प्यार भी तकरार भी – श्वेता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

“शीला, हद होती है किसी चीज की| आज तो तुमने कंजूसी की सारी हदें ही पार कर दी| क्या करोगी इतने पैसे बचाकर? रवि गुस्से से उबल रहा था|

“पर,पहले बताइए तो मैंने किया क्या है?”

“मेरे स्टेटस का तमाशा बना कर रख दिया है| दोस्तों के बीच मजाक बनकर रह गया हूँ| जब मैं आज शॉपिंग में तुम्हें ‘पाँच हज़ार’ की साड़ी दिला रहा था तो तुम ने हजार रुपए की साड़ी क्यों ली? सब कितना हँस रहे थे मुझपर कि इतने बड़े सीनियर बैंक मैनेजर की वाइफ इतनी सस्ती साड़ी पहनती है|

लेकिन, तुम सुनो तब ना| बस हमेशा पैसे बचाने का फितूर दिमाग पर सवार रहता है|”

“सुनो जी, आप नाराज मत हो| मुझे लगा कि अभी तो कहीं आना-जाना भी नहीं है| कोई शादी-ब्याह भी नहीं है| बेकार पैसा बर्बाद करके क्या फायदा?”

“तुम तो शांत ही रहो| यह पहली बार नहीं है हर बार तुम पैसा बचाने के नाम पर मेरी ऐसे ही इंसल्ट कराती हो| पिछली बार भी जब मेरे दोस्त खाने पर आए थे तो मैंने तुम्हें कहा भी था कि खाना इंपोर्टेड क्रोकरी में सर्व करना|

फिर भी, तुमने स्टील की थाली में खाना परोस दिया| आजकल कोई स्टील की थाली में मेहमानों को खाना खिलाता है क्या? सब कितना मजाक उड़ा रहे थे|”

“वह तो मैंने सोचा कि इतनी महंगी क्रॉकरी है टूट जाएगी तो हजारों का नुकसान हो जाएगा| आपके दोस्त ही तो हैं कोई बाहर वाले थोड़ी हैं| इनसे कैसा दिखावा इसीलिए स्टील के बर्तनों में परोस दिया|”

“हर वक्त पैसा-पैसा| चाहे होटल में खाने जाना हो घूमने जाएँ या कपड़े खरीदने| हर जगह तुम्हारा पैसा-पुराण चालू रहता है कि ‘क्या जरूरत है इतना खर्चा करने की|” परेशान हो गया हूँ मैं तुम्हारी इस आदत से| छाती पर बांध कर ले जाना इस पैसे को| जीना हराम कर दिया है|

“देखो जी, इस बात पर आपका और मेरा मतभेद है। चाहे आप जो भी बोले मैं अभी भी बोलूँगी यह कंजूसी नहीं घर चलाना है| बेफिजूल में खर्च करके क्या फायदा| बचाए हुए पैसे कभी आडे वक्त में काम ही आएंगे।”

“तुमसे तो कुछ कहना सुनना ही बेकार है| ‘भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा|’ ‘नॉनसेंस’ चले जाओ यहाॅं से और फिर कभी मेरे सामने मत आना|” रवि भड़क उठा|

“हाॅं, हाॅं तो मुझे भी कोई शौक नहीं है आपके सामने आने का।”बोलते हुए शीला भी गुस्से में वहाॅं से चली गई।

दूसरे दिन नौ बजे रवि की नींद खुली| अपनी आदतानुसार उसने शीला को आवाज दी “शीला चाय”| लेकिन ना कोई जवाब आया न चाय| रोज तो बिना बोले ही चाय और अखबार हाजिर हो जाता था|आज मांगने पर भी नहीं दे रही है

और आज सुबह उठाया भी नहीं| अब तो ऑफिस के लिए भी लेट हो जाऊंगा|तभी उसे ध्यान आया कि आज तो 2 अक्टूबर है| ‘ नेशनल हॉलिडे’| इसीलिए नहीं उठाया पर अभी तक चाय भी नहीं लाई| “कहाँ है वह? शीला ओ शीला कहाँ हो? एक बढ़िया सी चाय तो पिला दो|”

लेकिन शीला का कोई अता-पता नहीं था| शायद किचन में होगी| लेकिन न तो शीला किचन में थी ना पूजा घर में| उसने वॉशरूम ,भंडारघर घर के हर कोने में देख लिया| लेकिन, शीला कहीं नहीं थी| अब तो उसे चिंता होने लगी थी|

उसका फोन लगाया तो फोन भी घर में ही था| वह भागकर पड़ोसियों से भी पूछ आया लेकिन वह वहाँ भी नहीं थी| कोई सहेली तो थी ही नहीं उसकी तो कहाँ चली गई? अपने साले को फोन किया तो उल्टे उसी ने पूछ लिया “जीजाजी दीदी को कहाँ छुपा कर रखा है हफ्ते भर से बात ही नहीं हुई|

अभी पूजा कर रही है, कराता हूँ बात थोड़ी देर में| इसका मतलब वह पीहर भी नहीं गई| चौराहे के मंदिर में भी खोज आया था।वहाँ भी नहीं थी| अब तो रवि की डर से हालत खराब होने लगी| पता नहीं कहाँ चली गई है कल रात ज्यादा ही गुस्सा कर दिया था मैंने।

ऐसा क्या गलत करती है वह, पैसे ही तो जोड़ती है कहीं कुछ कर तो नहीं लिया?” रवि के मन में कई विचार एक साथ आ जा रहे थे वह बुरी तरह डर गया था|

तभी अचानक उसे घर के बाहर ऑटो रुकने की आवाज आई। वह भागकर बाहर गया तो देखा शीला सब्जी के थैलों के साथ लदी-फदी ऑटो से उतर रही थी| “भैया चालीस रूपये ही दूँगी| पचास रूपये गलत है|

जो वाजिब है वही लो|” वह ऑटो वाले से भाव-ताव कर रही थी| उसे देखते ही रवि की जान में जान आई और वह उसकी ओर दौड़ पड़ा कहाँ चली गई थी?” सब्जी का थैला उठाते हुए रवि बोला|

“बड़ी हाट गई थी| पता है यहाँ टमाटर पचास, तो वहाँ तीस रूपये किलो है| कद्दू भी यहाँ तीस तो वहां बीस रूपये है| बड़े दिनों से जाने की सोच रही थी| आज आप की छुट्टी थी और कल बड़ी दीदी का भी फोन आया था

कि वह दस-पंद्रह दिनों के लिए आ रही है तो मैं आज सुबह सात बजे ही चली गई| अब लोग ज्यादा होंगे तो खपत भी तो बढ़ेगी| भाड़ा काटकर पूरे पाँच सौ बचाए हैं। लेकिन,आपको क्या? आप तो अभी भी यही बोलेंगे कि मैं एक-एक पैसे के लिए मरी जाती हूॅं।”

आज पहली बार रवि को उसकी बातें सुनकर गुस्सा नहीं प्यार आ रहा था| बेचारी एक- एक रुपए के लिए कितना सोचती है और मैं नाहक इस पर चिल्लाता रहता हूँ|

“एक मिनट|” अचानक कुछ सोचते हुए शीला बोली “मैं तो चाय के फ्लास्क के नीचे चिट पर लिख कर गई थी कि मैं बड़ी हाट जा रही हूँ| जब आपने चिट ही नहीं पढ़ी तो इसका मतलब आपने चाय भी नहीं पी| मैं अभी बना कर लाती हूँ|”

“नहीं, तुम आराम से बैठो| मैं बनाता हूँ | तुम थकी हुई हो|”

“नहीं, बिल्कुल नहीं। चाय तो मैं ही बनाऊँगी| आप जितनी चीनी और पत्ती में एक कप चाय बनाओगे उतने में तो चार कप बन जाएगी। फिर कुछ बोलूॅंगी तो बोलोगे कि बोलती हूॅं। पैसा-पैसा करती हूॅं।”

“वह चाहे जो हो, चाय तो मैं ही बनाऊँगा|’

“इस मैं-मैं में तो बन ली चाय| ऐसा करते हैं, दोनों मिलकर बना लेते हैं|” शीला ने हॅंसते हुए कहा और दोनों साथ-साथ किचन की ओर चल पड़े|

साप्ताहिक विषय- #मतभेद

कहानी का शीर्षक- ‘प्यार भी तकरार भी’

श्वेता अग्रवाल

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