मेरी सास और मेरे बीच हमेशा 36 का आंकड़ा रहा है। लेकिन मायके में खुशी-खुशी कुछ दिन बिताकर अपने पति श्लोक के साथ जब मैं ससुराल वापस आ रही थी तो रास्ते भर अपने निश्चय को दृढ़ कर रही थी, “मैं प्रभा, अपनी ओर से अपने व्यवहार में सुधार लाने की हर संभव कोशिश करूंगी और मम्मी जी का दिल जीत कर ही रहूंगी।”
श्लोक और मैं घर पहुंचे तो दरवाजा मम्मी जी ने ही खोला। जैसे ही मैंने मम्मी जी के चरण स्पर्श किए, वे बोलीं, “बस-बस, दिखावे की जरूरत नहीं है। मैं क्या नहीं जानती कि अभी सफ़र की थकान का बहाना बनाएगी और हर काम से जी चुराएगी?”
“नहीं मम्मी जी! मैं बिल्कुल ठीक हूं। बस हाथ मुंह धोकर मैं अभी सबके लिए स्वादिष्ट लंच तैयार करती हूं,” मेरे ऐसा बोलते ही विस्तारित नेत्रों से मुझे घूरते हुए मम्मी जी बोलीं, “रहने दे बस! पक्का अपना उल्लू सीधा करने का कोई नया तरीका मायके से सीख कर आई होगी।”
‘मायके जाने से पहले की मैं’ अब तक तो क्रोधवश चंडी-रूप धारण कर मम्मी जी पर सवार हो चुकी होती लेकिन इस बार मैंने संयमित स्वर में मम्मी जी को जवाब दिया, “मम्मी जी, मैं अपने पुराने व्यवहार के लिए आपसे माफी मांगती हूं और अब मैं आपकी प्यारी बेटी बनकर दिखाऊंगी।”
सच में रेलगाड़ी की सी फूर्ति आ गई थी मुझ में। अपने स्वभाव के विपरीत बिना किसी चिक-चिक के, मैंने रसोई की सफाई, भोजन की व्यवस्था, कपड़ों पर इस्त्री, पूरे घर का झाड़न-पोंछन कुछ ही समय में कर डाला। इसके बाद मम्मी जी के कमरे में जाकर बोली, “मम्मी जी, आप आराम से यहां बैठिए और मैं आपके घुटनों की मालिश करती हूं।”
इस बार मम्मी जी थोड़ा नरम होकर बोलीं, “प्रभा बहू, सच-सच बता ना। तेरे बदले स्वभाव का क्या कारण है?”
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मैं हाथों से मालिश करती रही और मुंह से मम्मी जी को अपने मायके का अनुभव सुनाने लगी, “दस दिन पहले मुझे लिवाने आए भैया के साथ जैसे ही मैंने मायके में कदम रखा तो मेरी भाभी मेरे दोनों भतीजों की मरहम-पट्टी कर रही थी। अनिल का माथा सूज गया था तो साहिल के दांत से खून निकल रहा था। खेल-खेल में दोनों आपस में लड़-भिड़ गए थे।”
यह सब देखते ही भैया बच्चों पर भड़क गए, “क्या तमाशा है ये सब? अब से तुम दोनों का खेलना बंद। आगे से ये सब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा।”
भाभी ने इशारे से भैया को शांत किया। और खुशी से मुझे गले लगा लिया, “दीदी, लंबा सफर था। आपको भूख लगी होगी। मैंने आपकी पसंद के छोले-भटूरे बनाए हैं। पहले हाथ मुंह धोकर भोजन कीजिए। फिर इत्मीनान से आपका हाल-चाल पूछूंगी।”
मैंने हाथ मुंह धोए और एक बार मां-पापा से मिलने उनके कमरे में चली गई। मां पिछले 2 साल से बिस्तर पर ही हैं और पापा की तबीयत भी कुछ दिन से ठीक नहीं चल रही है। मुझे देखते ही उनकी बांछें खिल गईं, “आ गई प्यारी बिटिया! तेरी भाभी ने बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाए हैं। खाकर हमारी तृप्ति हो गई। जा तू भी खा। फिर आना।”
भाभी ने बच्चों को हल्दी का दूध पिलाकर कमरे में भेज दिया। फिर भैया, भाभी और मैं छोले-भटूरे का आनंद लेने लगे। बातों में भैया ने भाभी से कहा, “दोनों बच्चे बिगड़ने लगे हैं। तुम मुझे न रोकती तो मैं दोनों को एक-एक झापड़ लगाता।”
भाभी बोलीं, “आप चिंता मत कीजिए। हम बच्चों को समझाएंगे ना। लेकिन इस वक्त दोनों बच्चे पहले से चोट में हैं और अपने गलत काम के लिए डरे भी हुए हैं। अभी थोड़ा धैर्य रखते हैं और फिर उन्हें थोड़ी डांट और थोड़े प्यार से समझाएंगे।” मैंने बीच में कुछ नहीं बोला लेकिन भाभी की समझदारी से बहुत प्रभावित हुई।
इसके बाद भैया घर के जरूरी सामान लेने बाजार चले गए। भाभी और मैं मां-पापा के कमरे में चले गए और चारों बातें करने लगे। बातें करते-करते भाभी मां के पैर दबाना, पापा की आंखों में दवाई डालना, उनके कपड़ों की तह जमाना आदि भी करती गईं। उनके माथे पर कहीं कोई शिकन नहीं थी।
थोड़ी देर बाद मां अधिकार से बोलीं, “चल बहू, शाम हो गई है। ठंड बढ़ गई है। थोड़ी चाय पिला दे।”
मैंने भी चहकते हुए कहा, “हां भाभी, मुझे भी आपके हाथ की गर्म-गर्म चाय पीनी है।”
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भाभी मुझसे हंसी-मजाक करते हुए मुझे भी पकड़कर ले गईं। किचन में जाकर गैस स्टोव पर चाय चढ़ा दी। तभी भैया सामान लेकर आ गए। उन्होंने आवाज देकर हेल्प के लिए भाभी को नीचे बुला लिया। भाभी मुझे चाय का ध्यान रखने को कहकर चली गईं। चाय उबलने में तो अभी समय लगेगा, ऐसा सोचकर मैं अपने भतीजों के कमरे में जाकर उनसे बातें करने लगी।
दोनों हाथों में सामान पकड़े भैया-भाभी ऊपर आए। अंदर आते ही भैया का पैर फिसला, सामान उनके हाथों से गिर गया और खुद को संभालते हुए, भाभी पर क्रोधित हुए, “सारी चाय उफन-उफन कर किचन की स्लैब और किचन के फर्श से बहती हुई ड्राइंग रूम के फर्श तक आ पहुंची है। तुम नीचे आने से पहले गैस बंद नहीं कर सकती थी।”
शर्मिंदा हुई मैं कुछ बोलती, भाभी ने मुझे इशारे से चुप करा दिया। इतने में पापा की आवाज आई, “बहू, कितनी देर लगाओगी चाय बनाने में?”
“पापा जी, बस अभी लाई।” भाभी ने सब साफ किया। फिर चाय बनाई। मां को चाय दी तो मां चिल्लाई, “बहू, इतनी गर्म चाय से मेरा मुंह, गला सब जलाएगी क्या? रख दे इसको वहां स्टूल पर! मैं पी लूंगी थोड़ी देर में!”
पापा को चाय दी तो पापा बोले, “बहू, कितनी बार कहा है कि इसमें थोड़ी चीनी और डाल दिया कर। स्वाद नहीं आता!”
भाभी बोलीं, “पापाजी, डायबिटीज में ठीक नहीं रहती। डॉक्टर ने मना किया है ना! प्लीज ऐसे ही पी लीजिए।”
इसके बाद जब भैया, अपनी और मेरी चाय लेकर भाभी दूसरे कमरे में आईं, तो इतने में पापा ने चुपके से रसोई में जाकर अपनी चाय में देसी खांड की जगह दिखने की कमी के कारण नमक मिला लिया।
फिर पापा की आवाज आई, “बहू, जरा दूसरी चाय बना दे।” भाभी सारा माजरा समझ गई थीं। उन्होंने पापा को दूसरी चाय बना कर दे दी।
इतने में मां की आवाज आई, “बहू, मेरी चाय तो बुरी तरह ठंडी हो गई है। ये बूढ़ी हड्डियां जम जाएंगी।”
भाभी ने चौथी बार चाय बनाई। मां फिर भी बोलीं, “बहू, थोड़ा तो संभल जा। पहले ही काम ध्यान से कर लिया कर। जा अब अपनी चाय पी ले!” अब पापा ने भी कहा, “बहू, तेरी चाय का तो हम भूल ही जाते हैं। जा….।”
भाभी की चाय तो अब तक पानी हो ही गई थी, मेरी आंखों में भी पानी आ गया था। अबकी बार भाभी की दूसरी चाय मैं बनाने लगी। भाभी अपनी पुरानी चाय गर्म करने के लिए किचन में लाई तो मैंने वह चाय छीन ली।
मैं भावुक होकर भाभी के गले लग, अपने रुंधे गले से बोली, “#भाभी, आप इतना सब कुछ कैसे सह लेती हैं?”
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भाभी मुझे अपने कमरे में खींच कर ले गईं। उनकी आंखें भी कुछ नम थीं, वे बोलीं, “अपनापन! प्रभा दीदी, अपनापन! सहनशीलता का जन्म यहीं से होता है। इसी अपनत्व के कारण ही तो आपने मेरे लिए नई चाय बनाई है।”
उनकी बातें सुनकर मैं चकित थी, “लेकिन भाभी, आपको मां-पापा और भाई की बातों का कभी बुरा भी नहीं लगता?”
भाभी ने अपनी चाय की चुस्की ली और मेरी ओर देखा, “बुरा लगता है, दीदी। लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। रिश्तों में धैर्य और प्रेम ही सबसे बड़ी ताकत हैं। जब कोई हमें गलत समझे, तो गुस्सा करने से बेहतर है, उनके मन की बात और उनकी स्थिति को समझने की कोशिश करना। उनके स्थान पर स्वयं को रखकर देखना।”
वे आगे बोलीं, “मां-पापा के स्थान पर स्वयं को रखती हूं तो ही मैं वृद्धावस्था से जुड़ी उनकी मनोदशा को समझ पाती हूं। अगर हम छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा होकर हर चीज़ छोड़ दें, तो हम अपने ही रिश्तों को तोड़ बैठते हैं।”
फिर भाभी हंसने लगीं, “प्रभा दीदी, आपने मां-पापा के मन में मेरे लिए अपनापन नहीं देखा। मेरी चाय की कैसे दोनों को चिंता थी? और कैसे आपके सामने मेरे बनाए छोले-भटूरे की सराहना कर रहे थे।”
उनकी बातों में कुछ ऐसा था कि मैंने उनका हाथ पकड़ा और कहा, “भाभी, मैं भी अब अपनी सास की बेटी बनूंगी। धैर्य और अपनेपन से उन्हें अपना बनाऊंगी।”
अपनी सास की मालिश करते मेरे हाथ तो अभी भी चलते रहे लेकिन उन्हें अपने मायके का ये अनुभव सुनाते ही, मेरी वाणी ने स्वयं ही विराम ले लिया। मेरी सास भी रो पड़ीं और मुझे अपने आगोश में लेते हुए बोलीं, “प्रभा, मेरी बेटी, मैं भी अब तेरी सास नहीं, मां बनूंगी। हमें मां-बेटी बनाने के लिए तेरी भाभी को मेरा दिल से आशीर्वाद।”
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
प्रतियोगिता वाक्य: “#भाभी, आप इतना सब कुछ कैसे सह लेती हैं?”