने मृत पिता को न्याय दिलाने में सफ़ल रही। सच्चाई की कश्ती डोलती अवश्य है पर डूबती नहीं।

माँ के साथ गर्विता अपने छोटे से फ्लेट में जैसे तैसे अभी तक गुज़ारा कर रही है। वकालात की पढ़ाई का अभी एक वर्ष शेष हैं। पापा को न्याय दिलाने व बीमार माँ की तीमारदारी में वह दो साल गंवा चुकी है। 

सरकार की ओर से उन्हें पेट्रोलपम्प अलॉट किया गया है। किन्तु गर्विता किसी शांत जगह पर एक बड़े प्लॉट की माँग करती है। वह जानती है कि माँ को बागवानी का शौक है। उन्हें तितलियों व फूलों से बेहद प्यार है। पापा की ड्यूटी जब भी सरहद पर होती माँ की सुबह होती थी अपने बगीचे में। पारिजात के बिखरे फूलों को बटोरती। फ़िर अपराजिता की बेल पर लटके बैंगनी फूलों को सँवारती। मोगरा व गुलाब अनछुए ही रह जाते, सारा दिन महकाते जो हैं। यही सोच कर माँ को  व्यस्त रखने के लिए शहर से दूर यह प्लॉट उसे सटीक उपाय लगा। सरकार भी उसका प्रस्ताव माँ लेती है। वह ख़ुद भी एक क़ाबिल वकील बन कर पीड़ित लोगों को न्याय दिलाना चाहती है। माँ को खुश देख कर उसे राहत मिलती है।

गर्विता का प्रभावशाली व्यक्तित्व उसकी पहचान है। नख शिख सौंदर्य की बात करें तो उसके सलोने वर्ण पर हिरनी सी आँखें व सुती हुई नासिका, ऊपर से लंबे लहराते केश। जो भी उससे एक बार मिल लेता उसे भुला नहीं पाता। साथ में पापा से पाए अनुशासन ने उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिए हैं। लेकिन पहरावा हमेशा एकदम सादा। माँ टोंकती रहती,  ” कभी वार त्योहार पर तो सजधज कर रहा कर। “


” नहीं माँ मुझे वकीलों जैसा ही रहने दो। ” दो टूक जवाब लापरवाही से देते हुए काला कोट लटकाए चल देती वह अपने काम पर।

बड़े से प्लॉट पर रहने लायक घर बना लिया। यूँ समझिए छोटा सा फॉर्म हाउस। माँ, बेटी व सेविका शारदा आँटी के रहने के लिए पर्याप्त है। शेष जमीन कई तरह के फूलों, फलों व सब्ज़ियों से लहलहाने लगी, माली काका की सहायता से। आसपास की हरियाली निहारते हुए वसुधा सोचती है, ” मेरी बेटी की बगिया में भी बहार आ जाए बस। मेरा क्या ठिकाना, कब चल दूँ।  काश ! परियों की कहानी वाला कोई राजकुमार कहीं से आ जाए। “

   यूँ तो कई राजकुमार दीवाने थे किंतु वकील साहब के सामने सबकी घिग्घी ही बंध जाती। हाँ, एक महाशय  हिम्मत वाले निकले लेकिन उन्होंने भी पहले माताजी से सिफ़ारिश की। वसुधा को सब कुछ ठीक ही लगा। हाँ, उम्मीदवार का विजातीय होना कुछ खटका, ऊपर से सेना में कार्यरत। लेकिन एक सुकून है कि वह संचार विभाग में है, सरहद पर नहीं। वसुधा के लिए बेटी की पसंद ही सर्वोपरि है। वैसे युग स्कूल के दिनों से ही गर्विता को जानता व चाहता भी था। 

एक दिन युग अपनी माँ को लेकर आता है। गर्विता को तो सेना वाले वैसे भी अच्छे लगते हैं। फ़िर भी वह जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेना चाहती है। वसुधा भी बेटी का समर्थन करती है। 

टी वी पर शहीद सैनिकों की पत्नियों के हालात देख सुन कर वसुधा विचलित हो जाती है। वह भलीभाँति वाक़िफ़ है कि ये महिलाएँ भी कुछ काम करना चाहती हैं। किन्तु पीछे से इनके नन्हें बच्चों को कौन सम्भालेगा, यह समस्या उन्हें आगे बढ़ने में बाधक होती है। यही सोचकर वे बेटी से पूछती हैं, ” क्यूँ न हम अपने गैरेज में एक झूला घर शुरू कर दें। हाँ, यह सिर्फ़ सैनिकों के बच्चों के लिए ही होगा। बच्चों के बीच मुझे अच्छा भी लगता है। और इस वीराने में कुछ चहल पहल भी हो जाएगी। “

” माँ ! यह तो आपने बहुत अच्छा सोचा। आपको एक सहायिका की भी ज़रूरत होगी। गैरेज के बगल में दो खोलियाँ भी बनवा लेते हैं। झूलाघर में काम करने वाली  दो महिलाएँ पूरे समय यहीं रह सकेगी।

झूलाघर के उद्घाटन पर युग का परिवार भी आमंत्रित है। युग के साथ टहलते गर्विता पूछ बैठती है, ” तुम्हें कैसा लगा माँ का यह आइडिया ? “

युग ने अनमने भाव से जवाब दिया, ” ठीक है लेकिन तुम्हें तो शांत माहौल चाहिए था ना। “


            गर्विता सोचने लगी कि बगीचे व बच्चे तो सभी को अच्छे लगते हैं,  युग को क्यों नहीं भला ? फ़िर भी युग का अक्सर आना व माँ की सेहत का ख्याल रखना उसे अच्छा लगता है। उसके द्वारा दिए उपहारों से युग की पसंद का भी एहसास हो जाता है। काफी सोच विचार कर गर्विता आखिर अपनी  सहमति दे देती है।

फ़िर क्या था…शहनाइयाँ बजने लगी और गर्विता बन गई दुल्हनियाँ युग की। कुछ माह ससुराल में गुजरे। किन्तु गर्विता, माँ की चिंता से मुक्त कैसे हो सकती है। वह सासू माँ से अपने मन की बात साँझा करती है। वसुधा भी युग की माँ से निवेदन करती है, ” हम एक ही परिवार हैं। आप अपना घर कहीं तो बनवाएंगे ही। क्यूँ न इस खाली जगह में आपके लिए भी घर बनवा लेते हैं। “

सासू माँ की ना नुकुर गर्विता के आगे नहीं चली। सब साथ साथ रहने लगे। युग ने प्रस्ताव रखा कि वह प्लॉट के दूसरे कोने में दो तीन कमरे बनवाना चाहता है। उसे नौकरी के साथ एक नए प्रोजेक्ट पर काम करना है। गर्विता को भी अपने ऑफिस के लिए एक कमरा चाहिए था। वैसे उसका सारा समय माँ व सासू माँ के साथ बीतता है किन्तु रात को नए बेडरूम में आ जाती है। वह भी पति को उनके प्रोजेक्ट में मदद करना चाहती है। अपना पत्नी धर्म भी वह पूरे समर्पण से निभाना चाहती है। किंतु कई बार सोचने पर मजबूर हो जाती है कि शादी के पूर्व इतना प्यार जताने वाले युग को अपने का से ही फुर्सत नहीं। फ़िर ख़ुद ही दिल को दिलासा देती है, ” हो सकता है सरकारी काम की व्यस्तता हो। “

दोनों परिवारों की खुशियों में चार चाँद लगाने एक नन्हीं परी भी आ उतरी आँगन में। वसुधा तो मानो गंगा ही नहा ली। युग की माँ के रूप में एक साथिन मिल गई और बेटी का घर भी बस गया। अचानक झूला घर में आने वाली पाँच वर्ष की बच्ची की माँ का देहांत हो जाता है। वसुधा उस अनाथ की परवरिश का संकल्प ले लेती है। किंतु युग कुछ नाराजी जताता है। गर्विता कुछ समझ नहीं पाती फ़िर भी वह कहती है कि परी का भी कोई साथी भी होना चाहिए। आश्चर्य की बात यह कि उसका नाम भी परी है। गर्विता उसकी माँ का नाम कैसे बदले ? वह अपनी परी को सोनपरी नाम दे देती है। युग अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाता है, ” एक तो झूलाघर को अनाथालय बना दिया, ऊपर से हमारी बेटी का नाम ही बदल दिया। “

अब गर्विता एक जानी मानी वकील बन गई है। उसके पास अधिकतर प्रकरण पीड़ित महिलाओं के ही आते हैं। युग अपने कमरे में घण्टों काम करता रहता है। हाँ बेटी सोनपरी के साथ खेलना कभी नहीं भूलता।  लेकिन परी जैसे ही अंकल अंकल कहते हुए आती है, वह उस झिड़क देता है। तब वह सुबकते हुए दीदी से लिपट जाती है। गर्विता दुलार कर कहती है, ” अरे तुम्हारी दीदी माँ है न तुम्हारे साथ। “


सब कुछ सामान्य होते हुए भी गर्विता को युग का कमरे में देर रात तक काम करना असहज कर देता है। उसके वकीलों वाले दिमाग़ में जब तब खतरे की घण्टी दस्तक दिए बिना नहीं रहती। शक दर परत दर बढ़ता जा रहा है। युग उस कमरे को हमेशा लॉक करके रखता है। पूछने पर कहता कि कुछ ज़रूरी काम के कागज़ात रखे हैं। सरकार ने उसे किसी खास मिशन की योजना का कार्य सौपा है। कभी कभी कुछ संदिग्ध से टोपी वाले व्यक्ति भी आकर कमरे में बंद हो जाते हैं।

    गर्विता की जिज्ञासा बढ़ती जाती है। वह अवसर की तलाश में रहती है युग का भेद जानने के लिए। एक रात को युग सिरदर्द के कारण ठीक से सो नहीं पा रहा है। गर्विता उसे बाम लगा कर नींद के लिए टेबलेट दे देती है। युग के सोने पर धीरे से उसके तकिए के नीचे से चाभी हाँसिल कर लेती है। दस्तावेज़ व लेपटॉप से पता चलता है कि युग देश के सैनिक तंत्र की ख़ुफ़िया जानकारियाँ आतंकियों को भेजता है। अब उसे समझ में आता है कि युग इस अलग थलग जगह पर रहने वाली गर्विता को पत्नी बनाने के लिए क्यूँ झट से तैयार हो गया था। उसकी पसंद तो फैशनपरस्त लड़कियाँ हुआ करती थी। 

वह कुछ सोच पाती, तभी सासू माँ आ जाती है। सब कुछ जान कर वे बेखौफ होकर कहती हैं, ” बेटी, सोचो मत, मैं कई बार समझा चुकी हूँ युग को।

अभी नहीं तो कभी नहीं। तुम फौरन हेडक्वार्टर को  सूचित करो। मुझे नहीं चाहिए ऐसा देशद्रोही बेटा। तुम हो न और मेरी प्यारी पोती परी। बस जी लूँगी बाकी ज़िन्दगी। “

गर्विता बगैर समय गवाएँ  मोबाइल घनघनाती है। हथकड़ियों में युग को जाते हुए देखती है और सोचती है कि संघर्ष अभी शेष है।

स्वरचित

सरला मेहता 

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