एक औरत अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाये, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता।बेटी,पत्नी,बहू,माँ,सास इत्यादि के रूप में वो हमेशा अपने कर्तव्यों का पालन करती रही है और करती रहेगी।
मेरा कहानी भी कुछ ऐसी ही है।तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण मुझे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ किचन में माँ का हाथ बँटाना पड़ता था और अनुज- पूनम की फैली किताबों-कपड़ों को भी समेटना पड़ता था।परीक्षा सिर पर होने के बावज़ूद मेहमानों के लिये खाना बनाना मुझे बहुत अखरता था लेकिन क्या करे.. मजबूरी थी।
शादी करके ससुराल आई तो बीमार सास की सेवा करने के साथ-साथ दो देवरों और एक ननद के नखरे भी उठाने पड़ते थे।किसी को भिंडी पसंद है तो किसी को बैंगन..।सबकी फ़रमाईशों को पूरा करते-करते रात के ग्यारह बजे जब मैं अपने बिस्तर पर लेटती तो बदन का पोर-पोर मुझसे कहता कि हमें भी आराम चाहिए लेकिन माता-पिता के दिये संस्कारों की अवहेलना तो मैं कर नहीं सकती थी…रिश्तों की ज़िम्मेदारी है…हमें निभाना तो पड़ेगा ही।ऊपर से पतिदेव की शिकायत,” कभी हमारे लिये भी टाइम निकाल लिया करो..।”
हमारे चाचा ससुर का परिवार और पतिदेव की फूफेरी बहन का ससुराल भी आसपास ही था।किसी के घर शादी है तो किसी के घर मुंडन संस्कार तो किसी के घर जन्मदिन की पार्टी….।हमें सभी निभाने पड़ते थे।कभी-कभी तो मेरे मुँह से निकल जाता,” उफ्फ़! ये ज़िम्मेदारी..आखिर कब खत्म होगी।”
मेरी बहन पूनम की शादी थी, उसी दिन चचेरे ससुर की छोटी बेटी की भी शादी होनी थी।ससुराल के फंक्शन को स्किप करती तो घर में महाभारत का नया अध्याय शुरु हो जाता, इसलिए विवाह से दो दिन पहले ही मायके जाकर बहन के लेन-देन की ड्यूटी पूरी कर आई जिसका उलाहना मुझे कई सालों तक मिलता रहा।
इसी बीच मैं एक बेटे और एक बेटी की माँ भी बन चुकी थी।वो दोनों बड़े हुए तो कुछ दिनों तक पतिदेव ने उनके होमवर्क कराये और फिर मेरे सिर पर डालकर उन्होंने अपने हाथ खड़े कर लिये।
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समय बीतने लगा।बीमार सास का महाप्रयाण हो गया तब देवर-ननद का विवाह करना तो भाभी की ही ज़िम्मेदारी थी जो मैंने पूरी की और सोचा कि अब बस…।
बेटा नौकरी करने लगा…बेटी भी सयानी हो चुकी थी तो एक सुयोग्य वर तलाश कर उसका विवाह कर दिया।बेटे ने खुद के लिये लड़की पसंद करके मेरा काम थोड़ा हल्का कर दिया था।तब मैंने अपने पति से कहा,” सुनिये जी..विवाह के बाद चार दिन रहकर बेटे-बहू तो चले ही जायेंगे..तब आप एक सप्ताह की छुट्टी ले लीजिएगा..हम लोग कहीं घूमने चलेंगे।मैंने कमला भाभी की मेड से बात कर ली है..वो घर आकर बाबूजी के लिये खाना बना दिया करेगी और उन्हें खिला भी दिया करेगी।”
मेरा फुल प्रुफ़ प्लान सुनकर पतिदेव सहर्ष तैयार हो गये।बेटे का विवाह हो गया..बेटे-बहू अपने स्थान पर चले गये..रिश्तेदार भी अपने-अपने घर.. तब मैं अपनी तैयारी करने लगी।पतिदेव ऑफ़िस में छुट्टी का आवेदन देने जा ही रहे थे कि बाथरूम में बाबूजी का पैर फ़िसल गया…
सिर बच गया लेकिन दाहिने पैर में फ्रैक्चर हो गया।न जाने का अफ़सोस तो हुआ लेकिन ईश्वर को धन्यवाद भी दिया।मेरे जाने के बाद यदि बाबूजी गिरते तो मेरे मन पर एक बोझ हो जाता और ऊपर जाकर मैं सास को क्या जवाब देती..।
बाबूजी का पैर ठीक हो गया और वो चलने- फिरने भी लगे थे।इसी बीच उन्हें प्रिय मित्र के देहांत की खबर मिली तो वो दुख बर्दाश्त नहीं कर पाये और एक दिन सोये-सोये ही..।
बड़े-बुजुर्गों की अहमियत हमें उनके जाने के बाद ही समझ में आती है।उस वक्त हमें लगा कि जैसे हम अनाथ हो गये हो।उम्र हो जाने के बाद भी घर के सभी बड़े फ़ैसले बाबूजी ही किया करते थे जो अब हमें करने पड़ेंगे।
पतिदेव के रिटायर होने का समय नज़दीक आ रहा था।हमसे बोले,” सुनो जी..बहू- माँ की ज़िम्मेदारी तुम पूरी कर चुकी हो..अब पत्नी- धर्म निभाओ…।रिटायरमेंट का पैसा मिलते ही हम मंसादेवी मंदिर के दर्शन करने चलेंगे।” हम तो तैयार ही बैठे थे..झट-से हाँ कह दी।
पति के सेवानिवृत्त होने के बाद हम हरिद्वार जाने की तैयारी करने लगे।उम्र हो रही थी सो दो-चार गर्म कपड़े भी रख रहे थे।बेटे को बता दिया था, बेटी को फ़ोन करने वाली थी कि दामाद जी का फ़ोन आ गया,” मम्मी..अक्षरा(बेटी) की प्रेग्नेंसी में कुछ काॅम्प्लीकेशन है तो डाॅक्टर ने उसे बेड रेस्ट करने को कहा है।अगर आप आ जातीं तो…।”
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” हाँ- हाँ…कल की पहली बस पकड़कर मैं आती हूँ।” कहकर मैंने फ़ोन रख दिया।मैं कुछ कहती, उससे पहले ही पतिदेव बोल पड़े,” समझ गया..तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होंगी…।
” ऐसी बात नहीं है जी..बेटी को अभी हमारी ज़रूरत है.., अगले साल पक्का…।” मैंने उन्हें विश्वास दिलाया।वो मेरी तरफ़ ऐसे देखने लगे जैसे कह रहें हों,” अगले साल तो तुम बहू की…।” मैं कुछ नहीं बोली, जानती थी कि हम औरतों की ज़िम्मेदारियाँ तो हमारी साँस के साथ-साथ चलती हैं।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होंगी