*रेशम की डोर* – *मीरा सिंह* : Moral Stories in Hindi

लता देख रही थी आज सौरभ सुबह  उठ कर जल्दी जल्दी नहा धो रहा था । वह अपने पति का स्वाभाव जानती थी  । आज राखी था और साइत भी सुबह के सात बजे तक का ही था ।

वह भी तो अपने भाई भतीजों के लिए मुँह अंधेरे से ही रसोई में घुसी हुई थी । वही पारम्परिक व्यंजन जो इस अवसर पर बरसो से माँ को बनाते देखा था ,आज भी उसी परम्परा को निर्वाह कर रही थी वो ।काम भी आज थोड़ा बढ़ा हुआ  था ,क्योंकि काम करने वाली और खाना बनाने वाली दोनो ही आज छुट्टी पर थीं ।वो भी दोनो राखी के इस मौके पर अपने अपने मायके जाती थीं ।

वैसे तो सौरभ की दोनो बहने बाहर रहती थीं पर राखियाँ सारी पोस्ट से समय पर आ जाती थी ।उस शहर मे सौरभ की एक दूर की रिश्तेदार थीं जिनकी बेटी को वो दीदी बोलता था । गाहे बगाहे हमेशा अपने उस रिश्तेदार के लिए खड़ा रहता ।जरूरत हो या ना हो हमेशा उनलोग की मदद करता । राखी के दिन तो उसमें एक प्रकार का उमंग भरा रहता था …कि कितना जल्दी वह अपनी सभी बहनो की राखी लेकर उनके पास पहुँचे ।बहन भी सौरभ को बहुत मानती थीं ।

राखी के एक दो दिन पहले वो सौरभ को फोन कर देती

,” भाई समय पर आ जाना राखी बँधवाने ।”

बहन के फोन से उसके अंदर खुशी की लहर दौड़ जाती थी और रेशम के डोर से बंधा हुआ वो बहन के यहाँ जाने के लिए कपड़ों के साथ मिठाईयाँ पैक कराने तुरंत बाजार निकल जाता था ।

मगर अभी उसका व्यापार थोड़ा मंदा चल रहा था । तो लेनदेन  पहले जैसा नहीं कर पाता था। उस दिन भी वह बहन के यहाँ जाने की तैयारी कर रहा था । तभी दरवाजे की घंटी बजी ।दरवाजा खोलते ही सामने डाकियाँ खड़ा था ।

सौरभ को देखते ही बोला  – ” राखी था  तो मैने सोचा आपको देकर ही अपनी बहन के यहाँ जाऊँगा । “

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सौरभ हाथ में लिफाफा लेकर भौचक खड़ा था । वह सोचने लगा  सभी बहनो की  राखियाँ तो आ गई थी फिर ये किसकी राखी है ?

तभी उसकी पत्नी ने पूछा  ,” किसकी राखी है जी ।”

“फाड़ कर देखता हूँ  ।”

ऐसा बोलकर लिफाफा फाड़ने लगता है ।अंदर में दो राखी ,चावल का अक्षत और रोरी रखा हुआ था ।भेजने वाले का नाम पता कुछ भी नहीं ।

इसी बीच उसके मोबाइल की घंटी बजी, स्क्रीन पर उसी बहन का नम्बर आ रहा था फोन उठाते ही बोला  ,” दी बस निकल ही रहा हूँ ।”

उधर से दीदी बोल रही थी  ,” भाई तेरी राखी को मैने डाक से भेज दिया है । आज मिल जायेगा तुम्हें ।”

” लेकिन दी आपने राखी पोस्ट क्यो किया मैं तो आ ही रहा था बंधवाने । “

” सुबह के सात बजे तक की ही साइत है बाबू ऐसा पंडित जी ने कहा है । तुम कहाँ उतना सवेरे नहा धोकर मेरे पास आ पाओगे ।इसलिए अपने हिसाब से तुम अपने घर में ही राखी बाँध लेना ।”

यह कह बहन ने फोन काट दिया ।

लता सब देख रही थी सौरभ के चेहरे के हाव भाव को । पर वो कुछ ना बोली ।वो समझ गई जब तक सौरभ के पास पैसा था सब आगे पीछे घूमते थे । आज जब वो लोग बुरे दौर से गुजर रहें हैं बहन ने भी रास्ता बदल लिया ।अब वो गरीब भाई के हाथ पर कैसे राखी बाँधेंगी ।ऐसा सोचकर वह सौरभ की तरफ देखती है ।बेचारा सौरभ का मन छोटा हो गया था तबतक ।

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फोन कब का कट गया था लेकिन सौरभ  , वो तो संज्ञासून हो एकटक बस सामने सोफे को घूरने लगा ।उसे चक्कर से आने लगा पत्नी ने उसे पीछे से  पकड़ा नहीं होता तो वो कब का गिर गया होता ।

वो सोचने लगा इस बहन की शादी में सगे भाई से बढ़कर  मदद किये थे । अपनी उस दूर की चाची को इस शहर में बसाए। घर बनाने के लिए भी  पैसे दिए थे ।जब तक पैसा था यही सब आगे पीछे  घूमते रहते थे और आज बिजनेस मंदा क्या हुआ इस बहन ने आँखे फेर ली ।साइत का बहाना कर मुझसे कटने की कोशिश कर रही है ।उनके दुख सुख  मे हमेशा सबसे पहले खड़ा रहा । अपने सगी बहनो से भी ज्यादा परवाह  किया और आज वही बहन मेरे उन सारे किये कराए को ताक पर रख दी क्योंकि अब मैं उसके बराबर का ना रहा ।

ठगा सा खड़ा वो अब रेशम की डोर से बनी उन राखियों को संशय से देखने लगा।

*स्वरचित*

*मीरा सिंह*

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