अम्मी , तेज़ तूफ़ान और बारिश है । आज तो पता नहीं, कैसे दिन निकलेगा ? यूँ करो , मेरे साथ ही चली चलो । ये पेड़ ना गिर जावे
तू जा । कुछ ना गिरेगा । बूँदों की रूत है तो बरसेगा भी ।
हुसना ने अपने बेटे को उसके घर भेज दिया । अपनी कोठरी का दरवाज़ा खुला ही रहने दिया । खाट पर लेटी ही थी कि बिजली कड़की और वो बैठ गई । अब उसे भी लगा कि कहीं नीम का पेड़ इस आँधी में गिर ही ना जाए ।दरवाज़ा बंद करते ही घुटन लगती थी । तभी दीवार के बीच में ईंट निकाल कर बनाई खिड़की से आवाज़ आई-
हुसना ए हुसना ! सो गई ? आज तो तूफ़ान ने दहशत सी कर दी।
ना ,सोई ना , लेटी तो थी पर ऐसी बिजली कड़की, उठ बैठी ।
कोठरी बंद करके यहीं आ जा । एक जगह सो जाएँगे । सज्जाद तो गया होगा ?
हाँ जिज्जी, गया , कह तो रहा था कि मेरे साथ चलो पर मैं ना गई । अपने घर में क्या डर । नीम के पेड़ से डरे था कि गिर ना पड़े ।
आजा , सेवकराम भी लेटेगा फिर । बिजली सारी रात ना आएगी आज , कैसे आँख लगेंगी तेरी ।
हुसना अपनी मुँहबोली बहन उषा की बात को टाल ना पाई । कोठरी की साँकल लगाई और आँगन से होती हुई बाहर का दरवाज़ा खोलकर निकली कि वहीं उषा जिज्जी के घर के बाहर उनका नौकर खड़ा था ।
तेरी ही बाट जोह रहा था । ताईजी ने कहा था कि तू आएगी।अब दरवाज़े बंद करके, मैं भी सोऊँगा ।
हाँ जिज्जी कहने लगी यहाँ आ जा । यहाँ तो बिजली का इंतज़ाम है । पचास साल हो गए, पर जिज्जी ने कभी अकेली ना छोड़ा मुझे।
आ गई हुसना ? भीतर अलमारी से अपना बिस्तर ले आ । बिछा ले खटिया । सेवकराम से निकलवा तो दी थी पर वो खड़ी करके छोड़ गया ।
जिज्जी, यहाँ तो ना आँधी का पता , ना तूफ़ान का । जित्ता ख़्याल आप करो मेरा , उत्ता तो कोई सगी बहन भी ना करे ।
चल लेट जा । रोटी बनाई थी कि नहीं । तेरा तो चूल्हा भी बाहर है।
हाँ जिज्जी , अंगीठी पे खिचड़ी बना ली थी ।
दोनों लेट गई । उषा देवी तो जल्दी ही नींद के आग़ोश में चली गई पर हुसना अतीत की गहराइयों में डूब गई ।
वो और उषा जिज्जी एक ही गाँव की थी ।कहने को तो हुसना के पिता गाँव के दर्ज़ी थे पर उनकी रोज़ी रोटी उषा देवी के पिता ज़मींदार साहब के चालीस-पचास सदस्यों के पूरे कुनबे पर ही टिकी थी। इतने बड़े परिवार में कभी किसी के घर महीनों सिलाई मशीन चलती तो कभी किसी के । कभी तीज- त्यौहार के कपड़े, कभी ब्याह- शादी के , कभी भात- छूछक के ,तो कभी स्कूल की वर्दियाँ। और कुछ नहीं तो पुराने कपड़ों के ढेर भी मुनव्वर के सामने डाल दिए जाते –
क्यों रे मुनव्वर ! तूने बड़ी जेठानी के घर में पुराने कपड़ों की दरियाँ बनाई है । हाथ में लिया काम निपटाकर मशीन उठा लाना , बच्चों के पुराने कपड़े पड़े हैं । ठिकाने लगा दे , घर में काम ना आएँगे तो कहीं ज़रूरत मंद को दें देंगे ।
जी हुज़ूर । बस कुछ ही दिन का काम बचा है । अभी आया ।
वैसे तो उषादेवी और हुसना में तक़रीबन दस साल का अंतर था पर ब्याह के बाद उषा देवी ही उसकी संरक्षिका बन गई थी । विवाह के बाद एक बार उषादेवी अपनी सास से मुनव्वर चाचा की प्रशंसा , क्या कर बैठी कि दबंग सास ने तुरंत संदेश भेजा-
समधिन जी ! बहू बता रही कि तुम्हारे घर का दर्ज़ी बड़ा क़ाबिले तारीफ़ है । कुछ दिनों के लिए भेज दें । गठरियाँ भरी पड़ी हैं पुराने कपड़ों की , ज़रा हम भी तो देखें उसका कमाल ।
बस फिर क्या था ? अपने घर का काम बीच में छुड़वा कर अगले ही दिन मुनव्वर को मशीन के साथ ट्रेक्टर- ट्राली में बिठा कर समधियाने भेज दिया । यहाँ आकर तो मुनव्वर की पो बारह हो गई। उषा देवी की ससुराल के ठाठबाट देखकर उसकी आँखें खुली की खुली रह गई । धीरे-धीरे परिचित बढ़ने लगे और अपनी ही बिरादरी के लड़के गुलज़ार से अपनी बेटी हुसना का रिश्ता पक्का कर दिया ।
बड़े घर की इकलौती बहू उषादेवी के द्वारा रिश्ते को मंज़ूरी मिलते ही हुसना और गुलज़ार का निकाह हो गया।
हुसना की डोली पहले उषादेवी के दरवाज़े रूकी । सौग़ात के रूप में दुल्हा-दुल्हन को रूपये- कपड़े देकर उन्होंने हुसना की बड़ी बहन का फर्ज निभाया और तब से आज तक घर की बेटियों के साथ-साथ हुसना का भी हिस्सा गिना जाने लगा ।
हर रोज़ सुबह गाँव की बहुत सी औरतों की तरह हुसना की सास ताजी छाछ लेने तो आती ही थी , अब बहू की मुँहबोली बहन के लिए एक- दो किलो दूध भी जाने लगा ।
हुसना और गुलज़ार भी जिज्जी की एक आवाज़ पर दौड़े चले आते थे । उषादेवी के पति ईद पर विशेष रूप से सामान भिजवाना न भूलते तो दीवाली से महीनों पहले हुसना और गुलज़ार दोनों वक़्त हाज़िर होने और काम करने में कोई कोताही ना करते ।
जब दोनों के पतियों का निधन हो गया तथा बच्चों की ज़िम्मेदारी पूरी हो गई तो वक़्त के साथ-साथ हुसना और उषादेवी एक- दूसरे की पूरक बनती चली गई । हुसना के बेटे सज्जाद का बढ़ता परिवार देखकर ही उषादेवी ने अपने कमरे से लगता, पीछे का हिस्सा हुसना को दे दिया था ।
हुसना , पीछे की कोठरी साफ़ करवा दी है । अपना बिस्तर वहीं लगा ले । जब तक हाथ- पाँव चल रहे हैं, बहू- बेटे पर बोझ ना बन। वहाँ रहेगी तो कम से कम उठकर अपने लिए बनाएगी- खाएगी तो । जब मन हो , यहाँ घूम जाया करना । चल , दोनों की मिल बाँटकर गुज़र जाएगी ।
तब से हुसना यहीं रहने लगी और दोनों के कमरों के बीच की एक ईंट निकाल दी गई । वैसे महीने के पच्चीस दिन वो उषा जिज्जी के साथ ही रहती , वहीं खाती-पीती और अगर उषादेवी को काम से कहीं जाना होता तो हुसना का बक्सा गाड़ी में पहले रख दिया जाता । इस तरह दोनों में खून का रिश्ता न होते हुए भी, एक सच्ची इंसानियत का रिश्ता बन गया था ।
कुछ घटनाएँ एक काल्पनिक कहानी सी लगती हैं पर सत्य होती हैं। हुसना और उषादेवी का रिश्ता भी जाति , धर्म और अमीरी- ग़रीबी से मुक्त था । जहाँ मन मिलता है, एक – दूसरे के लिए मान-सम्मान होता है वहाँ इंसान के द्वारा खींची रेखा बेमानी होती है
करुणा मलिक