संघर्ष – मुकुन्द लाल

 नेताजी के आदमियों ने कहा था कि दौरे से लौटते समय विरोधी पार्टी के लोगों द्वारा करवाये गए हमले में उदय मारा गया जबकि नेताजी घायलावस्था में हौस्पीटल में हैं।

  उसकी मांँ उदय के शव को देखते ही दहाड़ मारकर रोने लगी। अपनी छाती पीटने लगी शोकाकुल होकर। पूरा परिवार विलाप करने लगा। हृदय-विदारक चीख-चीत्कार से वातावरण उद्वेलित होने लगा था।

  अङोस-पङोस के लोगों की भीड़ जमा हो गई। कुछ लोग ढाढ़स बंधाने का प्रयास कर रहे थे। उसकी मांँ के चेहरे से हंसी-खुशी गायब हो गई थी। परिंदों की तरह चहकने वाले उसके भाई-बहन गुम-शुम रहने लगे। उसकी माँ रह-रहकर रोने लगती तब सुप्रिया भी अपने को रोक नहीं पाती। उसकी आंँखों से भी आंँसू बहने लगते। वह भी फफक-फफक कर रोने लगती।

  कुछ महीनों के बाद ही उसके सामने विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई। 

  कुछ रोज तक मातमपुरसी  के लिए उसके घर सगे-संबंधी और मोहल्ले-टोले के लोग आते रहे। नेताजी द्वारा भिजवाई गई छोटी सी अनुकम्पा राशि से कुछ माह तक परवरिश चलती रही लेकिन उसके बाद तंगी का दौर शुरू हो गया। बच्चों की पढ़ाई और परवरिश करना बेहद कठिन लगने लगा।

  मांँ के जेवर भी सेठ-साहुकार के खाते में चढ़ गये।

   सुप्रिया के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी। ऐसी विषम परिस्थिति में उसे बैठे रहना हाथ पर हाथ धरकर, शोभा नहीं देता था।

  पहले तो उसकी मांँ ने नौकरी करने के लिए मना किया लेकिन सुप्रिया के समझाने पर वह मान गई। 

  नौकरी के लिए अखबारों में प्रकाशित रिक्तियों का अवलोकन करने लगी। इम्प्लायमेंट एक्स्चेंज में अपना नाम दर्ज करवाया। उसके कई चक्कर भी लगाये। महीनों भटकने के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। 

  धीरे-धीरे उसका विश्वास नियोजनालय और अखबारों में प्रकाशित सरकारी रिक्तियों पर से उठने लगा

  अमूमन जैसा कि होता है कि सरकारी नौकरियों की चयन प्रक्रिया इतनी जटिल और विलम्बदायी होती है कि तुरंत अभावग्रस्त को राहत पाना लगभग असंभव ही है, जबकि सुप्रिया को तत्क्षण ही राहत की आवश्यकता थी।

  उसने शहर के प्राइवेट कम्पनियों का चक्कर लगाना शुरू किया था। उसी क्रम में उसे हिमांशु से भेंट हुई थी।



  हिमांशु उस कंपनी का एक्जीक्युटिव था। वह था मुलाजिम तेज-तर्रार और वाक-पटु। जब भी वह किसी से बात-चीत करता तो उसको वह  अपने वश में कर लेता था। वह व्यक्तित्व का धनी था किन्तु रसिक था। वह अपनी वाकचातुरी से किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता था।

  पहली नजर में ही हिमांशु ने सुप्रिया कीकमनीय काया को ललचाई नजरों से देख लिया था। और जब उसे पता लगा कि वह बाला नौकरी की खोज में भटक रही है तो उसने बेबाकी से कहा था, “आपका भटकाव अब खत्म हो गया… क्यों आप परेशान हैं उस हिरणी की तरह जो बीयावान जंँगलों में भटकती है पानी की तलाश में जब प्रचंड गर्मी से धरती तप्त हो जाती है… आपकी मुलाकात मुझसे हो गई… समझ लीजिए सारा दुख, सारी मुश्किलें समाप्त हो गई… अपनी सारी कठिनाइयों को,मुसीबतों को मुझ पर डाल दीजिए… गम भुला दीजिये इसी पल से… मैं आपको नौकरी दिलाउंगा और इसी कंपनी में, ठीक मौके पर आप मिली भी हैं।… कुछ रोज पहले ही इस कंपनी का एक कर्मचारी रिटायर हुआ है। मैं डायरेक्टर से बात करता हूंँ आपके बारे में।”

  उसके संवाद से सुप्रिया को ऐसा मालूम पङा मानो उसकी सारी मुसीबतें खत्म हो गई है। 

  इज्ज़त के साथ उसे कम्पनी के कौमन-रूम में बैठाया। उसकी दास्तान सुनी। उसकी व्यथा सुनने के बाद उसने अफसोस जाहिर करते हुए उसको दिलसा दिया। उसी वक्त आनन-फानन में उसने उससे एक आवेदन-पत्र कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के नाम से लिखवाया। फिर एक सप्ताह के बाद मिलने को कहा। 

  कभी-कभी सुप्रिया को लगता था कि उसके इमान में कोई खोट तो नहीं है, जिसके कारण वह मदद करने के लिए तत्पर है, किन्तु दूसरे ही पल उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगती, “छीः!… एक नेक इंसान के बारे में ऐसा सोचना कितना बड़ा अन्याय है… सभी मर्द एक ही तरह के तो नहीं होते… उनमें अचछे भी होते हैं।” 

  एक सप्ताह के के बाद हिमांशु ने सुप्रिया को डायरेक्टर से मिलवाया। उसकी दयनीय दशा को बड़े ही नाटकीय ढंग से उसने उसके सामने उजागर किया। 

  जब डायरेक्टर ने हिमांशु से पूछा था कि उसका उससे क्या संबंध है तो उसने छूटते हुए कहा था कि उसका संबंध इंसानियत का है। वह भी शादीशुदा है और किसी परिवार को चलाने में कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, वह अच्छी तरह समझता है इस बात को। न तो उससे किसी प्रकार का रिश्ता है और न कोई  उसका लगता है। 

  उसकी साफगोई संवाद से डायरेक्टर काफ़ी प्रभावित हुआ था। 

  इस तरह दो सप्ताह के प्रयास और नियुक्ति की प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी करने के बाद उस कंपनी में उसकी नौकरी हो गई थी। 

  इस दरम्यान सुप्रिया को कई बार हिमांशु से मिलना पड़ा था। बात-चीत के क्रम में वह नजरें बचाकर सुप्रिया को कनखियों से देख लिया करता था। 



  नौकरी ज्वायन करने के बाद हिमांशु के प्रति उसका दिल कृतज्ञता से भर गया था। उसे ऐसा लग रहा था कि हिमांशु सचमुच आदमी नहीं देवता है। उसने हिमांशु को इस पुनीत कार्य के लिए आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद दिया था। 

  तब हिमांशु ने विनम्र आवाज में कहा था, “मुझे लज्जित न करें ऐसा वाक्य बोलकर… इतना महिमामंडित न करें मुझे… मैं एक मामूली आदमी हूँ… मुसीबत और मुफलिसी में फंँसे इंसान को मदद करना तो मानव का कर्तव्य है न!… इंसान ही इंसान के काम आता है।” 

  कुछ रोज बाद सुप्रिया ने हिमांशु को अपने परिवार के साथ लंच पर  आमंत्रित किया तो उसने हंँसते हुए कहा था,” अभी तो नौकरी ही लगी है।… देखा जाएगा बाद में फिर कभी… इस खुशी में आप किसी रेस्तरां में एक कप चाय ही पिला दें तो वही बहुत काफी है। “. 

 ” हांँ! हांँ!…” कहते हुए सुप्रिया दफ्तर से थोड़ी दूरी पर स्थित रेस्तरां में हिमांशु को ले गयी। 

  रेस्तरां में बहुत सलीके और मर्यादित ढंग से हिमांशु पेश आया। वह शातिर. दिमाग का मंजा हुआ खिलाड़ी था। वह तुरंत कोई भी ओछी हरकत नहीं करना चाहता था, जिससे हाथ में आई हुई चिड़िया उसकी गिरफ्त से बाहर न चली जाए। चाय पीने के क्रम में  फिर भी उसने कई बार उसकी नजरें बचाकर उसके खूबसूरत चेहरे को निहारा। 

  समय बीतने के साथ-साथ उसका असली चेहरा उजागर होने लगा। 

  दफ्तर में बिना किसी काम के उसके केबिन में वह आकर बैठ जाता। फिजूल की बातें करता। कभी-कभी प्यार भरा फिल्मी संवाद बोलता, कभी कहीं साथ घूमने की इच्छा जाहिर करता वह। किसी न किसी बहाने उसका अंग स्पर्श कर लेता। कभी वह उसके साथ फिल्म देखने का प्रस्ताव रखता। वह किसी न किसी बहाने उसके समीप आने के प्रयास में लगा रहता था। 

  उसके एहसान के नीचे दबी सुप्रिया संकोचवश प्रारम्भ में कुछ बोलती नहीं थी। खामोश ही रहना बेतर समझती थी वह। जब किसी बात के लिए वह जिद्द करता  तो वह विनम्रता से उसकी बातें खारिज कर देती कोई न कोई बहाना बनाकर। वैसे इस बीच हिमांशु के दबाव में आकर वह कई बार रेस्तरां में उसके साथ चाय-नास्ता कर चुकी थी। 

  सुप्रिया ने महसूस किया कि वह कोई न कोई बात कहना चाहता है, जिसे शायद वह संकोचवश नहीं कह पा रहा है या वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है कहने की। 



                    उस दिन लंच-ब्रेक के समय कम्पनी का दफ्तर लगभग खाली हो चुका था। एक-दो पिउन और कर्मचारी ही वहांँ मौजूद थे, जो अपना टिफिन घर से लेकर आते थे। उसमें सुप्रिया भी थी लेकिन उस दिन टिफिन लेकर नहीं आई थी क्योंकि उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं थी। जिसके कारण घर अव्यवस्थित हो गया था। 

  सुप्रिया फाइलों को आलमीरा में बंद करके बाहर निकलना चाह रही थी किसी रेस्तरां में चाय-नास्ता लेने की नीयत से। उसी क्षण उसने देखा कि हिमांशु उसके केबिन की तरफ ही आ रहा है। वह ठिठक कर अपने केबिन में ही खड़ी रह गई। उसके चेहरे पर खिसियाहट के भाव उभर आये थे। 

  कुछ पल बाद ही वह सुप्रिया के  केबिन में दाखिल हो गया। उसने आते ही कहा, “आप खड़ी क्यों हैं?… खैरियत तो है, बैठिए भी, खड़े-खड़े आपके पांव थक जाएंगे।” 

  “ठीक ही है” अपने चेहरे पर जबरन मुस्कुराहट लाते हुए उसने कहा फिर वह कुर्सी पर बैठ गयी। 

“एक बात कहूंँ!… आप आज उदास-उदास सी दिख रही हैं… कुछ चिंतित नजर आ रही हैं आप… क्या बात है?… क्या मुझे हक नहीं है कि मैं आपके दुख को बांट सकूंँ… आपके गम में अपने को शरीक कर सकूँ” मृदु स्वर में हिमांशु ने कहा। 

  “जी नहीं!… ऐसी कोई बात नहीं है।” 

 ” नहीं सुप्रिया जी बात तो कुछ है। मैं चेहरा पढ़कर आपके दिल की बातें बता सकता हूँ।… छिपाइये नहीं मैडम!… उदासी को दूर भगाइये!… चिंता छोङिए!…खाइये, पीजिए, मौज कीजिये “सुप्रिया के सामने बैठते हुए कहा। 

  इस बात पर वह मुस्कुरा कर रह गई पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। 

  हिमांशु ने आगे कहा,” सुप्रिया जी!… एक बात पूछूंँ। “

 ” पूछिए! “

 ” मेरे यहांँ आने से  आपको कोई तकलीफ तो नहीं होती है…मैडम बात ऐसी है कि मैं जल्दबाजी में बिना पूछे आपके केबिन के अन्दर चला आया… भई ये तो शिष्टाचार के खिलाफ है न!… माफ करेंगी!” चापलूसी बघारते हुए उसने कहा। 

 ” नहीं! नहीं!… ऐसा आप क्यों कहते हैं?… आप हमारे सिनीयर हैं, मैडम कहकर मुझे लज्जित नहीं करें। “

  ” खैर छोङिए!… मैं तो भूल ही गया… सुप्रिया जी आप टिफिन नहीं ले रही हैं… टिफिन के टाइम में टिफिन लेना चाहिए और काम के समय में काम करना चाहिए।” 

  “वो ऐसा है हिमांशु बाबू… “

 ” अच्छा!… समझ गया, आज आप टिफिन लेकर नहीं आयी हैं, तो इसमें संकोच की क्या बात है… बात ऐसी है सुप्रिया जी कि अगर सभी लोग  टिफिन लेकर ही आयें तो इस दफ्तर के इर्द-गिर्द  जो रेस्तरां हैं उनका क्या होगा, उनका तो दीवाला निकल जाएगा न… बंद हो जाएगा। चलिये आज हमलोग टिफिन वहीं लेंगे… घबराओ नहीं!… कोई चिंता मत करो! जो आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर… डांट वरी!… जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है मुर्दा भी क्या खाक जीया करते हैं! “हर्षातिरेक में उसने कहा। 

  उसके इनकार करने के बावज़ूद भी वह नहीं माना था। वह सुप्रिया पर अपना हक सा मानता था। सुप्रिया के दिमागी पटल पर यह दर्ज था कि यह नौकरी हिमांशु की देन है, इसलिए उसे साथ लेकर चल पड़ा था रेस्तरां की तरफ। 

   (शेष अंतिम भाग तीसरी किश्त में) 

    स्वरचित 

     मुकुन्द लाल 

     हजारीबाग (झारखंड)

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