लगभग चार साढे़ चार बजे थें, घरेलू उपयोग के जरूरी समानों की खरीदारी कर वैदेही घर की ओर तेजी से पैदल ही बढ़ रही थी, क्योंकि उसे डर था, कि कामवाली लौट जाएगी, तो बर्तन की सफाई भी उसके सिर पड़ जाएगा। घर के करीब पहुंँची ही थी, कि उसकी निगाह सामने से आती महिला पर पड़ी।
वह नाक की छोर से पूरे मांग तक नारंगी रंग के सिंदूरी रेख के साथ, गले में सफेद धागे में कुछ-कुछ दूरी पर गुथे गुड़हल के फूलों की माला पहन रखी थी और अपने बिलौड़ी नजर उठाए उसे निहारते आगे बढ़ रही थी। वह रूप उसे भीतर तक डरा गया। वह अपनी नजर दूसरी ओर फेरी और तेज चाल के साथ घर के मुख्य द्वार का गेट खोलकर, अंदर आते ही, अंदर से गेट बंद कर राहत की सांस ली।
वह बैठक में सोफा पर बैठकर मोबाइल फोन पर अपडेट चेक कर रही थी, फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाह्सप पर अंगुली से चक्कर काटती रही। वह खुद को समझा नहीं पा रही थी, बार बार कुछ पहले घटित घटना उसके नजरों के सामने घूमने लगती। उसे ऐसा लगता था, कि वह उस चेहरे को पहचान रही है, लेकिन उसकी छवि स्पष्ट नहीं हो पा रही थी।
इसी बीच मुख्य द्वार की घण्टी बजी, तो कमरे से बाहर निकल आई देखी कामवाली खड़ी है। अंदर से गेट खोल कर रसोई में चाय बनाने चली गई। कामवाली को आवाज़ लगाते हुए बोली -“श्यामा चाय पिएगी, बनाने जा रही हूँ।” श्यामा जबाब में चाय पीने के लिए हामी भरी। कुछ ही देर में वह अपना और उसके के चाय की प्याली लिए
बैठक पहुँची और श्यामा को चाय पीने के लिए बोली-“चल आ जा नहीं तो चाय ठंडी हो जाएगी। आवाज़ सुनते ही बर्तन साफ करना बीच में छोड़कर हाथ साफ कर चाय पीने के लिए बैठक में पहुँच गई । बातों ही बातों में वैदेही ने घटित घटना जिक्र श्यामा से भी किया तो बोली-“बीबी जी! ये बगल वाली गली में जो दरोगा साहब नहीं थें,
अरे जो पिछले साल कोरोना में चले गए, ये उन्हीं के बड़े वाले बेटे की छोटी बेटी है। अरे, बीबी जी क्या बताएं(चिंता की स्पष्ट रेख उसके माथे पर दिन रही थी) जब तक दरोगा जी थें, तब तक पूरे परिवार को संभाल कर रखे। उनके आँख बंद करते ही बिन पिता के इन बच्चों से चाचा सब किनारा कर लिए।
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माँ, भाई बड़ी मुश्किल से पैसों का इंतजाम कर इसके हाथ पीले किए थें। शादी के चौथी रस्म पर जब भाई पहुँचा तो ससुराल वालों ने पागल लड़की से शादी कराने का आरोप लगा कर उसे भाई के साथ भेज दिया। तब से यहीं रहती है। वैसे तो माँ घर में बंद करके ही रखती है, लेकिन कभी – कभी दरवाज़ा खुला रह जाता है,
तो निकल जाती है। अब तो बहुत सुधार है, जब आई थी, तो तोड़ फोड़ भी करती थी।” वह कहानी बता कर बर्तन धोने चली गई लेकिन बैठी- बैठी वैदेही उसके ख्याल में ही उलझती जा रही थी।
दरोगा साहब ने बड़ी बहू के प्रति छोटे बेटों का व्यवहार देख उसके पति की मृत्यु के बाद मकान में ही बाहर गली की ओर किराने की दुकान खुलवा दी और उनके लिए जब तक जीवित रहे छत्रछाया बन कर रहे। मरते ही उस परिवार की नैया डगमगाते लगी। उस वक्त सबसे बड़ी जिम्मेदारी बेटी का विवाह था।
जिसके लिए माँ और भाई को परेशान होते देखी थी। सिर्फ वर की तलाश ही नहीं बेटी की उम्र बढ़ने के साथ साथ पूजा-पाठ भी विवाह के लिए कराया। उसके विचारों का भंँवरजाल उसे लपेटे रहा था । सोच रही थी, कि क्या बेटी के इसी स्थिति के लिए माँ और भाई परेशान थें? जिस सपनों के संसार की बेटियाँ किशोरावस्था से ही तानेबाने बुनती हैं
वह इतना विकृत और भयावह आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की बेटी के लिए क्यों बन जाता है ? जहाँ जाकर उसे परिवार के अभाव की कीमत को जान देकर या मानसिक संतुलन खो कर चुकानी पड़ती है।
जीवन का यह संधि द्वार जहाँ मायके से ससुराल का रास्ता इन्हें तय करना होता है, वह कठिन से कठिनतर बन जाता है। उन्हें कभी भिन्न परिवेश, रहन- सहन के साथ सोच और मान्यताओं के अनुसार स्वयं को ढालना होता है। जो लड़कियाँ सहनशील और परिवर्तनशील होती हैं, वे तो पानी की भाँति बर्तन के आकार के अनुसार खुद को ढाल लेती हैं।
आत्मशक्ति से परिपूर्ण बेटियाँ इरादों के अनुकूल वक्त बदल देती हैं। लेकिन समय और समाज के पाटन के बीच पीसने वाली बेटियों की एक बहुत बड़ी तादाद है जो इस सन्धि द्वार से गुजर कर गुमनाम सिसकियों के साथ युगों से स्वयं को दफन कर रहीं हैं।
-पूनम शर्मा, वाराणसी