बहुत साधन सम्पन्न घर में विवाह हुआ था मेरा। परिवार के सभी सदस्यों का प्रेम और सहयोग मिलने के कारण मैंने खुद को बेहद भाग्यशाली माना। और ईश्वर की कृपा से वास्तव में मैं सदैव भाग्यशाली रही भी हूँ। माता-पिता के घर में खुशहाली थी, और ससुराल में भी मिली।
शुरुआती मौजमस्ती, घूमने-फिरने और नये घर का संकोच धीरे-धीरे समाप्त हुआ तो मैंने पतिदेव से कहा कि मैं किसी स्कूल में जॉब करना चाहती हूँ।
“क्या करना है जॉब करके? किसी जरूरतमंद को वह काम करने दो न। बेरोजगारी इतनी है देश में, तुम किसी का हक़ क्यों मारना चाहती हो?”
अपने पतिदेव, मृदुल, का ये नज़रिया देख कर तो मैं हैरान रह गई। ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था, समझ ही नहीं पाई कि कैसे रिएक्ट करुँ। खैर, कमी तो कोई थी नहीं, घर में हर सुविधा थी, मन-बहलाव के साधन थे, मैं उनमें ही उलझने लगी। एमए बीएड हूँ, इस ख्याल को भी उठा कर ताक पर रख दिया मैंने।
एक दिन रमिया, मेरी हमउम्र गृहसेविका, झिझकते हुए मेरे पास आई। उसके पास एक गर्भनिरोधक गोलियों का पैकेट था, और एक खाँसी का, जो उसका पति लेकर आया था। चूँकि वह पढ़ी-लिखी ही नहीं थी दोनों पैकेट्स में उलझ गई थी, कि…
खैर, मैंने उसे बता तो दिया, लेकिन महसूस भी कर लिया कि शिक्षा जरूरी नहीं कि स्कूल में ही दी जाए। वह तो ज़रूरतमंद को कहीं भी दी जा सकती है।
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“तू अंग्रेजी सीखेगी, रमिया?” मैंने उससे पूछा।
“मैं और अंग्रेजी? कमाल करती हैं, मेमसाहब। मेरे को हिंदी तो पढ़नी आती नहीं!”
“तू उसकी चिंता मत कर,” मैंने कहा और उसी वक्त उसे डायरी के एक पन्ने पर लिख कर दिये A B C D E F G और अपने भतीजे की पुरानी नोटबुक और पैंसिल भी ला दी, कि कल तक ये लिख कर लाना और बोलना भी।
“माँ जी बुरा तो नहीं मानेंगी न! वो डाँटेंगी तो?”
“तुम अपना काम पूरा करके पढ़ोगी तो क्यों डाँटेंगी?” मैंने पूछा।
“कल से मैं दूसरे घर का टाइम थोड़ा बदलूँगी, ताकि आपसे पढ़ सकूँ, अंग्रेजी,” वह चहकी।
मुझे उसकी ये चहक बहुत अच्छी लगी। उसके जाने के बाद मैंने कबाड़ में पड़ी पुरानी किताबों में से अंग्रेजी एल्फाबेट की किताब भी ढूँढ निकाली।
अगले दिन रमिया आई तो उसने A to G नोटबुक में लिखा हुआ था। एक व्यस्क वाली समझ तो उसमें थी ही जिससे बहुत आसानी हुई उसे समझाने में। फिर A for Apple B for Boy तो उसने चित्रों के माध्यम से तुरंत समझ लिया। मुझे हैरान करते हुए उसने जब F for Fan के लिए ऊपर चलते पंखे की तरफ इशारा किया तो मुझे समझ आ गया कि बीएड में पढ़ा हुआ ‘डायरेक्ट मैथेड’ कितना सफल हो सकता है। चारों तरफ अंग्रेजी नामों वाली वस्तुएं ही तो हैं, बैड, एल्मिरा, ड्रैसिंग-टेबल, किचन, बाथरुम, वॉशबेसिन ये सब तो वह जानती ही है।
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रमिया के साथ मिली सफलता से मुझे अलग ही खुशी मिली। फिर जब वह आई तो एक सवाल लेकर आई थी। क्या मैं उसकी सहेली को भी पढ़ा दूँगी? मैंने इतना तो न सोचा था, क्योंकि रमिया तो इस घर में काम करती थी, उसकी सहेली को कैसे व्यवस्थित कर सकती थी मैं?
रात को मैंने मृदुल से बात की और उन्हें रमिया के बारे में बताया तो वह भी खुश हुए।
“अगर रमिया की कोई सहेली भी पढ़ना चाहे तो?” मेरे इस सवाल पर वह सोच में पड़ गए।
मुझे लगा कि मृदुल ने बुरा माना है, लेकिन उनका अपने लिए प्रेमपूर्ण समर्पण दिखा जब उन्होंने कहा कि वह इसके लिए बाऊजी से बात करेंगे। बाऊजी ने घर में किसी अन्य के आने के मामले में सख्ती दिखाई, लेकिन ये सोचते हुए कि दो दिन में मेरी अक्ल ठिकाने आ जाएगी, बंगले में खाली पड़े सर्वेंट क्वार्टर का इसके लिए इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी। मेरे लिए भी यह एक मुश्किल चुनौती थी।
बंगले की हर सुख सुविधा छोड़कर क्या मैं सर्वेंट क्वार्टर्स में इस काम को अंज़ाम दे पाऊँगी? खैर करके देखने में क्या हर्ज़ था। रमिया और उसकी सहेली ने मिल कर सर्वेंट क्वार्टर्स की सफाई-धुलाई कर दी। और मैं दोनों को ‘डायरेक्ट मैथेड’ से पढ़ाने लगी। रमिया तो तेज थी, लेकिन उसकी सहेली उतनी ही धीमी थी। खैर, हफ्ते भर में उनको देख कर आस-पास घरों में काम करने वाली और बाईयां भी आने लगीं, और मेरे पास सात छात्राएं हो गईं।
दोपहर बाद के दो घंटे उसके लिए मैंने फिक्स कर दिए। उन घंटों में कोई किसी भी समय आए, अपनी सुविधा से, मुझे परेशानी न थी। हालांकि पहले मैं इस समय पर आराम करती थी, लेकिन उत्साह में छोड़ दिया। मुझे प्रसन्न और जूझता पाकर मृदुल ने जरूरी किताबें, नोटबुक्स और एक स्टैंड ग्रीन-बोर्ड भी ला दिया।
मेरी छात्राएं मेहनती निकलीं और तेजी से अंग्रेजी सीखने लगीं। महीने भर में कुछ और भी छात्राएं आ जुड़ीं। मुझे उनको पढ़ाना अच्छा लगता था, और कुछ समाजोपयोगी कार्य करने की भावना गर्वित भी करती थी। मुझे यह देख कर ताज्जुब होता थी कि मेरी सास और भाभी, जैसे कि मैं और घरों के किस्से सुनती आई थी, और टीवी सीरियल्स में भी देखे थे, इससे खुश ही थीं, क्योंकि मैं खुश थी।
एक दिन अपनी लंबी कार में भाभी की माँ घर में आईं। उनकी खूब आवभगत हुई, सभी मेहमानों की होती थी। बातचीत में उन्हें पता चला कि मैं बाईयों को पढ़ाती हूँ, तो उन्होंने अज़ीब सा मुँह बनाया।
“बाईयों को पढ़ाने की बात कितनी अज़ीब है। उस जगह पर तो एक प्ले-स्कूल खोला जा सकता है। इज्ज़त भी है और कमाई भी!” उनकी आवाज़ में मुझे अपना तिरस्कार और अपमान महसूस हुआ।
“हमें बहू की कमाई क्या करनी है? रही बात इज्ज़त की तो मुझे तो यह बड़े धर्म का काम लगा। सारा दिन मोबाइल में घुसे रहने, सीरियल्स देखने, धार्मिक चैनलों के प्रवचन सुनने से तो बेहतर है। कल तो मेरी किटी की सखियों ने भी छोटी बहू के काम की बहुत तारीफ़ की। उनके यहाँ डीएम साहब की पत्नी भी आईं हुई थीं। उन्हें पता चला तो बोलीं— आपकी बहू तो कमाल का काम कर रही है। ऐसा स्कूल पूरे जिले में नहीं है”।
“अरे वाह! मैं यह बात नहीं सोच पाई, बहन जी। शाबाश बिटिया रानी,” फिर भाभी की माँ ने भी दिल से तारीफ़ की।
मुझे तो लगा कि आज जैसे टीचिंग का गोल्ड-मैडल ही मिल गया हो।
—TT (तरन्नुम तन्हा)