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पिछले अंक ( 07 ) का अन्तिम पैराग्राफ •••••••••
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इसके बाद पुलिस टीम ढाबे के मालिक के बताये अनुसार धीरे धीरे ढाबे के पीछे बने स्टोर नुमा उस छोटे से कमरे की ओर बढ गये जहॉ सभी अपराधी निश्चिन्त होकर बातों में मशगूल थे। पिछली सभी सफल मीटिंगों के कारण वे सब सोंच भी नहीं सकते थे कि इस गन्दे छोटे से ढाबे के बारे में भी किसी को संदेह हो सकता है और पुलिस यहॉ तक पहुॅच सकेगी।
अब आगे ••••••••
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कमरे के पास पहुॅचकर पूरी टीम दरवाजे के अगल बगल सतर्क होकर खड़ी हो गई। हाथों में हथियार लिये सब पूरी तरह से मुठभेड़ के लिये तैयार थे। समाधि ने बिना बोले इंस्पेक्टर शशांक को इशारा किया।
अब आगे बढकर कमरे के दरवाजे को खटखटाते हुये समाधि के जूनियर इंस्पेक्टर शशांक की भारी आवाज गूॅजी – ” पुलिस ने ढाबे को चारो ओर से घेर लिया है। ढाबे के मालिक और कर्मचारी गिरफ्तार हो चुके हैं। तुम सभी यहॉ से बाहर नहीं निकल पाओगे इसलिये सभी लोग समर्पण कर दो।”
अन्दर से गोलियॉ चलने लगीं। साधारण से लकड़ी के दरवाजे में छेद होने शुरू हो गये। अपराधी कमरे में सुरक्षित थे और अन्दर से चलाई गई गोलियॉ पुलिस वालों को घायल कर रही थीं। अन्दर से आती गोलियों के कारण पुलिस दरवाजा भी नहीं तोड़ पा रही थी। तभी अन्दर से दो चीखों की आवाज सुनाई दी।
” हम समर्पण कर रहे हैं।” भीतर से आवाज आई।
पुलिस के सिपाहियों के साथ शशांक और समाधि भी सतर्क हो गये। दरवाजा खुलते ही गोलियों की बाढ सी आ गई। पुलिस टीम सबको जिन्दा पकड़ना चाहती थी लेकिन जब दो सिपाही और घायल हो गये और एक की मृत्यु हो गई तो समाधि ने क्रोध में बिना किसी परवाह के उनके सीने और सिर को निशाना बनाकर गोलियां चला दी। इन दोनों के गिरते ही सन्नाटा छा गया। सतर्क पुलिस टीम अन्दर पहुॅची तो दो व्यक्ति घायल पड़े थे उनकी जॉघ में गोली लगी थी और दो के शव पड़े थे।
ढाबे के मालिक ने बताया था कि कमरे में पॉच व्यक्ति हैं लेकिन ये तो चार ही थे। दो मर चुके थे और दो घायल थे। अभी पुलिस टीम यह सोंच ही रही थी कि एक व्यक्ति कहॉ चला गया तभी कमरे में रखे बड़े से ड्रम के पीछे से निकल कर कोई ढाबे के पीछे की दीवार फॉदकर बाहर भागा।
समाधि ने इंस्पेक्टर शशांक से कहा – ” इंस्पेक्टर शशांक, आप यहॉ देखिये। मैं जाती हूॅ।”
शशांक को बोलने का अवसर दिये बिना वह बाहर की ओर भागी लेकिन तब तक उसे लगातार चलती गोलियों और मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई दी। उसने भी पीछे खड़ी स्टाफ के कर्मचारियों में से किसी कर्मचारी की मोटरसाइकिल उठाई और पहली मोटरसाइकिल के पीछे लगा दी साथ ही अपनी टीम को निर्देश दिया कि यहॉ पर रहकर इंस्पेक्टर शशांक की सहायता करें और ढाबे का चप्पा चप्पा देंख लें। हो सकता है संचालक की बिना जानकारी के और भी अपराधी छुपे हों।
समाधि बहुत गुस्से में थी। उसने शशांक को स्पष्ट निर्देश दे दिया कि यदि अपराधी पकड़ में न आ सकें तो उन्हें गोली मार दे। अधिकारियों और मीडिया को वह जवाब दे लेगी।
समाधि ने देखा कि पहली मोटरसाइकिल काफी आगे निकल गई है तो उसने अपनी मोटरसाइकिल की गति बढ़ा दी।
पता नहीं क्यों उसे उस व्यक्ति की पीठ पहचानी सी लग रही थी? क्या उसका संदेह सच है? लेकिन यह कैसे हो सकता है? नहीं यह उसका भ्रम है। समाधि लगातार पीछा कर रही थी। बीच बीच में दोनों मोटरसाइकिल सवार गोलियॉ चलाते जा रहे थे। आगे वाले सवार को पीछे मुड़कर गोलियां चलानी थी और मोटर साइकिल को भी सन्तुलित रखना था जबकि समाधि हर बार आगे की मोटरसाइकिल से चलने वाली गोली से स्वयं को बचा रही थी, वह अपराधी को जिन्दा पकड़ना चाहती थी इसलिये स्वयं को बचा अधिक रही थी और जल्द से जल्द उस तक पहुंचना चाहती थी।
अचानक हाई वे छोड़ कर मोटरसाइकिल दूसरे रास्ते पर आ गई लेकिन समाधि जानती थी कि यह रास्ता कानपुर से लखनऊ का शार्टकट है। यह रास्ता ग्रामीण इलाका होने के कारण सन्नाटे में डूबा हुआ था।
आखिर समाधि ने कुछ निश्चय किया और उसकी रिवाल्वर से निकली गोली आगे वाले सवार की पीठ पर लगी। साथ ही एक जानी पहचानी चीख की आवाज समाधि के कानों को सुनाई दी।
” ओम की आवाज…ओम यहॉ कहॉ?” वह चारो ओर देखने लगी साथ ही उसने दूसरी गोली मोटरसाइकिल के पहियों को लक्ष्य करके चला दी। वही चीख उसे फिर सुनाई दी। उसका मस्तिष्क भ्रमित हो गया, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसे बार बार ओम का भ्रम क्यों हो रहा है? इस अपराधी की पीठ और चीखें ओम जैसी क्यों लग रही हैं लेकिन यह समय यह सब सोंचने का नहीं था। उसे हर हाल में इस अपराधी को जिन्दा पकड़ना था।
तभी उसने देखा कि उसके आगे भागती मोटरसाइकिल अपने सवार को लेकर गिर पड़ी है। गिरे हुये सवार की गोली जैसे ही समाधि के बगल से होकर निकली , उसका मस्तिष्क शून्य हो गया। अब वह समझ गई कि इस अपराधी को जिन्दा पकड़ना संभव नहीं है।
पता नहीं वह सचमुच गिर गया है या बार बार चीखकर उसे चकमा देने का ढोंग कर रहा है। सतर्कता से आगे बढ़ती समाधि का मस्तिष्क जब तक कोई प्रतिक्रिया दे तब तक उसके रिवाल्वर ने एक फायर और कर दिया और समाधि के कानों को तीसरी चीख सुनाई दी।
हाथ में रिवाल्वर पकड़े जब वह उसके पास पहुॅची और उसने उस सवार के चेहरे से जब नकाब हटाया तो उसके होश उड़ गये। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह सच है या वह कोई सपना तो नहीं देख रही है। उसके सामने बुरी तरह घायल उसका ओम पड़ा था। समाधि के रिवाल्वर से निकली तीन गोलियां उसके पेट, पीठ और बॉह में धंस चुकी थीं। वह रुककर सॉसें ले रहा था । यह उसका ओम कैसे हो सकता है ? “
उसने घुटनों पर बैठ कर उसका चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में ले लिया। उसकी ऑखों से धाराप्रवाह ऑसू गिरने लगे – ” मुझसे यह क्या हो गया? ओम तुम यहॉ कैसे? क्या तुम •••••। चलो पहले तुम्हें अस्पताल ले चलती हू़ॅ।” समाधि ने उसे उठाने का प्रयत्न किया।
एकलव्य के होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट तैर गई – ” यह तो एक दिन होना ही था सिम्मी। तुम्हें तो कुछ पता नहीं था, तुम तो एक अपराधी का पीछा कर रही थीं। जबकि मुझे तो शुरू से सब पता था और मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात करके लगातार यह भयानक खेल खेलता आ रहा था। मैंने जानबूझ तुम पर लगातार गोलियां चलाई हैं। जो गोलियां मुझे लगी हैं, तुम्हें भी लग सकती थीं लेकिन शायद ईश्वर यही चाहता है कि यह घिनौना खेल अब समाप्त हो जाये।”
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बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर