एक सुनसान सवेरे, वृद्धाश्रम के बाहर, एक बुजुर्ग व्यक्ति बेहोशी की हालत में पाया गया। वहाँ से गुजरते लोगों की निगाह पड़ते ही तुरंत आश्रम के कर्मचारियों को सूचना दी गई। यह घटना इतनी अचानक हुई कि प्रत्येक व्यक्ति स्तब्ध रह गया। वे बुजुर्ग जिस तरह से वहाँ पड़े थे, उससे यही प्रतीत होता था कि रात की अंधेरी चादर में किसी ने उन्हें चुपके से वहाँ छोड़ दिया था।
डॉक्टरों ने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी और तीन-चार दिनों में ही उनकी हालत में सुधार होने लगा। जैसे-जैसे उनकी हालत स्थिर हुई, वे कुछ बोलने की स्थिति में आए। इस दौरान आश्रम के संस्थापक मनोहर जी ने उनका हाल चाल जानने के लिए उनसे मुलाकात की।
मनोहर जी, जो वर्षों पहले उनके साथ काम कर चुके थे, उन्हें देखकर हैरान रह गए। वह व्यक्ति और कोई नहीं, बल्कि उनके पूर्व सहकर्मी रघुनाथ जी थे। रघुनाथ जी, जो कभी ऑफिस में मनोहर जी के सीनियर हुआ करते थे, अपने जीवन में बेहद समर्पित और कर्मठ व्यक्ति थे।
रघुनाथ जी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अपने बेटों की चिंता में गुजारा था। उन्होंने अपनी सारी कमाई और संसाधन अपने बेटों के भविष्य के निर्माण में लगा दिया था। यहां तक कि उन्होंने अपनी पेंशन तक को नजरअंदाज कर दिया और रिटायरमेंट के समय अपने सारे फंड्स को एकमुश्त निकाल लिया था, ताकि उनके बेटे अधिक सुविधाजनक जीवन जी सकें। मनोहर जी ने उस समय उन्हें इस निर्णय के खिलाफ सलाह दी थी, परंतु रघुनाथ जी ने उनकी एक न सुनी।
कई वर्षों तक तो सब कुछ ठीक चला। भले ही उन्हें पेंशन नहीं मिलती थी, पर उनकी जमा पूंजी और मकान के किराए से उनका गुजारा हो जाता था। परन्तु एक वर्ष पहले उनके बेटे उनसे अक्सर मिलने लगे। उनके बेटों की यह बढ़ी हुई देखभाल और स्नेह रघुनाथ जी के लिए सुखद आश्चर्य की बात थी और उन्होंने इसे अपने जीवन के सुनहरे पलों के रूप में देखा।
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लेकिन यह सब कुछ एक चाल थी। उनकी पत्नी के निधन के बाद, उनके बेटों ने उनसे संपत्ति और घर से संबंधित सभी कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए। उन्होंने उन्हें बहला-फुसला कर ऐसा करवाया और फिर एक दिन उन्हें उसी वृद्धाश्रम के बाहर छोड़ दिया जहां उन्हें बेहोशी की हालत में पाया गया।
मनोहर जी की बातचीत से यह स्पष्ट हो गया कि रघुनाथ जी के जीवन की दोपहर अब अंधकारमय हो चुकी थी। उन्होंने अपने जीवन की सारी संपत्ति अपने बच्चों के नाम कर दी थी, और बदले में उन्हें केवल धोखा और अकेलापन ही हाथ लगा।
यह कहानी न केवल एक बुजुर्ग के दुःख की गाथा है, बल्कि यह हम सब के लिए एक सबक भी है कि किस तरह से हमें अपनी संपत्ति और वित्तीय निर्णयों को सोच-समझ कर करना चाहिए। कहानी के अंत में मनोहर जी और आश्रम की टीम रघुनाथ जी का समर्थन करते हुए उनकी देखभाल में कोई कमी नहीं आने देते, और उन्हें इस बात का आश्वासन देते हैं कि वे अकेले नहीं हैं।
डॉ. पारुल अग्रवाल,
नोएडा