Moral stories in hindi : “वह नए वाले बिस्किट तो ले आओ जरा जो मैं परसों लेकर आया था, देखें तो क्या खास है उसमें दुकान वाला तो बड़ी तारीफ कर रहा था उनकी” रोहित ने चाय का कप उठाते हुए कहा।
“इतने बिस्किट तो रखे हैं ट्रे में लेकिन तुम्हें हर बार वही चाहिए होता है जो नहीं हो।” श्रुति भुनभुनाते हुए उठी “कभी ना चैन से खाना खाने देते हो ना चाय पीने देते हो।”
रोहित चाय के गर्म घूंट पीते हुए मुस्कुराता रहा। कृति को यूँ श्रुति का उठाया जाना पसंद नहीं आया। रोहित की तरह क्या श्रुति को भी सुबह चैन से एक कप चाय पीने का अधिकार नहीं है। तभी श्रुति नए बिस्किट एक प्लेट में डाल कर ले आई।
“यह हुई ना बात लो तुम भी खा कर देखो, तुम भी लो साली साहिबा।” कहते हुए रोहित ने श्रुति के बाद बिस्किट की प्लेट कृति की तरफ बढ़ा दी।
“अरे वाह यह तो सच में बहुत ही स्वादिष्ट है।” कहते हुए श्रुति स्वाद लेकर बिस्किट खाने लगी। दो मिनट पहले उन्हीं बिस्किट को लाने के लिए उठाए जाने पर चेहरे पर उभर आई खीज का अब नामोनिशान नहीं था। अब वह उन्हीं के स्वाद में प्रसन्न हो रही थी और खाते-खाते तारीफों के पुल बांध रही थी।
“अब से इसी कंपनी के ही बिस्किट लाया करना।” श्रुति ने कहा।
“ओके मेम साहब जैसा आपका हुकुम।” रोहित हंसते हुए बोला। उनकी मॉर्निंग टी-सभा समाप्त हो चुकी थी। श्रुति और कृति ने खाली कप प्लेटें ट्रे में भरकर उठाई और किचन में चली गई। रोहित के लिए लंच तैयार करना था।
श्रुति खाना बनाने की तैयारी करने में जुट गई। कृति उसकी मदद करने लगी। दोनों ने मिलकर घंटे भर में ही खाना और ब्रेकफास्ट तैयार कर लिया। तभी नन्हा बिट्टू जाग गया। कृति उसे गोद में उठा लाई और उसके लिए एक कप में दूध लेकर बाहर बगीचे में उसे चिड़िया और फूल पौधे दिखाते हुए बहला कर दूध पिलाने लगी।
रोहित टिफिन लेकर ऑफिस चला गया। श्रुति ने बिट्टू को नहला कर तैयार किया और खुद भी नहा कर ताजा हो गई। कृति भी नहा चुकी तब दोनों बहनों ने खाना खाया फिर दोनों बातें करने बैठ गई। बीच-बीच में बिट्टू अपनी तोतली बातों से दोनों को हंसाता रहा।
जब बिट्टू को नींद आने लगी तो श्रुति उसे लेकर कमरे में चली गई। कृति भी आकर अपने कमरे में पलंग पर लेट गई लेकिन उसकी आंखों में नींद नहीं थी। चार दिन हो गए थे उसे यहां आए हुए। वह परेशान थी और अपनी बड़ी बहन से बात करना चाहती थी।
वह अपने और अपने पति अंकित के रिश्ते को लेकर उहापोह में थी और अपनी समस्या का हल चाहती थी। उसे पता था कि यदि वह मां-पिताजी के पास गई तो वे अंकित को कुछ ना कहकर उसे ही दोष देंगे। तभी वह श्रुति के पास आ गई।
श्रुति उस से पाँच साल बड़ी थी लेकिन दोनों आपस में सदा सहेलियों की तरह रहती थी और अपने मन की हर बात एक दूसरे को बताती थी।
कृति और अंकित की शादी को डेढ़ साल हो गया था। दोनों के स्वभाव में बहुत अधिक भिन्नता थी। हर बात में चाहे वह फिल्म देखना हो चाहे रेस्टोरेंट में खाना खाना हो, दोनों की पसंद एकदम अलग थी। अंकित बहुत सोशल था, अचानक कभी भी किसी को लंच या डिनर पर बुला लेता।
छुट्टी के दिन कृति सोचती कि आज अंकित के साथ बाहर लंच करेगी और घूमने जाएगी तो पता चलता अंकित किसी को खाने पर बुला लेता और कृति के सारे अरमान चूल्हे की आग में भस्म हो जाते।
कभी देर शाम तक शॉपिंग या घूमने के बाद वह चाहती कि बाहर ही खा कर घर जाए तो अंकित को घर पर ही खाना होता। थकी हुई कृति को घर जाकर किचन में जूझना पड़ता। शादी के पहले देखे हुए तमाम रूमानी सपने जैसे विवाह के हवन कुंड में स्वाहा हो गए।
कदम-कदम पर उसे समझौता करना पड़ता। मन ना होते हुए भी अंकित के रिश्तेदारों अथवा दोस्तों के घर जाना पड़ता। कपड़े भी उसी की पसंद से पहनना पडते। हर बात में अंकित का दखल रहता। जीवन हंसी खुशी के साथ जीने की बजाय एक समझौता बनकर रह गया था।
और इसी समझौते से उकता कर कृति यहां चली आई थी ताकि कुछ देर ही सही वह अपना जीवन अपनी मर्जी से जी ले। बहुत देर तक वह इन्हीं सब ख्यालों में खोई रही। जब किचन से कुछ खटपट की आवाज आने लगी तब वह उठकर बाहर आई। श्रुति चाय बना रही थी।
चाय लेकर दोनों ड्रॉइंग रूम में बैठ गई। अभी तक रोहित की छुट्टी थी तो तीन दिन घूमने फिरने फिल्म देखने में निकल गए। आज फुर्सत मिली उन्हें एकांत में बैठकर बातें करने की।
“जब से आई है तब से देख रही हूं तेरा मन खुश नहीं दिख रहा है कृति, क्या बात है सब ठीक तो है ना।” श्रुति ने स्नेह से पूछा।
“पता नहीं दीदी अंकित और मेरे स्वभाव की पटरी ही नहीं बैठ पा रही है। जीवन बस एक उबाऊ समझौता बनकर रह गया है जैसे। मन करता है ऐसे बोझिल से रिश्ते को छोड़ ही क्यों न दूं।” कृति की आंखें छलछला आयीं।
मन का गुबार बाहर निकलने लगा। श्रुति ने उसे बिना टोके बोलने दिया। आधे घंटे तक कृति बोलती रही और श्रुति चुपचाप सुनती रही। जब वह चुप हुई तब श्रुति ने एक गहरी सांस ली और बोली–
“जीवन में किस रिश्ते में समझौते नहीं होते कृति। जब हम पैदा होते हैं तो माता-पिता को तब से लेकर हमें पढ़ा लिखा कर सेटल कर देने तक और उसके बाद भी इतने समझौते करने पड़ते हैं। और सिर्फ यही क्यों सभी रिश्तो में कहीं ना कहीं समझौते के धागे ही जुड़े होते हैं। उन्हीं से रिश्ते बंधे रहते हैं।”
“लेकिन कब तक जीवन को मैं इन समझौतों की भेंट चढ़ा कर उबाऊ बनाती रहूं। क्या मैं अपनी मर्जी से अपनी इच्छा से जीवन नहीं जी सकती?” कृति खीजकर बोली।
“क्यों समझौता किसे नहीं करना पड़ता? हमारे माता-पिता क्या अपनी मर्जी का जीवन जीने के लिए हमें छोड़ देते हैं या अगर उन्होंने हमारी मर्जी नहीं चलने दी तो हम उन्हें छोड़ देते हैं? जब उन रिश्तो को हम उम्र भर हर कीमत पर निभाते हैं तो पति-पत्नी के रिश्ते में समझौते से इंकार क्यों?” श्रुति ने चाय का घूंट लेते हुए कहा।
कृति कुछ कहना चाहती थी पर चुप रह गई उसे चुप देखकर श्रुति ने प्यार से उसकी हथेली थपथपाई और बोली–
“देख कृति शादी का दूसरा नाम ही समझौता है। विवाह होते ही पति-पत्नी आगे की जीवन यात्रा के लिए समझौता एक्सप्रेस में सवार हो जाते हैं। और यह मत समझ कि समझौते सिर्फ पत्नी को ही करने पड़ते हैं पति को भी बहुत सारी जगहों पर करने पड़ते हैं तभी तो सामंजस्य बना रहता है।”
“लेकिन रिश्ते में कहीं तो मन मिलने ही चाहिए ना हर बार सिर्फ समझौते करते रहने में तो रिश्ते का सारा आनंद, सारा चार्म खो जाता है। और हर बार मैं ही क्यों?” कृति बोली।
“ऐसा तू सोचती है मैंने तो बहुत बार देखा है अंकित को भी तेरी मर्जी से चलते हुए। उसे बाहर का खाना सख्त नापसंद है लेकिन तब भी बहुत बार वह तेरी खातिर होटल में खा लेता है।
तेरी परेशानी पता क्या है, तू सिर्फ अपनी मर्जी देखती है उसकी नहीं। छोटी होने के कारण घर में हमेशा ही तेरी मर्जी पूरी की जाती रही हो सकता है इस वजह से तेरा स्वभाव ऐसा हो गया लेकिन अब हम बड़े हो चुके हैं।
अब अपना जीवन दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर ही जीना होगा। रेल की पटरियाँ जैसे हमेशा तालमेल बनाकर रखती हैं। यदि एक भी पटरी अपनी जगह से इंच भर भी हिल गई तो ट्रेन पलट जाएगी, ठीक वैसा ही तालमेल जीवन के सफर में रखना पड़ता है ताकि रिश्ते की ट्रेन आराम से सुरक्षित आगे बढ़ सके।” श्रुति ने चाय का आखरी घूँट भरा और खाली कप टेबल पर रख दिया।
कृति सोच में डूबी थी। श्रुति ने स्नेह से उसके सर पर हाथ फेर कर आगे कहा- “वैवाहिक जीवन की गाड़ी भले ही समझौता एक्सप्रेस हो लेकिन सच तो यह है कि अपनी संपूर्ण यात्रा में यह ट्रेन कई सुंदर आनंद से भरपूर तथा मनभावन सुखद स्टेशनों से होकर गुजरती है।
लेकिन हमारी गलती यह होती है कि हम उन सुखद स्टेशनों का आनंद लेने की बजाय समझौता एक्सप्रेस को ही रोते रह जाते हैं। हमारे अपने ही स्वभाव के कारण हम स्टेशनों का आनंद लेने से वंचित हो जाते हैं और खुद को दुखी कर लेते हैं। और सबसे सुखद स्टेशन पता है कौन सा होता है।”
“कौन सा?” कृति ने उत्सुकता से पूछा।
“मातृत्व का जो विवाह के बिना संभव ही नहीं है। और अब डेढ़ साल हो गया है तेरी शादी को मुझे लगता है कि अब तुम दोनों को भी अपनी ट्रेन को इस स्टेशन पर ले जाने के बारे में सोचना चाहिए।” श्रुति प्यार से बोली।
कृति के गाल गुलाबी हो गए। तभी रोहित का फोन आ गया वह शाम को बाहर घूमने जाने को कह रहा था। श्रुति उससे बातें कर रही थी उनके बीच कुछ नोकझौंक चल रही थी शायद जगह और श्रुति क्या पहने इस बारे में।
आखिर श्रुति ने ‘अच्छा बाबा जैसा तुम कहो वही ठीक है’ कहकर फोन रख दिया और कृति को तैयार होने का कहकर खुद भी अपने कमरे में चली गई।
ठीक समय पर रोहित भी आ गया। श्रुति जब तैयार होकर आई तो वाइन कलर के सूट में वह सच में बड़ी सुंदर लग रही थी। रोहित की आंखें भी प्रशंसा में चमक उठी।
“देखा यह कलर तुम पर कितना खिल रहा है और तुम वह डल ग्रे सूट पहनने को कह रही थी।”
बिट्टू को साथ लिए तीनों थिएटर पहुंचे तो एक बार फिर दोनों फिल्मों में से फिर रोहित की पसंद वाली फिल्म के थिएटर में ही बैठना पड़ा। कृति सोचने लगी कि यहां भी श्रुति को ही समझौता करना पड़ा अपनी पसंद के साथ।
फिल्म वास्तव में बहुत अच्छी थी इसलिए जल्द ही उसके मन से यह बात निकल गई और वह फिल्म में खो गई। जब फिल्म खत्म हुई तो बाहर दूसरे थिएटर वाले दर्शक उस फिल्म की खूब बुराई कर रहे थे जो श्रुति देखना चाहती थी कि फ़िल्म बहुत ही बोर थी तीन घंटे और पैसे जबरन बर्बाद हुए।
“अच्छा हुआ तुमने मेरी बात नहीं मानी वरना हम भी ऐसे ही बोर हो जाते।” श्रुति उन लोगों की बात सुनकर रोहित से बोली।
“डेढ़ घंटे इंटरनेट पर सर्वे किया था कि कौन सी फिल्म वास्तव में अच्छी है ऐसे ही आपको बोर कर के आप की शाम थोड़े ही खराब होने देते मेम साहब।” रोहित ने कहा।
“देखा अक्सर जरा-जरा सी बातों में समझौता करते हुए हम खीज जाते हैं लेकिन देखा जाए तो आखिर में फायदा हमारा ही होता है।” श्रुति धीरे से कृति के कानों में बोली।
दूसरे दिन दोपहर में कृति की नींद जल्दी खुल गई तो वह श्रुति के कमरे में चली गई कि वह जाग रही हो तो कृति दोनों की चाय बना ले। मगर वह दरवाजे पर ही ठिठक गई। श्रुति गहरी नींद में थी। बिट्टू उससे चिपक कर सोया था।
बिट्टू की एक बाँह श्रुति के गले में थी और एक पैर उसके पेट पर। दोनों मां-बेटे दुनिया से बेखबर अपनी अलग ही वात्सल्यमयी दुनिया में खोए थे। कृति के चेहरे पर इस ममत्व भरे दृश्य को देखकर अनायास ही एक प्यारी सी मुस्कान आ गई।
सच ही कहा था श्रुति ने की जीवन यात्रा में सबसे सुखद स्टेशन है मातृत्व। उसे लगा उसके मन के सारे पूर्वाग्रह धुलते जा रहे हैं। बहुत जगह अंकित ने भी तो उसके साथ समझौते किए ही होंगे। कितनी ही बातें अब याद आ रही थी। आखिर इस जीवन यात्रा में वह दोनों एक ही तो एक्सप्रेस पर सवार हैं।
अगले दो दिनों में कृति का मन एकदम हल्का और साफ हो चुका था, जैसे बारिश खत्म होने के बाद बादल छट गए हो और खिली-खिली सुनहरी धूप निकल आई हो। तीसरे दिन बिट्टू को ढेर सारा प्यार करके श्रुति और रोहित से विदा ले वह अपने घर लौट आई। अंकित उसे लेने स्टेशन आया था। कृति उसे देखकर हैरान रह गई वह बीमार और उदास लग रहा था पूछने पर बोला कि उसे बुखार है।
“तो बता क्यों नहीं दिया आराम करते ना, मैं टैक्सी से आ जाती।” कृति बोली।
“तुम्हें देख लिया, अब तुम आ गई ना तो बुखार ठीक हो जाएगा।” अंकित मुस्कुरा कर बोला।
कृति का मन भर आया। घर आकर वह हाथ-मुँह धोकर आई तो देखा अंकित बुखार में भी आते ही उसके लिए चाय बना रहा था। कृति की आंखें भर आई। उसने अंकित की कमर में बांहें डाली और उसकी पीठ पर सर रख दियाम पलट कर अंकित ने उसे बाहों में भर लिया।
एक्सप्रेस चाहे कोई भी हो कृति का पूरा ध्यान अब बस जीवन में आगे आने वाले सुखद स्टेशनों के आनंद और रोमांच में खोया हुआ था।
विनीता राहुरीकर