Moral stories in hindi: बहत्तर वर्षीया शीलादेवी पति की मौत की खबर सुनकर दहाड़े मारकर रोने लगीं।उनके करुण-क्रन्दन से वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आँखें नम हो उठीं।किसी भी भारतीय पत्नी के जीवन में उसका पति ही सर्वस्व होता है,परन्तु जिस पत्नी को 35 साल पहले गँवार ,अशिक्षित होने के कारण छोड़ दिया हो,उस पति की मौत पर इस तरह का हृदयविदारक विलाप कोई भारतीय पति समर्पित पत्नी ही कर सकती है।शीला देवी ने जिन्दगी में बस त्याग, समर्पण और पत्नी-धर्म निभाना ही सीखा।
कथानायिका शीला देवी का जन्म अत्यंत निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था।उसके परिवार में माता-पिता के अलावे छः और भाई-बहन थे। उसके गरीब परिवार में सभी का पेट भरना भी आसान नहीं था,पढ़ाई-लिखाई तो सभी भाई-बहनों के लिए आकाश-कुसुम के समान था।शीला भी अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करती और पूरे मनोयोग से घर के काम-काज करती।मात्र तेरह
वर्ष की उम्र में चौदह वर्षीय मोहन से उसकी शादी हो गई। विदाई के समय उसके माता-पिता ने दो सीख दी।पहली सीख कि अब ससुराल ही तुम्हारा घर है और दूसरी सीख कि पति ही तुम्हारा परमेश्वर है।शीला ने माता-पिता की इन नसीहतों को जिन्दगी भर के लिए अपने गाँठ में बाँधकर रख ली।
ससुराल में शीला पूर्ण समर्पित भाव से सास-ससुर ,ननद-देवर और पति की सेवा करती। अच्छी बात यह थी कि उसके पति स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे।वह पतिव्रता नारी की भाँति तन-मन से पति की सेवा करती।वह इस छोटी -सी दुनियाँ में काफी खुश थी।उसकी अपनी न तो कोई इच्छा थी,न ही कोई आकांक्षा।वैसे भी वर्षों पूर्व एक भारतीय पत्नी को अपने लिए सपने बुनने का कोई अधिकार नहीं था।
वक्त अपनी गति से गुजर रहा था।इस बीच शीला की जिन्दगी में दो अच्छी बातें हुईं।एक तो शीला दो बेटियों की माँ बन गई, दूसरी उसके पति ने आर्थिक तंगी के बावजूद ग्रेजुएशन कर लिया।खुशियों से शीला के पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे।उसे लगता था मानो ईश्वर उसकी किस्मत पर मेहरबान हों।सोने पे सुहागा हुआ कि उसके पति मोहन को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई।
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अब शीला पति के साथ शहर आ गई। उसके जीवन की राह सुखद हो चली थी,जिसपर वह अपने समर्पण-भाव से आगे बढ़ रही थी।उसे कहाँ पता था कि उसकी खुशियों को हरने के लिए एक घुमावदार मोड़ इंतजार कर रहा है!उसके पति मोहन को ऑफिसर बनते ही एहसास होने लगा कि उसकी पत्नी अनपढ़,गँवार है,रुप-रंग भी सुन्दर नहीं है।उसपर से दो-दो बेटियों की माँ भी है।’एक तो करेला,दूजा नीम चढ़ा’ वाली कहावत मोहन को
सत्य प्रतीत होने लगी।अब मोहन का दिल शीला से उचाट रहने लगा।उसे शीला को अपने साथ कहीं बाहर ले जाने में शर्म महसूस होने लगी,परन्तु शीला को इन बातों का कोई आभास नहीं था।वह तो बस घर की दुनियाँ में ही बेटियों और पति सेवा में मग्न थी।जब-जब उसके पति की नौकरी में तरक्की होती,उसका दिल बल्लियों उछलने लगता।
कुछ दिनों बाद उसके पति नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर गए। जैसे-जैसे मोहन राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था,वैसे-वैसे उसके दिल में शीला का स्थान गौण होता जा रहा था।देखते-देखते मोहन की पहुँच दिल्ली की राजनीति तक पहुँच गई। मोहन पत्नी और बेटियों को गाँव भेजकर दिल्ली चला गया।शीला अपने पति को बेहद प्यार करती थी।उसे पति मोहन जो कहता,उसे सिर माथे लगाकर मान लेती।
दिल्ली की राजनीति में मोहन का कद काफी ऊँचा हो गया।उसके जीवन में खुबसूरत पढ़ी-लिखी मोना आ गई। उसने बीस साल पुरानी शादी को भुलाकर मोना से गुपचुप शादी रचा ली,परन्तु इश्क और मुश्क कहाँ छिपते हैं,उसमें भी रसूखवाले की!मीडिया द्वारा हो-हल्ला मचाने पर मोहन ने शीला को तलाक के पेपर भिजवा दिए।
तलाक की बात शीला के लिए अप्रत्याशित थी।इसका ख्वाब तो उसने सपने में भी नहीं देखा था।तलाक की बात सुनते ही उसे लगा,मानो किसी ने उसे बिल्कुल ही निचोड़कर रख दिया हो।शीला का दर्द उसकी आँखों में बस गया।बार-बार दर्द उफनकर आँखों से बरस पड़ते,परन्तु शीला का प्यार पति के लिए बिल्कुल ही कम न हुआ।उसे लगता कि पति-पत्नी का इतना मजबूत रिश्ता भला कागज के टुकड़ों से खत्म होता है!उसके लिए पति से रिश्ते तो वही थे,पर रुप नया था।उसका पति से ऐसा अपनापन का रिश्ता था कि वह खुद को ही दोषी मानकर कहती -“मैं पति के काबिल नहीं थी।अपने काबिल लड़की से शादी कर उन्होंने अच्छा ही किया।”
कहा गया है कि काठ की सौत भी बुरी होती है।शुरु-शुरु में शीला के चेहरे पर पति -वियोग का इतना दर्द उभर आता कि वह बेचैन हो उठती,मानो असंख्य नागफनी के काँटे उसकी आत्मा को लहू-लुहान कर रहे हों।वह मनिहारा सर्प की भाँति चारों तरफ विकल होकर इधर-उधर कुछ खोजने लगती।दिल का दर्द कई बार अकेलेपन में छलककर बाहर आ जाता,परन्तु अपने व्यथित मन पर सांत्वना के छींटे शीला खुद मारते हुए सोचती -“पति मेरी और बच्चियों की देखभाल के पैसे देते हैं,रहने को गाँव में घर दे दिया है।मुझ अनपढ़ ,गँवार को और क्या चाहिए?”
उसके जीवन के केन्द्र-बिन्दु पति ही थे,जिन्हें वह चाहकर भी नहीं भूल पाती।संस्कार और समर्पण के नाम पर बचपन में उसे जो घुट्टी पिलाई गई थी,उसके कारण वह किसी से भी पति की कोई शिकायत नहीं करती।बस पति की यादों के उजास से उसका मन उसी तरह आलोकित रहता,जैसे किसी मंदिर के गर्भगृह में निरंतर जलती लौ।
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शीला जब कभी पति की तबीयत खराब की खबर सुनती तो विधि-विधान से पति के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पूजा-पाठ करती।गोबर,मिट्टी और चावल के शिवलिंग पर रोज दुग्ध-धवल धार से सिक्त करती।सुहागन की तरह सज-धज कर तीज और छठ पूजा बड़े मनोयोग से करती और पति की लम्बी आयु की कामना करती।उसकी बेटियाँ इन बातों से नाराज हो जातीं,परन्तु शीला उन्हें समझाते हुए कहती -” मेरे माथे के सिन्दूर में पति का पहला स्पर्श सन्निहित है,मेरे माथे की बिन्दी में उनका चेहरा मुस्कराता है,मेरी चूड़ियों की खनक में उनकी हँसी शामिल है,हम सबके जीवन आधार हैं।उन्हें मैं कैसे भूल जाऊँ?”
बेटियाँ माँ के त्याग और समर्पण के समक्ष निरुत्तर हो जाती।शीला ने परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया था।अतीत के खुशनुमा पल को ही अपना जीवनाधार बना लिया था।कभी-कभी मन में एक हूक -सी अवश्य उठती कि बिना पति के औरत का जीवन कितना कठिन और दुखदायी होता है!परन्तु अवचेतन मन में पातिव्रत्य और समर्पण का भाव कहीं गहरे तक जड़ जमाए हुए था।उसकी जकड़न बहुत मजबूत थी।उसकी आँखें बस पति की एक झलक देखने को बेकरार रहतीं।टेलीविजन पर तो पति को हमेशा देखा करती थी,परन्तु उसके मन को तृप्ति नहीं मिलती।
एक बार पिता के देहावसान पर उसके पति गाँव आएँ थे,उन्हें सामने पाकर उसके कंठ अवरुद्ध हो गए।न कोई गिला न कोई शिकवा,बस आँखें पति को निहारते हुए तृप्त हो रहीं थीं।उसने पति के जाते समय झट से उनके पैर छूकर खुद को धन्य मान लिया। उसका समर्पण भरा प्यार देखकर उसके पति अपने बचाव में कुछ न कह पाएँ,नजरें चुराकर दोषी की भाँति बाहर निकल गए।
शीला पति की क्षणिक स्पर्शानुभूति को यादकर वर्षों तक स्पंदित होती रही।कभी भी पति के खिलाफ मीडिया या पत्रकार को कुछ नहीं कहा।सच है कि जिस व्यक्ति से जब कोई पूर्ण समर्पण के साथ प्यार करता है,तो उसके खिलाफ कुछ कैसे बोल सकता है?संस्कारों की दीवार और मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा से शीला पूर्णतः आबद्ध थी।
समय निर्बाध गति से चलता रहा। उसकी दोनों बेटियों की शादी हो गई। वे अपने ससुराल चलीं गईं।शीला ने अपने अच्छे व्यवहार से अड़ोस-पड़ोस के लोगों को अपना बना लिया था।बेटियाँ उसे अपने साथ चलने को कहतीं,पर शीला अपने पति का घर छोड़कर कहीं जाने को राजी नहीं होती।वह तपस्विनी की भाँति पूर्ण समर्पण भाव से पति की लम्बी आयु की कामना करती।
जिन्दगी की सान्ध्य वेला में जब जीवन में अचानक से ठहराव आ जाता है ,तो जीवनसाथी की बहुत याद आती है। शीला भी जब-तब पति की याद में विकल हो उठती। अब उसकी एकमात्र कामना रह गई थी कि वह सुहागन बनकर इस दुनियाँ को अलविदा कहें,परन्तु इंसान की कामनाओं पर उसका वश कहाँ चलता है! अचानक से शीला के पति की मौत की खबर आती है।वह पति का पार्थिव शरीर भी नहीं देख पाती है ,खबर सुनकर ही दहाड़े मारकर रोने लगती है।पति के प्रति ऐसा प्रेम,त्याग और समर्पण देखकर लोग उसके समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं।आज भी शीला पूर्ण समर्पित भाव से पति की याद में लीन रहती है।
सचमुच हमारे देश की कुछ नारियां आज भी सीता,सावित्री की याद दिला जाती हैं।
समाप्त।
यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है।
लेखिका-डाॅ संजु झा(स्वरचित)
#समर्पण