दीवार घड़ी ने नौ बजाये| श्वेता की घबराहट बढ़ रही थी|”जब वो जानती थी कि पापाजी की याददाश्त कमजोर पड़ रही हैं तो यूँ उन्हें अकेले चले जाने की बात वो टाल क्यों न पाई? लाख वो जिद पर अड़े रहते,पर जब सुदेश भी दो दिनो के लिए शहर से बाहर हैं तो उसे पापाजी को रोक लेना चाहिए था|” श्वेता अपने को कोसे जा रही थी|
इधर अक्सर खाना खा लेने के थोड़ी देर बाद वे फिर खाना परसने को बोलते और शब्दो की ये चाबुक भी मार ही देते,”तेरी सास होती तो क्या यूँ देर-सबेर करती?”
वो कुढ़ जाती पर कभी ये गौर नहीं किया कि पापाजी की याददाश्त कमजोर पड़ती जा रही है|
घबराहट में उसने सारे जान-पहचान वालो के फोन खड़खड़ा दिये| पर किसी जगह से उम्मीद न आई| मालूम सबको था कि सुकेश शहर से बाहर हैं फिर भी किसी ने पापाजी को ढुँढ लाने की कोई उत्सुकता न दिखाई| कैसा मरा हुआ शहर हैं?ह्दयहीन|
आज का दिन ही बड़ा खराब शुरू हुआ| सुबह काम वाली को ही दो-चार सुना दी| उसने कई बार कहा भी कि बच्चो को स्कूल भेज वो दोपहर की रोटी का भी इंतजाम करती हैं ,तब ही उसका आना हो पाता हैं| पर श्वेता ने काम वाली को जता दिया कि उसके बिना भी काम आसानी से चल जायेगा,”दोपहर को आ अपना हिसाब ले लेना|” फिर वो अभिमाननी भी एक पल वहाँ न रूकी|
अब श्वेता का धैर्य जवाब दे गया| स्कुटी की चाबी ले वो घर से थोड़ा ही आगे ही बढ़ी थी कि सामने से काम वाली के साथ पापाजी आते दिखाई पड़े|
श्वेता के कुछ पुछने से पहले ही कजरी बोली,” मेमसाहब, बाऊजी मुझे रकाबगंज के चौराहे खड़े मिले| शायद घर का रस्ता भूली गये| आने-जाने वाला इत्ता लोग रहा मगर कौनो ध्यान न दिये| वो तो हम ऊँहा से गुजर रहे थे| बाऊजी पर नजर पड़ी,नाही तो कितना देर वही खड़े परेसान रहते|”
थोड़ी देर रुक कजरी बोली,” मेमसाहब, आप भले मुझसे बैर रखे पर बाऊजी ने हमेशा मुझे अपनी बेटी की तरह ही समझा| आज एक बेटी का ही धरम निभा दिये|”
अंजू निगम
नई दिल्ली