मेरे पिताजी ईंटो के भट्टो का कारोबार करते थे।सामान्यतः भट्टो पर कार्य विजयदशमी के बाद से प्रारंभ होता है।हालांकि कम पूंजी वाले अपने भट्टो का कार्य दिसंबर- जनवरी में भी शुरू कर लेते हैं।इसके लिये पहले से लेबर का प्रबंध करना होता है।लेबर भट्टे पर फुकायी शुरू होने की दिनांक से लगभग एक माह पूर्व ही आ जाती है।लेबर को चूंकि भट्टे के पास ही सपरिवार रहना होता है तो भट्टे मालिक वही उनके लिये रहने पानी आदि की व्यवस्था कर देते हैं।
सन 1960 की बात है।मेरी अवस्था 10 वर्ष की थी,तभी हमारी कोठी में पहली बार बिजली आयी थी,उससे हम बहुत खुश थे,क्योकि उससे पूर्व मुझे लैंप की रोशनी में ही पढ़ना पड़ता था।घर मे सब खुश थे।घर मे ही पिता जी ने घोषणा की कि अबकी बार दिवाली पर कोठी को बिजली की झालरों से सजाया जायेगा।
साथ ही आतिशबाजी के लिये भी उन्होंने अपने आतिशबाज को दीवाली के लिये तय कर दिया था।पूरे घर मे उल्लाहस का वातावरण था।आखिर मेरे उस समय की याद में ऐसी दीवाली जिसमे बिजली की झालरों से सजावट तथा आतिशबाजी होनी थी।
छोटी दीवाली से एक दिन पूर्व मेरे पिता जी मुझे अपने साथ स्थानीय भट्टे पर लेकर चले गये।दीवाली के बाद चूंकि फुकायी शुरू होनी थी,सो लेबर आ चुकी थी,और उन्होंने कच्ची ईंटे बनानी प्रारंभ कर दी थी,मेरे पिताजी लेबर से मिलने ही गये थे।
ईंटो की पथाई का पूरा अवलोकन करने के बाद अचानक पिताजी बोले अरे रामबीर दीवाली कैसे मनाने की सोची है।रामबीर लेबर का ठेकेदार था, सिर झुका कर बोला बाबूजी यहां जंगल मे हमारी क्या दीवाली,बस बालको को दो चार पटाखे लाकर दे देते हैं।मैंने देखा पिताजी कुछ गंभीर हो गये थे।
हमारे भट्टे के एक सिरे पर प्रारम्भ में ही एक बड़ा शिव मंदिर पहले से ही स्थित था।पिताजी लेबर के पास से उठकर मंदिर में गये, मैं साथ था ही,मुझे क्या पता हो सकता था कि उनके मन मे क्या चल रहा है?वहां उन्होंने एक चक्कर अंदर लगाया, एक दो व्यक्तियों को बुलाकर कुछ बातचीत की,जिन्हें न मैंने सुनी,न मेरी कोई दिलचस्पी थी
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,बल्कि मैं तो बोरियत ही महसूस कर रहा था।घर वापस आ गये, मैं अपने बाल सखाओं के साथ खेलने चला गया।मन मे उत्कंठा थी कि बस दीवाली एक दम आ जाये, जिससे मैं खूब पटाखे छोड़ू।
दीवाली से पहले दिन ही कोठी को बिजली की झालरों से सजाया जाने लगा।घर मे मिठाई आदि आनी प्रारम्भ हो गयी थी।अचानक पिताजी ने परिवार के बीच मे घोषणा की कि अबकी बार हम सब भट्टे वाले मंदिर में दीवाली मनायेंगे, यहां घर मे शाम को ही पूजा जल्दी से करके सब मंदिर चलेंगे।
मुझसे रुका नही गया मैंने पिताजी से पूछ ही लिया कि फिर पटाखे कैसे चलायेंगे?पिताजी हंस कर बोले अरे क्यूँ परेशान है, दीवाली है तो पटाखे तो चलेंगे ही,पर वही मंदिर में।दीवाली के दिन हम सपरिवार पिताजी के साथ भट्टे वाले मंदिर पहुंच गये।मंदिर उस दिन बिजली की रोशनी में सजावट से दमक रहा था, अंदर भजन चल रहे थे,एक ओर कुर्सियां रखी हुई थी।मंदिर के एक कोने में ही हलवाई पूरी तल रहा था।ऐसा लग रहा था मानो किसी शादी में आ गये हो।
अपने नगर के भी कुछ गणमान्य व्यक्ति आने लगे थे।सबसे बड़ी बात थी वहां पर हमारे भट्टे के मजदूरों की सपरिवार उपस्थिति। मेरी समझ मे कुछ नही आ रहा था।तभी वहां पंडितजी आ गए और उन्होंने सामूहिक रूप से दीवाली का पूजन कराया।पूजन के बाद बारी थी आतिशबाजी की।आतिशबाज ने अपनी आतिश का नजारा एक घंटे तक प्रदर्शित किया।उसके बाद लेबर के बच्चो समेत हम सबने पटाखे चलाये,बाद में लेबर के परिवार के साथ सबने वही खाना खाया।लेबर को पिताजी ने दीवाली के दिन शगुन के तौर पर 5100 रुपये(1960में) दिये।सब बहुत ही खुश थे।
बाद में पता चला कि वह सब व्यवस्था पिताजी ने ही की थी।उनका मानना था हमारी लेबर जो हमारा ही काम करे,हम उन्ही के दम पर शानशौकत का जीवन जिये और वे अपनी दीवाली तक न मना सके,ये उन्हें मंजूर नही था, इसी कारण उन्होंने उनके साथ दीवाली मनाने का निश्चय किया था।
अपने जीवन काल मे उन्होंने इस अपने द्वारा खुद डाली गयी परम्परा का निर्वहन भी किया।आज जब वह दीवाली याद आती है तो लगता है वह दीवाली ही असली थी,समरसता की दीवाली।मेरे पिता के मन की विशालता की द्योतक थी वह दीवाली,कम से कम मेरे लिये।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
सच्ची घटना पर आधारित, अप्रकाशित
#खुशियों के दीप