रुका हुआ फ़ैसला – सपना शिवाले सोलंकी

” मम्मी अब ये लॉस्ट चान्स है बस फ़ाइनली डिसाइड कर ही लीजिये” अगले महीनें आ रहा हूँ मैं…जैसे ही टिकिट्स बुक होंगे, आपकों बता दूँगा, ठीक है ना!

“हां बेटे” बड़े ही धीमें स्वर में शोभाजी ने कहा। कॉल डिस्कनेक्ट हो गयी थी फिर भी वे मोबाईल को कान में  लगाये हुई चुपचाप सोफ़े में बैठी रहीं।

हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाकर वे टालती ही रहीं थी। पर आज तो शुशांत ने ,सीधे सपाट शब्दों में फैसला सुना ही दिया…कोर्ट का ऑर्डर हो जैसे।

दिल बैठ सा गया उनका। कुछ सूझ ही नहीं रहा क्या करें क्या ना करें ।थोड़ी देर बाद बेमन से उठकर किचन में जाकर गैस पर चाय चढ़ाई ही थी तभी कॉल बेल बज उठी ।दरवाज़ा खोला तो मेड कमली सामनें थी।

“क्या हुआ मम्मी इतनी दुःखी क्यों दिख रही हो सब ठीक तो है..??”दरवाज़ा खुलते ही उसनें सवालों की झड़ी लगा दी।

” हाँ ,सब ठीक है” बुझी हुई आवाज़ में कहती हुई शोभा जी किचन की ओर बढ़ गयी कमली भी उनके पीछे हो ली। आपनें चाय क्यों बनायीं मेरा वेट ना किया।अरे मन किया तो चढ़ा दी बस। तेरे लिए भी चाय बनायीं है तू चिंता क्यों कर रही? कहती हुई, शोभा जी ने ब्रिटानिया मारी बिस्किट्स निकालकर एक प्लेट में रखें और फिर ड्राइंग रूम में जाकर बैठ गयीं। कमली ने दो कप चाय व  एक गिलास पानी ट्रे में रखकर शोभा जी के सामनें रखी टेबल पर रख दिया।शोभा जी चाय की चुस्कियां ले रहीं थी।कमली इधर उधर की बात किये जा रही थी। एक वही तो थी

जो इस चार बैड रूम हॉल किचन के घर में सूनेपन को कम कर शोभा जी का मन बहलाया करतीं थी।मेरठ ,आगरा,और कानपुर में रहनें वाले शोभा जी के सारे रिश्तेदार उसे मुंह जुबानी याद थे। “मम्मी क्या बनाऊं, खानें में?” दो बार पूछने के बाद जवाब ना मिला तो कुछ तो गड़बड़ है भइया ,मन ही मन बड़बड़ाती हुई कमली किचन में चली गई ।

इधर शोभा जी पूरे घर में चहल कदमी करतीं रहीं….

कभी आलमारी खोलती,तो सामान को टटोलती। कभी कुछ उठाती फिर रख देती। काफी देर तक घूमकर जब थक सी गयीं, तो बेडरूम जाकर बैठ गयीं….।

माथुर सहाब की जॉब की वज़ह से कितनें शहरों में भटकते रहे। ट्रान्सफर होता तो वे झिड़की देते,”कितना सामान जोड़ रखा है तुमनें शोभा? हटाओ ना सब अटाला..हर ट्रान्सफर में ,कई कई दिन हमें पैकिंग करो फिर अनपैक कर जमातें रहो । लेकिन शोभा जी सील पत्थर से लेकर ख़लबट्टा आचार की बरनियाँ सब सहेजकर ले जातीं।


रिटायरमेन्ट के दो साल पहले यह घर ख़रीदा। तब कहीं जाकर खाना बदौसी जीवन से मुक्ति मिली थी। गृह प्रवेश हुआ तब भी माथुर साहब ने खूब हिदायत दी थी । पुराना सामान हटा दो फ़ैशन बदलते जा रहा है उसके अनुसार घर सजाओ। इन शीशम , सागौन के भारी फर्नीचर्स को कब तक सहेजती रहोगी?हाँ हूँ कहकर वें टाल देती थी। सामान तो हटाया लेकिन यादों से जुड़ी बहुत सी चीज़े सहेजती चली गयी। सिर्फ ईंट ,पत्थरों से बना हुआ घर ही तो नहीं है ये। कितने पल, कितनी खुशियां ना जानें कितनी यादें बिखरी पड़ी हैं हरेक जगह ।

कितनीं आसानी से बोल देते है ना बच्चे,”मम्मी अपनीं ज़रूरतों का कुछ सामान निकाल कर रख लो बस

” मेरी ज़रूरतें अब सामान कहाँ रहीं बल्कि उनसें जुड़ी हुई यादें ही तो है जो जीने का सबब बन गयी हैं”

इस मेज पर घंटो पढ़ा करता था सुशांत। ये कम्प्यूटर उसके पापा ने उसे गिफ्ट किया था।सौम्या की बनायीं हुई पेंटिंग्स, उसके हाथ के काढ़े हुए टेबल क्लॉथ्स ,आर्ट्स एंड क्रॉफ्ट  की तमाम चीजें ।कोना कोना तो भरा हुआ है उनकी यादों से।कितनें हँसी, ठहाकों, कहकहों से गूँजा करता था ये घर । दिन भर आवाजाही इसकी चाय उसका नाश्ता, कभी कुछ तो कभी कुछ । माथुर सहाब का शोभाss शोभा ss  पुकारना, बच्चों का मम्मी म्म्म्मी चिल्लाना सुनायीं देता रहता था । बॉलकनी में बैठकर रोज चाय पीते हुए अख़बार पढ़ना। रेडियों में विविध भारती में गानें सुनना …..!

शुशांत जॉब के लिए अमेरिका गया और सौम्या भी अपनें पति के साथ वहीं जाकर सैटल हो गयी। अपनें पापा के रहतें वे कभी ज्यादा ज़िद नहीं कर पातें थे। अब पिछले दो साल से दोनों की बस एक ही ज़िद ..

“मम्मी आ जाओ हमारें पास “

मन तो उनका भी करता बच्चों पोते पोतियों के साथ रहें पर इस घर से जुड़ी यादें इसका मोह उन्हें कमज़ोर कर देता जिससे वे कोई ठोस फ़ैसला ले ही नहीं पातीं थीं..

इतनें सालों की तिनके तिनके से जोड़कर बनायी गयी गृहस्थी।छोटी बड़ी चीज़ें उनसे जुडी यादे क्या दो शुटकेस में पैक हो जाएँगी सब??शोभा जी सच में परेशान हो गयीं थी जबसे बेटे शुशांत से  बात हुई थी।

आखिर वो दिन आ ही गया। शुशांत आ रहा है सोंचकर सुबह जल्दी आँख खुल गई।फ्रेंच विंडो के कर्टन्स खोल बॉलकनी की ओर निहारा तो , तुलसी, मीठी नीम ,बारामासी ,जसवंत  नन्हें नन्हें पौधों को हवा में खुलकर साँस लेते देख मन पिघल गया …

“इन सबका भी तो कितना साथ रहा ये सब भी दुःख सुख के साथी रहें “सोंचती हुई वे बॉलकनी में रखी चेयर पर बैठ गयीं।इस बॉलकनी में कितनीं शामें ,सुबह और दोपहरी बिताईं  सोचतीं हुई ,नीले आकाश को टकटकी लगायें देख ही रहीं थी, तभी एरोप्लेन की आवाज़ से चौंक गयीं …

“शायद शुशांत की ही फ़्लॉइट हो…”ठण्डी सी साँस छोड़ते हुये…सोंचने लगी। शुशांत लगभग छः महीनें बाद आ रहा है। उसके आने की ख़बर मात्र से कितनी खुश हो जाया करती थी पहले। कई दिन तक तैयारियां करती । उसके साथ बड़ी, आचार, पापड़ भेजतीं और इस बार, कुछ ना किया…! चाहकर भी मन भीतर से ख़ुश नहीं हो पा रहा…

कमली सुबह से दस बार पूछ चुकी, “चली जाएँगी मम्मी आप? ?”

“मत जाइये ना”

” मैं तो हूँ , आपकों कोई तकलीफ ना होने दूँगी…”

हम्मss बस कह पायी थीं, उससे भी।


दोपहर में कॉल बेल की आवाज़ सुनायीं दी …दरवाज़ा  खोलनें जा ही रहीं थीं पर उनसें पहले, कमली ने दरवाज़ा खोल दिया।सुशांत ही था, आ ही गया बेटा सोचती हुई दरवाज़े पर पहुंची। सुशांत ने उनकें पाँव छुएँ ,आशिर्वाद देते हुए उसके सिर को थपथपाती रहीं वें….। बेटे को अपनें सामनें खड़ा देखकर उनकी सूनी आँखों को ,बड़ा सुख मिला….!

सुशांत , नहा धोकर तैयार हुआ फिर खाना खाकर आराम से सो गया…।जेट लेग था, लंबी दूरी तय करके भी तो आया था वो।उसके बगल में बैठकर देर तक, उसे सोता देखती रहीं ।आखिर उनका और उनकें पति का ही तो सपना था, ख़ूब पढ़े लिखे और ख़ूब क़ामयाबी हासिल करे उनका बेटा…और सच में, उसनें उनके सपनें को पूरा भी तो किया…!

सौम्या ठीक ही तो कह रही थी कल, मम्मी ट्रान्सफर में हर तीन चार साल बाद हमें भी तो पुरानीं जगह छोड़कर जाना हमेशा बुरा लगा करता था। स्कूल,फ़्रेंड्स, शहर सब छूट जाता था। उन दिनों आप ही हमें समझाया करतीं थीं।

” फिर से नए शहर में नई शुरुआत करेंगे,फिर से वहाँ नये दोस्त मिलेंगे।हम मान भी जाते और उसी के अनुरूप ढल जातें….बदलाव को एक्सेप्ट करना आना चाहिए।”

माथुर सहाब को भी तो, मिर्ज़ापुर अपना पैतृक पुरखों का घर, जायजाद छोड़कर आना पड़ा…नये सिरे से नई शुरुआत की यहाँ। फिर बच्चों का विदेश जाना क्यों ख़ल जाता है?अपनी ही उधेड़बुन में लगी रहीं शोभा जी।

सुशांत की अचानक आँख खुली तो मम्मी को बगल में बैठा देख,पूछनें लगा,”क्या हुआ मम्मी…?”

“कुछ नहीं बेटे” शोभा जी ने शांत स्वर में कहा।

सुशांत ने, माँ का हाथ अपनें हाथ में ले लिया…और उनकी आँखों में आँख डालकर बोला ,

” आपने कितना कुछ किया है मेरे और दीदी के लिए…!पापा के लिए, हमारे इस घर के लिए।”

घर तो लोगों से बनता है ना …जब हम ही यहाँ नहीं तो, खाली दीवारों के साथ पुरानीं यादों को कब तक याद करतीं रहेंगी आप?आपकी संजोयी हुई यादें तो हमेशा आपने ज़ेहन में रहेंगी ही ना, वैसी की वैसी ही महफ़ूज़।

और माँ नये घर में, नए परिवेश में हमारे और बच्चों के साथ आपकी नई नई यादें भी तो बनती चली जाएँगी ना….!

“जानतीं हो, जैसे आपनें मुझे लेकर सपनें देख रखें थे ना, ठीक वैसे ही सपनें मैंने भी तो देख रखें थे… बचपन से…”

“बड़ा होकर माँ की सेवा करूँगा ,दुनियां भर की सैर कराऊँगा… “


आपके सपनें तो पूरे हो गए । लेकिन मेरे सपनों का क्या??

अब मेरें सपनों की भी बारी है ना माँ।

जानतीं हो , सात समुन्दर पार रहकर, लगता हैं कहाँ आ गया मैं इतनी दूर? आपकी  चिंता बहुत सताती है हमें। हमसे दूर ,आपको अकेले कैसे रहनें दे सकते हैं हम….?

कभी कुछ दिक्कत हुई, ईश्वर ना करें कभी अचानक तबियत बिगड़ी तो तुरन्त आ भी नहीं सकेंगे….

“जीवन भर गिल्ट में नहीं जी पाउँगा मैं…”

“सच कह रहा हूँ ..!”

“तुम्हारा ही बेटा हूँ ,तुम्हारें दिए ही संस्कार है मुझमें….”

“अपनें बेटे की मज़बूरी समझों ….प्लीज़sss”

कहता हुआ, सिसक पड़ा सुशांत और माँ की हथेलियों में अपना चेहरा छुपा लिया। माँ के ह्रदय का लावा भी फ़ूट पड़ा था…. शांत हुई, तो सधे हुए शब्दों में कहा,

” माफ़ कर दो बेटे…”

“मैं सिर्फ अपना ही सोचती रही थी…”

लेकिन यक़ीन मानों,  मैंने सच में राज़ी ख़ुशी से फैसला कर लिया है… सचमुच चलूँगी अपनें बच्चों के पास ….

अब दोनों के चेहरें में मुस्कान फ़ैल गयी थी ।

–  सपना शिवाले सोलंकी

 

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