आज पढ़ाते- पढ़ाते अचानक जोवैन(मेरी छात्रा) ने मुझे एक्सक्यूज़ मी मैम कहा और दूसरे कमरे में चली गई।वापस आई तो मुझे आँखें बंद करने को कहा और फिर “ओपेन मैम” कहकर मेज़ पर एक बड़ी-सी डाॅल रखकर बोली,” Mam..see, my uncle gifted me.” फिर वह उस डाॅल की खूबियाँ बताने लगी और तब मुझे मेरा प्यारा बचपन याद आ गया।या यूँ कहे कि मैं फिर से सात साल की छोटी विभा बन गई।
1972 में हमारा घर नया-नया ही बना था।उन दिनों घर के सभी कमरे एक समान होते थे।खिड़की-दरवाज़ों के साथ हर कमरे की दीवारों में सामान रखने के लिये रैक बने होते थें।साथ ही, एक छोटा रैक भी बना होता था जिसे बोलचाल में हम खंड कहा करते थे।उसी छोटका खंड में मैंने अपनी गुड़िया का घर बना रखा था।
मेरी गुड़िया स्वनिर्मित थी।दादी के दातुनों में से दो दातुनों को जोड़कर शरीर का ढाँचा तैयार किया था।फिर रुई को सफेद कपड़े में लपेटकर मुँह और दातुन के छोटे टुकड़े को बीच में बाँधकर हाथ बना दिया था।माँ के सुई-धागों वाले डिब्बे से काला धागा
लेकर अपनी गुड़िया की चोटी बनाई, काजल से आँख और नेलपाॅलिश से ओंठ बना दिये थे।दोनों आँखों के बीच एक बिंदी भी लगा दी थी।माँ की पुरानी साड़ी को फाड़कर अपनी गुड़िया को पहनाकर मैं बहुत खुश हुई थी।
स्कूल से आकर मैं सबसे पहले अपनी गुड़िया को ही देखती थी, इस उम्मीद में कि मेरी तरह वो भी बड़ी हो रही होगी।उसके बाद ही मैं अपनी ड्रेस चेंज करती थी।कुछ दिनों के बाद मैंने माँ से एक और साड़ी माँगकर अपनी गुड़िया की साड़ी बना दी।अब मेरे पास दो साड़ियाँ हो गई थीं तो मैं रोज अपनी गुड़िया की चोटी करती
और साड़ी बदलती।फिर हमारे यहाँ बढ़ई का काम शुरु हुआ तो मैंने अपनी गुड़िया के लिये एक पलंग बनवाया।अब मेरी गुड़िया पलंग पर सोने लगी थी।कुछ महीनों बाद मैंने एक गुड्डा भी बनाया..उसे पैजामा- कुर्ता पहनाया..और सिर पर टोपी भी पहनाई।उस उम्र में इतनी कलात्मकता न जाने कहाँ से मेरे अंदर आ गई थी।
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साल भर बाद मैंने प्लास्टिक की गुड़िया खरीदी..उसे भी सजाती-सँवारती लेकिन पहले वाली को भी साथ में रखती थी।फिर मैं हाॅस्टल चली गई लेकिन छुट्टियों में आती तो फिर से उनके साथ खेलती थी।घर के पास ही मेरी सहेली सविता रहती थी।वो चार बहनें थीं..उसके पास तो गुड़ियों की दुकान थी।हम सब आपस में गुड्डे- गुड़ियाँ का ब्याह भी रचाते थें।
स्कूल में भी मैंने पेपर डाॅल, स्पंज डाॅल, राजस्थानी डाॅल और जापानी डाॅल बनाना सीखा।सच में, अपने हाथ से बनाई गुड़िया को देखने में जो खुशी और सुकून मिलता था वो बाज़ार से खरीदी मशीनी गुड़िया में कहाँ।
दीपावली में हमारे यहाँ घरौंदा बनाया जाता था।मिट्टी के छोटे-छोटे बरतन भी खरीदे जाते थे जिसमें तसला-कड़ाही के साथ चूल्हा भी होता था।मैं उस चूल्हे में कागज डालकर आग जलाती..एक बरतन में पानी डालकर चूल्हे पर रख देती..रसोई से अपनी मुट्ठी भर चावल लाकर उसमें डालकर पकाती और उसे पकते देख मैं फूली नहीं समाती थी।
समय के साथ मैं बड़ी होती चली गई और गुड्डे- गुड़िया का साथ छूट गया।पढ़ाई और अन्य ज़िम्मदारियों का बोझ सिर पर आ गया जिसमें मेरा प्यारा बचपन कहीं गुम हो गया।
आज जब मैंने जोवैन की डाॅल देखी तो न जाने क्यों..उन गुड्डे-गुड़ियों के साथ फिर से खेलने के लिये मेरा मन भी मचल उठा।
विभा गुप्ता
स्वरचित