ऑफ़िस के रास्ते में एक अत्यधिक व्यस्त ट्रैफ़िक सिग्नल पड़ता था। अगर उस पर रुकना पड़ गया तो कम से कम पाँच-सात मिनट की तो छुट्टी हो ही जाती। मेरी नई-नई नौकरी लगी थी तो ऑफ़िस पहुँचने की जरा जल्दी रहती। वहाँ रुकना बेहद अखरता था।
इसी सिग्नल पर कुछ लोग तमाम तरह का सामान लेकर गाड़ियों को घेर लेते हैं। रोज़ अलग-अलग तरह की चीजें! कार की खिड़की से अंदर ही डाल देते जिससे आप ख़रीदने का सोचने लगते।
कुछ दिनों से एक लड़की दिख रही थी, यही कोई आठ-दस साल की होगी। उस दिन पंखा बेच रही थी बैटरी वाला सौ रुपए में।
“ले लो न भैया! सुबह से एक भी पंखा नहीं बिका।”
कुछ दिन बाद टिश्यू का डिब्बा ले आई, कभी शेड्ज़, कभी ग़ुब्बारे, कभी रूमाल…. पर हर बार एक ही डायलॉग बोलती,
“भैया, ले लो न! एक भी नहीं बिका अभी तक!”
“ये बताओ, ये रोज़-रोज़ यही क्यों बोलती हो एक भी नहीं बिका अभी तक!”
“फिर सब लोग ख़रीद लेते हैं न तो मैं जल्दी से अपना काम खतम कर लेती हूँ!”
“फिर क्या करती हो?”
“पढ़ती हूँ न!”
“अच्छा! कौन से क्लास में?”
“क्लास में नई पढ़ती भैया। भैया की किताब से पढ़ती हूँ। छुपा कर ले आती हूँ। बिना किसी को बताए। ये देखो!” अपने थैले से एक किताब निकाल कर दिखाई उसने … अ-आ वाली।
“भैया कुछ कहता नहीं?”
“वो तो हर समय खेलता रहता है, पढ़ता ही नहीं तो उसे पता भी नई चलता!”
“तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है?”
चमक आ गई चेहरे पर,
“बहुत! मुझे तो बड़ा आदमी बनना है पढ़ लिख कर पर माँ कहती है लड़की को कोई ज़रूरत नहीं पढ़ाई की!”
“फिर कैसे करती हो पढ़ाई?”
“अगर मैं ये सारा सामान बेच देती हूँ तो माँ मुझे भैया को ट्यूशन में ले जाने देती है। छोटा है ना… अकेले नहीं जा सकता!”
“वहाँ क्या करती हो?”
“पीछे बैठ कर सुनती रहती हूँ… चुपचाप! फिर घर आकर किताब से देख लेती हूँ। पर भैया के सामने नहीं! नहीं तो मारता है वो।”
“छोटा है फिर भी मारता है?”
“तो क्या हुआ… लड़का है ना!”
फिर तो जब भी सिग्नल पर मेरी गाड़ी रुकती, वो दौड़ी चली आती! मानो वो मेरी गाड़ी का ही इंतज़ार कर रही हो! हाँ, अपना नाम दीपिका बताया उसने। शायद माता-पिता में से कोई दीपिका का फ़ैन होगा!
एक दिन इंग्लिश के उपन्यास ले आई,
“भैया ये लो कहानी की किताबें…. ये ग्रिशाम की, ये हैरी पॉटर की, ये आर्चर की, ये……”
“अरे! तुझे तो पढ़ना आता नहीं फिर तुझे कैसे पता कौन सी किसकी है?”
“रट ली है भैया, दुकान वाले अंकल ने सबका नाम बताया था।”
पर धीरे-धीरे दीपिका ने मुझे सामान दिखाना बंद-सा कर दिया… बस बातें करती रहती। मैं ही ज़बरदस्ती कुछ न कुछ ले लेता उससे।
अगले हफ़्ते रक्षाबंधन का त्योहार है तो अब हर सिग्नल पर राखी से संबंधित सामान बिकते हैं। दो दिन पहले दीपिका अपना थैला लिए मेरी गाड़ी पर आ गई।
“भैया, आज मैं राखी लाईं हूँ ……”
“कितनी हैं?”
“बीस पैकेट हैं पर आपको तो एक ही देनी है…..”
“क्यों?”
“आप हमेशा इतना प्यार से बात करते हो, सब लोग तो डाँट कर भगा देते हैं। इसीलिए मैं आपको ये राखी देना चाहती हूँ, बेच नहीं रही।”
मैंने उसे धन्यवाद दिया और राखी रख ली। उसकी भावनाओं का मान रखते हुए मैंने उसे राखी के पैसे नहीं दिए।
जिस ट्रैफ़िक सिग्नल से मुझे चिढ़ थी उसी का आज मुझे बेसब्री से इंतज़ार था! अपने अंदर आए इस बदलाव को देख मैं खुद ही आश्चर्यचकित था!
भागी चली आई दीपिका मेरी गाड़ी देखकर! मेरी कलाई पर बँधी अपनी राखी देख चौंक गई।
“आपने मेरी……”
“तभी तो आया हूँ… उस दिन राखी का गिफ़्ट तो दिया नहीं था मैंने! ये लो!”
“ये क्या है?”
“देखो!”
एक स्कूल बैग और उसके अंदर कक्षा एक की किताबें, कॉपियाँ, पेंसिल, रबर, स्लेट, चौक आदि देख वह ख़ुशी से उछल पड़ी।
“ये सब मेरे लिए?”
“हुँहुँ”
थैंक यू भैया!”
“सिर्फ़ थैंक यू से काम नहीं चलेगा। खूब दिल लगा कर पढ़ाई करनी पड़ेगी। आज से तुझे पढ़ाई के लिए जिस भी चीज़ की ज़रूरत होगी मैं लाकर दूँगा। अगर तू पढ़ने में मन लगाएगी तो स्कूल में नाम भी लिखाऊँगा।”
उसके चेहरे पर संशय देख मैंने कहा, “न-न, तेरे माँ-पापा कुछ न कहेंगे। उनसे मैं बात कर लूँगा। पर पहले तुझे मेहनत से पढ़ाई करनी होगी।”
“करूँगी भैया, मैं बहुत मेहनत करूँगी। मुझे बड़ा आदमी बनना है जिससे मैं भी आपकी तरह औरों की मदद कर सकूँ।” कह कर उसने खिड़की में से हाथ डाल मेरे पाँव छू लिए।
स्वरचित
प्रीति आनंद अस्थाना